7/19/2005

खामोशी का सुकून

बातें दहकते अंगारे
लाल उडहुल के फूल
डामर की सडक पर
धूप की किरचें
चारों ओर
बस शोर ही शोर

पर मुझे
इनसे परेशानी नही
परेशानी तो तब होती है
जब सही, गलत हो जाता है
सफेद काला हो जाता है

तब अंदर का अंतर्नाद
बाँध तोड बह जाता है
चीखें तेज़ कटार, छाती में
उतर जाती हैं..
चीते की छलांग लगाकर
शोर के खुँखार पँजों में
दबोच लेती हैं

तब मैं बेचैन हो जाती हूँ
साँझ की तनहाई का इंतज़ार करती हूँ
एहतियात से रखे..खामोशी के सफेद चादर
को बिछा देती हूँ..तब बिस्तरे पर
इसके हरेक फंदे को बुना है मैंने
सुकून के धागे से
टाँके हैं खुश्बुओं के फूल इनपर

आँखें मून्दे लेट जाती हूँ
चारों ओर से लपेट लेती हूँ
समन्दर की लहरें लौट जाती हैं वापस
ये सुकून की खामोशी है
या खामोशी का सुकून ??

2 comments:

संजय विद्रोही ( Dr. Sanjay Sharma) said...

खामोशी का अपना एक सुकून होता है.....जो किसी भी तरह 'सुकुन की खामोशी' से कमतर नहीं है.आपकी कलम में 'वो' खामोशी सुनाई देती है.......ढेरों बधाई.

-संजय विद्रोही

Pratyaksha said...

खामोशी का एक सुकून होता है, खामोशी की एक आवाज़ भी होती है.....
ये आवाज़ आप तक पहुँची...शुक्रिया
प्रत्यक्षा