हिलते पर्दे से छनकर रौशनी आती है , शीशे के बोल में अरालिया की एक लतर , किताबों की टांड में एक ग्रॉसमन , रिल्के की ना समझी कोई कविता की एक अदद पंक्ति, चाय की दुकान पर आधी पी गई एक टूटी चीनी मिट्टी की प्याली , झगड़ालू बत्तखों के कैंक कैंक के बीच ज़रा सा (जो होना ही था ऐसी संगत में ) गुस्सा और मेहताब मियाँ के नमाज़ के वक्त देर कराते पर्दे की बहस करते हँसते कहते , दोस्त ?
कोल्ताई की फिल्म पर धीमे बात करते , इतवार की उदास दोपहर दो बूँद आँसू की संगत में याद करते बारिश की एक नम सुबह , बरसों पहले की सूखी घास पर रेंगते चींटे , हवा में उड़ते पतंगे , अलसाये भुनभुनाते भौंरे , कहते सन डैप्पल्ड , एक भुतहा काल्पनिक रेल जो जाने किस शहर लिये जाता मुझे ,वक्त में सुन्न जँगलात , हरी वादी , माँ के घने काले केश , आड़ी तिरछी कहानियाँ , सूनी सड़कें , छापे की वही रंगीन बचपन की फ्रॉक , एक मीठी गोली चूसता लड़का देखता है मुड़ कर अब भी , जाने कहाँ चला गया , किस अजाने भूगोल , बँद होती एक खिड़की के पीछे का धुँधलाता संसार , सुनसान स्टेशन पर रुकी हुई है रेल अब भी हज़ारों साल
आप का आना…उजले दिनों की याद सा…
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...न जाने अतीत के कितने रेडियो स्टेशन अपना सदियों से रुका प्रसारण अचानक फिर करने लगे...एक साथ :-)
ReplyDeleteहर बार की तरह एक अलग ही अंदाज़ और अल्फाज़.
ReplyDeleteकुछ नयापन लिए हुए है यह आलेख.
ReplyDeleteगोया ...किसी ने पसंदीदा म्यूजिक धीमा ऑन किया हो जैसे
ReplyDeleteप्रतीक सेवारत हैं, भावों के दरबार में।
ReplyDeleteअलग हट के लिखी गई रचना।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...न जाने अतीत के कितने रेडियो स्टेशन अपना सदियों से रुका प्रसारण अचानक फिर करने लगे...एक साथ
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद आपको पढ़ा .. बढ़िया लगी.. आभार...
दबे पाँव आती हो भीतर का सब कुछः हिलाने...:-)
ReplyDeletewaah!
ReplyDeleteवाह, आपके इस लेख को पढ़ कर जाने क्यों प्रमोद सिंह जी की याद आ गयी..
ReplyDeleteकुछ तो नया है.... बधाई!
ReplyDeleteबिन आंखें बंद किए भी सब कुछ जी लेती हूं... आपके साथ ...हर बार :)
ReplyDeleteलय ताल में थिरकती है आप्की एक एक शब्द....शुक्रिया
ReplyDeleteGreat fforumm! Thanx guys!
ReplyDeleteआपको जन्मदिन कि हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteआप सार्थक हों और सफल हों!
मेरे ख्याल से आप पावरग्रिड में हैं,
मैं भी पावरग्रिड में ही हूँ, मुजफ्फरपुर में|
मैं दिनेश पारीक आज पहली बार आपके ब्लॉग पे आया हु और आज ही मुझे अफ़सोस करना पद रहा है की मैं पहले क्यूँ नहीं आया पर शायद ये तो इश्वर की लीला है उसने तो समय सीमा निधारित की होगी
ReplyDeleteबात यहाँ मैं आपके ब्लॉग की कर रहा हु पर मेरे समझ से परे है की कहा तक इस का विमोचन कर सकू क्यूँ की इसके लिए तो मुझे बहुत दिनों तक लिखना पड़ेगा जो संभव नहीं है हा बार बार आपके ब्लॉग पे पतिकिर्या ही संभव है
अति सूंदर और उतने सुन्दर से अपने लिखा और सजाया है बस आपसे गुजारिश है की आप मेरे ब्लॉग पे भी आये और मेरे ब्लॉग के सदशय बने और अपने विचारो से अवगत करवाए
धन्यवाद
दिनेश पारीक
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खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद
ReplyDeleteऔर बाकी स्वर शुद्ध लगते
हैं, पंचम इसमें वर्जित है,
पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें
राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में
चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
Also visit my web page खरगोश
बहुत खूब ...वटवृक्ष के जरिये पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूँ ..बहुत अच्छा लगा .......
ReplyDeleteकुछ अलग हटकर ...
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