मुझे एक घर चाहिये था . हवा
और रौशनी से भरा . पीले नारंगी फिरोज़ी और सब्ज़ रंगों से सजा . मैंने तब पॉल गोगाँ
नहीं जाना था , मून ऐंड सिक्स पेंस नहीं
पढ़ा था . लेकिन मेरे दीवार पर एक हरियाली दुनिया रंगती थी , जंगल और तितलियाँ . फर्श
एकदम शफ्फाक सफेद और आँगन लाल पक्के की .
जाली से रौशनी झरती और धूल
के कण सोने के बुरादे से चमकते फर्श पर गिरते . खिड़की से आसमान दिखता , पेड़ों की टहनियाँ दिखतीं .
जीवन दिखता , गिलहरियाँ दिखतीं और कभी
कभी कोई लाल चोंच वाला तोता भी .
***
मैं नींद में तरबतर . कोई
लिसलिसी चीज़ मेरे शरीर पर रेंगती है . मेरा बदन जुगुप्सा से सिकुड़ जाता है . दम
घुट रहा है . ये चादर जो मैंने लपेट रखा है , काश लोहे का हो जाये . इसमें हवा पानी कुछ भी न
समाये . मैं इस छोटी जगह कैद हूँ , कैद हूँ . महफूज़ हूँ . ओ मेरे मौला . मैं रोती
जाती हूँ . सुबह तकिया गीला है . अवसाद है .
बरामदे में चहल पहल है .
धूप में इक छाया सी दिखती है . बरतनों की खटपट है . होना था संगीत लेकिन जाने क्या
कर्कश सा कानों में चुभता है .
कोई पुकारता है ,
न , मेरा नाम नहीं . मैं कहीं
और हूँ . इस जगह की नहीं , इस वक्त नहीं . सब रुक जाये
. बस इसी वक्त . सब . ओह सब सब . मेरे भीतर कोई ताली पीटता है लगातार . मैं कानों
को ढक लेती हूँ .
***
माँ कहती थीं , किताबें खरीदने के लिये
पैसे नहीं हैं . लाईब्रेरी से लाकर पढ़ो . मैं मसहरी के अंदर छुप कर किताबें पढ़ती .
मैं कितनी चुप्पा लड़की थी . दोस्त नहीं थे सिर्फ किताबें थीं और उन्हीं दुनिया में
मैं विचरती . हमारे घर के ऊपर विजया रहती थी . विजयलक्ष्मी . उसकी शादी पन्द्रह
साल की उमर में हो गई थी . उसका छोकरा पति जब जब आता वह घर में बन्द हो जाती और
खिड़की से ललचाई आँखों हमें खेलते देखती . मुझे शादी का मतलब नहीं पता था . विजया
को भी नहीं पता था . उसकी माँ उसे तब साड़ी पहनवा देती और माँग में मोटा सिंदूर
लगवा देती . विजया के लिये शादी का मतलब घर में , साड़ी में , कैद था .
विजया को देख मुझे शादी से
नफरत हो गई थी . एक दोपहरी उसने रोते बताया था , उसके पति ने कैसे उसका मुँह दाब उससे कुछ गन्दा
काम किया था . बहुत दर्द हुआ था . मेरे कान लाल हो गये थे , चेहरा गर्म . ऐसा क्या ? उसने फिर संकेतों में
झिझकते जो कहा था मेरी दुनिया हवा हो गई थी . शरीर सुन्न .
क्या सब यही करते हैं ? गन्दा काम ?
***
मेरे अंदर बहुत सा डर है
लेकिन मैं सब भूल गई हूँ . बीरेन भाई की चिट्ठी आती है , तुम्हें आशीर्वाद .
मैं बेतहाशा हँसती हूँ .
मेरा चेहरा बिगड़ जाता है . माँ कहती हैं तुम बहुत उछृंखल होती जा रही हो . बड़ों का
लिहाज नहीं रहा तुम्हें . ऐसे विद्रोहिणी बने रहना हर समय सही है ?
माँ तुम कुछ नहीं जानती .
कुछ जानना भी नहीं चाहती . कभी कभी मुझे शक होता है , माँ मेरी असली माँ हैं ? कोई इतना अनजान ? नामुमकिन .
***
मुझे अकेले रहना अच्छा लगता
है . चुपचाप लेटे दिवास्वप्न देखना . सोचती हूँ किसी नाव पर अकेले नदी में बहती
जाती हूँ . दिन महीने साल . फिर अपनी बेवकूफी पर खुद ही तरस आता है . ऐसे भी क्या
खोये रहना .
ये सब पुराने दिन हैं . कभी
याद करूँ तो रंग उड़े , फटे उजड़े दिन .
अली से मैं सब कह सकती हूँ
. कह सकती हूँ न अली ?
अली मुझे एक बार देखता है
फिर अपने काम में लग जाता है . कोई किताब पढ़ रहा है . मैं अली के घुटने पर सर टेक
सो जाती हूँ . एक बार हाथ बढ़ा मेरे बाल सहलाता है .
अली को मैं बहुत नहीं जानती
लेकिन बावज़ूद उसे इतने कम समय में अपना सब कुछ बता डालने की इंटेंस इच्छा मुझे
नहीं छोड़ती .
माँ जानती हैं मैं अली के
साथ एक महीने से रह रही हूँ . मैंने ही उनको बताया . कुछ ढीठाई से .
माँ मैं अपने दोस्त के साथ
रहने जा रही हूँ
माँ की सशंकित आवाज़ , कौन ? मैना ?
मैना मेरी सहेली . मैना
मजूमदार . मुझ्से दस साल बड़ी . मुँहफट , बददिमाग , दबंग दुष्ट . माँ को बिलकुल नहीं पसंद .
मैं : न
माँ : फिर ?
मैं : अली
कुछ देर का मौन फिर माँ की
आशंकित सी आवाज़ , मुसलमान है ?
मैं : मालूम नहीं लेकिन नाम
से ऐसा ही लगता है न .
***
अली इरानी है . पीला गोरा
और दाढ़ी काली . छोटे कुतरे बाल और बड़ी सी पेशानी . शायद कुछ साल में सामने के बाल
उड़ जायेंगे .
मैं इतने साल अकेले रह कर
ऊब गई थी . अपने से ऊब . माँ को मेरी शादी की चिंता होती . पिता बचपन में गुज़र गये
थे . शादी कराने वाला कोई न था . होता भी तो मैं करती नहीं . माँ भरसक इधर उधर के
रिश्ते लातीं . मैं एक के बाद एक मना .
कुछ दिन मैना के साथ रही पर
रास न आया . वो हद से ज़्यादा डॉमिनेटिंग थी . मुझ्से स्नेह करती लेकिन मुझपर हुकुम
भी चलाती .
एक सीमा के बाद मैं निकल आई
थी . मैना हर्ट हुई थी .
आई लव यू डार्लिंग , तुम्हें पता है न
यस आई नो . मैंने सिगरेट का
धूँआ छोड़ा था . अचानक मैं कहीं मज़बूत हो गई थी .
सुनो , मैं तुम्हारे साथ सोना नहीं
चाहती , तुम जानती हो न .
मैं कैसे एक्दम ब्लंट हो गई
थी .
मैना ने कभी ऐसा तो नहीं
कहा था मुझसे . हो सकता है कि मुझसे बहनों वाला प्यार करती हो . वह मुझे कई बार
छूती थी . कभी बाल उठाकर गर्दन मालिश कर देना , कभी मेरे पाँव अपने गोद में रख सहला देना . लेकिन
इसके अलावा और कुछ नहीं . फिर ऐसी मुँफट बात मैं कैसे कह पाई ? मैं जो चुप्पा लड़की थी .
मैना का चेहरा पीला पड़ गया
था .
तुम पागल हो . यू हैव गॉन
क्रेज़ी .
लेकिन सच में उसका चेहरा
काँप रहा था .
मेरे अंदर एक क्रूर जानवर
गुर्रा रहा था . मैं किसका बदला ले रही थी . किससे ? ऐसे अपने प्यार करने वाले को जलील करना सही था
क्या ? मैंने सिगरेट उस पुराने
प्याले में रगड़ कर बुझाया था . फिर अपना झोला उठाये निकल पड़ी थी .
बाहर झीसी गिरती थी . मेरे
बालों पर , मेरे कपड़ों पर महीन बून्दों
का झालर सज गया था . पार्क के अंतिम छोर पर एक बेंच पर बैठ गई थी .
मैना सुन्दर थी . बलिष्ठ और
मस्क्यूलर . लम्बी नहीं थी . लेकिन उसके गोरे चेहरे पर खूब पानी था . उसका शरीर कुछ ऐसा था जो
सुडौल न होते हुये भी सेक्शुअली अट्रैक्टिव था . उसके शरीर से एक जानवर गँध आती थी जो मुझे एक ही पल में आकर्षण और
विकर्षण का एहसास कराता . लेकिन असली बात थी कि मैं लेस्बियन नहीं थी . और मुझमें बहनापे का
बहुत एह्सास भी नहीं था . मैं ज़रा सी टॉमब्याय थी , बहुत सी अपंने में गुम लड़की थी . लड़के मुझे बचकाने
लगते . मर्द मुझमें दिलचस्पी न लेते . मुझमें नाज़ो नखरे की कमी थी . मैं कोकेत
नहीं थी . मेरा सीना सपाट था और किसी बदमाश हरामखोर ने कभी सलाह दी थी कि मैं पैडेड ब्रा पहना
करूँ .
पार्क में दो एक लड़कियाँ
नँगे पाँव घास पर चलती थीं . उन्होंने पीले रेनकोट पहन रखे थे और हाथों में उतारे
सैंडल्स झूल रहे थे . मैं भीगती उनको देख रही थी . वो मुझसे अनजान थीं . उनका निश्छल
ऐसे होना , कितना मासूम . जैसे खुशी का
एक टुकड़ा अचानक धरती पर उतर आया हो . पर मैं तो उस टुकड़े की ज़द से बाहर थी . मैं
दुखी भी नहीं थी . बस थी , जैसे अनमनी हमेशा . जैसे
जीवन निकलता चला हो और मैं स्लीप वाकिंग कर रही होऊँ . कहीं भी पूरी नहीं .
***
बीरेन भाई का कोई मेल था . रूटीन मेल . सबको किया
हुआ . कोई सूचना . हफ्ते भर के लिये बाहर . कोई दौरा . विदेश . बस ऐसे कोई खास
नहीं . मैंने मेल डीलीट कर दिया था . अब मुझे कुछ नहीं होता . सच .
एक वक्त था मैंने उनकी तस्वीरें कैंची
से काटी थीं . फिर टुकड़ों को माचिस दिखाया थी . मेरे हाथ तो काँपे न थे . मैं बड़ी
सख्तजान थी .
***
अली मुझे किसी काम के
सिलसिले मिला था . वो बहुत कम बोलता . लेकिन सुनता बहुत ध्यान से था . ऐसे जैसे उस
वक्त उससे अहम फहम और कोई चीज़ न हो इस भरी दुनिया में . उसकी भाषा में व्याकरण न
था . टुकड़ों में बात करता . अगर एक शब्द से काम चल जाये तो तीन बोलने में क्यों उर्जा
ज़ाया की जाय .
उसके हाथ बहुत सुंदर थे .
पाँव भी . एकदम साफ , गुलाबी . जैसे जीवन से भरे
हुये . मैं उसके हाथ और पाँव को देर तक ताकते रह सकती . किसी कंसट्रक्शन कंपनी में
मार्केटिंग में था . कई जगहों की दुनिया देखी हुई थी उसकी .
मुझसे क्यों अटका आश्चर्य ? कभी मैना ने ही कहा था कि
तुम्हारी खूबसूरती इसी में है कि तुम अपने आप से इतनी बेलौस हो .
न मैं बेलौस नहीं थी . मैं
अच्छी दिखना चाहती थी , तब जब कोई मिल जाता जिसके
लिये दिखने का मन होता . मैं अली से लापरवाह थी . या होने का दिखावा करती थी . मैं
खुद को नहीं जानती थी क्या ?
ये सफेद कमीज़ और ढीलम ढाले
पतलून में , आस्तीन कुहनियों तक चढ़ाये , कानों तक कटे बाल में , धाकधक फूँकते सिगरेट में , रात छत पर हाथ पैर फैलाये
चित्त लेटे में , जाने कौन सी ख्वाहिश पूरी
करती थी .
ऐसी आवारागर्द कि माँ मुझसे
बेजार हो गई थीं . मुझसे जब बात करतीं उनकी आवाज़ में डर होता . जाने कौन सी भयानक
बात कह दूँ .
मैं माँ को भी तो पनिश कर
रही थी . मेरी तकलीफ से ऐसे अनजान बने रहने के लिये . कितना गुस्सा मेरे भीतर था .
ऊपर कितनी शाँत थी लेकिन कभी कभी कितनी क्रूर .
***
मैं बहुत सी दुनिया देखना
चाहती थी लेकिन उसके लिये किया जाने वाला दीवानापन मुझमें नहीं था . मैं हद दर्ज़े
की काहिल थी . यूँ पलँग पर पड़े रहना और सिर्फ सोचना . ये काम बखूबी होता मुझसे .
ट्रेन पकड़ कर सौ किलोमीटर दूर जाने में भी मेरी जान जाती . मैं खूब लिखना चाहती थी लेकिन कैसे
और क्या ? मेरे हाथों भाव फिसल जाते .
अपने भी . कोई इंटेंस फीलींग को पकड़ कर रखना चाहती , जैसे पुराने अलबम में पिन से टाँके गये फूल .
लेकिन वो एहसास जबतक ठोस होता उसके बाहरी किनारे उधड़ने लगते .
***
किसी दिन कॉफी पीते अली ने
एक वाक्य कहा था ,
मूव इन विद मी .
मैंने कहा था , ठीक
उसने कहा था , ये कॉफी बहुत मीठी है
मैने कहा था, तुमने मेरे कप से सिप लिया
है
मैं दुबली थी और मीठा बहुत
खाती थी . एकसाथ पाँच रसगुल्ले , एकसाथ दो टब आईसक्रीम , एकसाथ तीन शुगर डोनट्स .
अली एक कतरा भी चीनी नहीं लेता
था . इस घोर अलगाव के बावज़ूद मैं अगले दिन उसके घर में शिफ्ट हो गई थी . अपने साथ
एक बड़ा जार चीनी का सीने से लगाये .
***
मैना का फोन था . उसकी आवाज़
अजनबी आवाज़ थी . मेरा कुछ सामान अब भी उसके घर पड़ा था . मुझे इत्तिला कर रही थी .
मैंने ठंडे स्वर में कहा था
, आई डोंट नीड देम एनीमोर .
यू कैन ड्म्प देम इन द गार्बेज .
ये मज़ेदार बात थी . हम ऐसे
बर्ताव कर रहे थे जैसे पुराने प्रेमी हों जो अलग हो रहे हों . मैं जबकि दिल ही दिल
में जानती थी कि मेरा बर्ताव गलत था . कोई डिस्ट्रक्टिव धारा मेरे भीतर बहती थी .
फिर मैं डरने लगी कि आज जो
मैं अली को इतना पसंद कर रही हूँ , कल को उसके साथ भी ?
***
मैं उसके साथ सोना टालती
रही थी कई दिन . पहले पीरीयड्स फिर माईग्रेन , फिर थकान .
अली ने कहा था , इट्स ऑलराईट स्वीट हार्ट .
पर मैं जान रही थी कि इट
वाज़ नॉट आल राईट .
फिर एक रात मैं अली के पास
गई . अपने कपड़े उतारे . एकदम फक्कड़पने से . जैसे ये शरीर मेरा न हो . अली चुप मुझे
देखता रहा . उसके कँबल में मैं घुस कर सो गई . मुझे छूना मन , ऐसी धमकी देते ही मैंने
आँखें बन्द कर लीं . मैं खुद को टेस्ट कर रही थी .
ऐसे ही एक दिन मैंने बीरेन
भाई को फोन किया . उनकी आवाज़ जैसे दूर से आती थी . मैं उनको भीगे चाबुक से मारना
चाहती थी . उनकी पसीजती उँगलियाँ मेरे शरीर पर अब भी लिसलिसा कुछ छोड़ती हैं .
यू बास्टर्ड .
इससे ज़्यादा गाली इस वक्त
मुझे ध्यान नहीं आती . वो अचकचा जाते हैं . जैसे किसी ने सरे बाज़ार तमाचा मारा हो . मैं
दोबारा साँस भरकर दागती हूँ
यू ब्लडी शिट्फेस , यू डर्टी लूज़र
उनकी थरथराती आवेश भरी आवाज़
आती है ,
यू कांट टॉक लाईक दैट , तुम इस तरह बात नहीं ..
मैं बीच में टोकती हूँ , यस आई ब्लडी वेरी वेल कैन .
फिर खूब बुलंदी से कहती हूँ ,
फक यू
और फोन काट देती हूँ .
अली पीछे से सुन रहा है .
हू वाज़ दैट ?
मेरा ममेरा भाई . मुझसे
पन्द्रह साल बड़ा . उसकी एक लड़की है . तब मैं तेरह साल की थी . आज उसकी लड़की शायद
इतनी ही बड़ी होगी . मैं सुबकने लगी थी . अली निकल गया था . कमरे में अँधेरा था .
दिन ढल गया था . मैं अँधेरे कमरे में चुप पड़ी थी . उन दिनों की तकलीफ सोचती रही थी
. तब का भय . मेरा मन कैसा डरा रहता था . जैसे शरीर गन्दा हो गया हो . दिन रात एक
तूफान अँदर डोलता . एक खट्टी उबकाई का स्वाद ज़ुबान पर अनवरत . सब एकदम नियंत्रण से
बाहर . अकेले होते ही , अँधेरा घिरते ही , रात के सूने पन में कोई
जानवर धावा बोलता .
मैं चुप्पा लड़की थी तो नहीं
. फिर क्या माँ को मेरा बदलाव पहचान न आया ? उन्हें मेरे लिये कोई डर कभी न हुआ . इतनी डेंस तो नहीं थी . ऐसी
बेलौस तो नहीं थी .
मेरी भूख खत्म हो गई थी .
मेरी पढ़ाई से मेरा मन अनमन . मेरे जीवन से एक डोरी टूट गई थी , एक सुर खत्म हो गया था
हमेशा के लिये . मेरा भोलापन मेरा बचपन मेरा सुकून . और माँ ? कभी कुछ न समझीं .
मेरे पेट में मरोड़ उठता है
. मैं एकदम अकेली हूँ . जीवन भर इस बात का बदला सबसे लेती रही हूँ , अब थक गई हूँ . थक गई हूँ .
रुलाई की नींद कितनी थकाने वाली होती है . निष्प्राण कर देने वाली .
बीच रात किसी वक्त कोई
उठाता है मुझे , हल्के दुलराकर .
***
मुझे अपने पिता याद नहीं.
मैं बहुत बच्ची थी जब वो गुज़र गये . मेरे पास इनकी एक तस्वीर है , ब्लैक ऐंड वाईट . कोई घर का
पिछवाड़ा है . बहुत से पेड़ हैं , गमले हैं . फूल हैं . बहुत धूप रही होगी कि उनका चेहरा चमकता है .
तस्वीर में धूप की चौंध है .. ज़्यादा सफेद कम काला . मैं उनके गोद में हूँ . मेरे
बाल मेरे सर के ऊपर समेट कर बाँधे हुये हैं . बगल के बाल मेरे गालों पर गिरते हैं
. मैंने कोई एक रंग की फ्राक पहनी है, सलीके से जूता और घुटने के नीचे की ज़ुराबें . हम
दोनों कैमरा देखते हैं दूर से . हमारे चेहरे पर एक सा एक्स्प्रेशन है . ज़रा सी
मुस्कुराहट बस . लॉंग डिस्टेंस शॉट है .
मैं कई बार मैग्नीफाईंग
ग्लास लगा कर उनका चेहरा देखती हूँ . हल्के घुँघराले बाल और आँखों पर मोटे फ्रेम
का चश्मा . माथे पर बाल ज़रा गिरे हुये . ढीली बुशर्ट और ढीली पतलून .
मुझे डर है मैं उनका चेहरा भूलती
जा रही हूँ . जितना ज़्यादा याद करती हूँ उतना ज़्यादा भूलती जाती हूँ . उनके आँख , नाक , कान , बाल . सब अलग अलग से एकदम
सही और दुरुस्त याद है . खूब जतन से एक एक करके उनको उनके चेहरे पर सरियाती हूँ और
जैसे ही तस्वीर मुकम्मल होने जाती है सब अचानक धुँधला जाता है .आँखों की जगह होंठ
और गाल की जगह नाक . मैं रोने लगती हूँ . लगता है ऐसे भूल जाना सबसे बड़ा धोखा है , सबसे बड़ा बिट्रेयल . पापा
होते तब तो मैं महफूज़ रहती . फिर हम मामा के घर भी क्यों रहते .
मैं चिल्लाती हूँ , बुलशिट बीरेन भाई .. आई कुड
हैव किल्ड यू , आई विश आई हैड .
मेरे अंदर एक बड़ा सा गड्ढा
है जिसमें कोई लावा सुलगता है . कितना भी चाहूँ उसकी आग खत्म नहीं होती .
***
मेरी एक दोस्त है , शिफा . उसकी मासी कुछ साल
पेरूज़ा में रही थी . वहाँ यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी . कई साल बाद जब लौटी थी वहाँ कुछ भी
नहीं बदला था . वही दुकानें , वही पियात्ज़ा , वही लोग . वही चॉकलेट की दुकानें , वही चर्च . जैसे समय ठहर गया था . ये सब कहते उनकी
आवाज़ में हैरानी थी .
सोफे पर बैठे लैम्प की पीली
रौशनी में , चप्पल उतार कर हम तीनों
अधलेटे थे एक रात . वाईन की गुनगुनाहट भरी खुमारी में हमारी आवाज़ ठहर गई थी . हर
शब्द जैसे अपने पूरेपन में खुलता और अपने पीछे पूरा संसार लिये आता . हम बहुत धीरे
धीरे बात कर रहे थे , हरेक वाक्य में तसल्ली और समय का
एहसास था . भरपूर समय का . इसलिये रुख़सार खाला जो भी कह रही थीं , उसे हम उस नीम रौशनी में देख
पा रहे थे . कोई देखी भूली इतालवी फिल्म का दृश्य हो जैसे . पतली गलियाँ , पत्थर की सड़कें , मेहराबदार पतली ईटों की
पुरानी इमारत , काले लिबास में बूढ़ी औरतें
.
मैं सुनते सुनते लेट गई थी
. समय रुक जाता हो जहाँ , वहाँ रहना कैसा होता होगा .
मेरे अंदर उदासी का सागर लहराता था . शिफा बीच में कभी उठ कर गई थी . फ्रिज से कुछ
हुमुस और रोटी ला कर उसने बीच में रख दिया था . मैं उँगलियों से हुमुस उठाकर अपनी
ज़ुबान पर रख रही थी . मेरे आँसू उसे और नमकीन बना रहे थे . अँधेरा था . कोई मेरे
आँसू नहीं देख सकता था . पूरे जीवन किसी ने मेरे आँसू नहीं देखे .
मैं अचानक हँसने लगी थी , फिर हँसते हँसते मुझे माँ
की कहानी याद आई . मैं बताने लगी थी,
ऐसे जैसे माँ ही बता रही
हों , उनकी ही आवाज़ में .
हमारे आँगन के एक ओर कूँआ
था . ईनार . एक बार उसके जगत पर पैर रखकर माँ अपने चेहरे पर पानी छपका रही थीं .
जेठ का महीना था . बहुत गर्मी . रसोईघर से दिन का खाना चूल्हे पर चढ़ा कर उठी थीं .
खूब ठंडा पानी छपका कर जब चेहरा पोछने लगीं , अचानक पाया कि कान की एक बाली नहीं है .
सोने की कानबाली गुम जाये
बड़ी बात थी . ईनार के सब तरफ , नाली तक में खोज लिया . न मिलनी थी , न मिली . फिर घर की दाई ने कहा ,
हो न हो ईनार में गिर गईल
होखे , मालिक से कह के ईनरवा उपचवा
लीं न .
अगले दिन आदमी आया , बाल्टी बाल्टी पानी
उलीचवाया गया . पानी ज़्यादा न था . कुछ घँटे के बाद बाल्टी में पुराने मग्गे , एक तसला जिसे जाने कितना
खोजा गया था , प्लास्टिक की साबुनदानी , जंगखाया रेज़र , एक हथशीशा जिसका शीशा जाने
कहाँ टूट गया था , पड़ोस के बिल्लू की गेंद ..
हज़ार चीज़ें निकलीं होंगी . बस जिसको ढूँढा जा रहा था , वो नहीं मिली .
माँ खूब मायूस हुईं . किसी
ने कहा सोना गुमना अपशगुन होता है .
सचमुच अपशगुन ही था क्योंकि
उसके बाद जीवन अचानक खाई में गिरना था . लेकिन ये बात मैंने अपने मन में कही . फिर
झटक कर कहानी पर वापस लौटी .
माँ हफ्ते दस दिन खूब
संशकित रहीं , खूब उदास भी रहीं . उनके
कान सूने खराब लगते थे . झूठफूस की कनबाली खरीदकर कान में डाला जिससे उनके कान पक
जाते थे . फिर नारियल का तेल लगाकर कान ठीक करतीं .
मुझे माँ की वही छवि याद
रहती है , जब वो कान में नारियल तेल
डालतीं और अपने पाँवों की एड़ियों पर ग्रीज़ . उनकी एड़ियाँ इतनी फट जातीं कि उनमें
खून निकल पड़ता . माँ जो इन सब के बावज़ूद रात को जगकर महादेवी की कवितायें पढ़तीं .
मेरी आवाज़ उस छोटे से घर के छोटे से कमरे में पहुँच गई थी जहाँ एक तरफ स्टूल पर
हारमोनियम रखा होता और पापा की फरमाईश पर माँ कजरी गातीं . पापा की भारी आवाज़ उनकी
पतली आवाज़ में जुड़ जाती . उस कमरे में एक दुनिया रच जाती . मैं बिस्तर पर दुबकी उस
दुनिया में मछली की तरह गोते खाती सो जाती .
मेरी आवाज़ भी जैसे सो गई थी
. उसके किनारे भर्रा रहे थे . कतरा कतरा जैसे टूट कर हवा में तैरने लगा हो .
मेरी दुनिया उस दिन उसी
ईनार में उस कानबाली की तरह गुम गई थी . वो भोले निष्पाप दिन खत्म हो गये थे .
पापा महीने भर में यकबयक मौत के मुँह में चले गये थे .
ऐसे भी कोई मरता है क्या ? चलते फिरते , हँसते बोलते , ऐसे? इट वाज़ नॉट फेयर . बोलकर
गये थे , एक दिन में लौट आऊँगा . कभी नहीं लौटे
थे . उस एक्सीडेंट में उनकी लाश तक नहीं मिली थी . बस नदी में गिरा था . कई साल तक
, अब तक, मैं सोचती थी , घँटी बजेगी , मैं दरवाज़ा खोलूँगी , सामने पापा खड़े होंगे .
इतने साल बीत गये . अब मेरे सामने आ जायें , मैं पहचानूँगी कैसे ?
लेकिन ये सब मैं कहाँ बोल
रही थी . मैं तो चुप हो गई थी . हम सब चुप हो गये थे .
फिर हम चीज़ों के गुमने की
बात करने लगे थे . गुमी हुई चीज़ों के अचानक मिल जाने की . तब जब उनकी ज़रूरत ही न हो . क्या रहस्य था . जैसे एक
कोई समानांतर दुनिया जहाँ गुमी चीज़ें रखी होती . फिर कोई करवट लेता और दुनिया ज़रा
सी हिलती . कोई फाँक खुल जाता और उस दरार से गुमी चीज़ें अदबदा कर इस दुनिया में
गिर जातीं .
जब सबसे ज़्यादा खोजो न मिले
और जैसे ही खोजना बन्द कर दो , मिल जाये . द बिगेस्ट ट्रैजेडी . द बिगेस्ट ट्रुथ . किसी का होना भी
ऐसे ही है . न होना भी .
किसी दिन दुनिया ऐसे ही
खत्म हो जाती है . पर कहाँ खत्म होती है . सब तो अनवरत चलता ही रहता है . किसी के
भीतर ऐसे हरहराता अवसाद का समंदर कि कुछ भी अच्छा न लगे ? सबका प्यार , हवा धूप पानी , कोई मीठी मुँह घुलती
मिठाई , नींद का नशा , जगे का सुहाना स्वाद . कुछ भी नहीं ? दिमाग में कौन सा केमिकल उड़ जाता है , कौन सा सर्किट री वायर हो
जाता है . क्या है जो एक हँसते खेलते जीते आदमी को मुर्दा कर देता है ?
और हम दूर से देखते क्या सोचते हैं कि फिलहाल हम
उस दायरे के बाहर हैं . ये त्रासदी हम पर नहीं घटी , इस बार हम बच लिये ? उस महफूज़ जगह में खड़े हम
अपने बचने का जश्न मनाते हैं ?
जीवन कई बार तकलीफों की बड़ी सी गठरी लादे फिरना
है . और बहुत बार उसे छुपाये चलना है अपनी छाती में . मौत का वो पल जहाँ सब पार है
.
जीवन जीना बहुत बहादुरी का काम है . पर मालूम नहीं बहादुरी
क्या होती है . उस काले घने अवसाद के साये में जीना क्या होता है . जो अवसाद नहीं
जानते , उसकी काली छाया नहीं जानते , उसका राख स्वाद ज़ुबान पर महसूस नहीं किया कभी वो
क्या जानते हैं ऐसे होना क्या होता होगा . भारी भीगे कम्बल के भीतर दम घुटने की
छटपटाहट , किसी खाई में गिरते जाने का भयावह अहसास और ये कि अब कुछ भी , किसी भी चीज़ से कोई
राब्ता नहीं . जैसे मौत कोई खूँखार चीता हो जो घात लगाये बैठा हो , अचानक दबे पाँव दबोच ले ?
दुनिया बड़ी ज़ालिम है , जीवन और भी . हम आँख कान
नाक दबाये ऑब्लिवियन के संसार में माया जीते हैं.
रुखसार खाला जैसे
सोलिलॉकी कर रही हैं . उनके शौहर ने कुछ साल पहले खुदकुशी की थी . बारहवीं मंज़िल
से नीचे कूद गये थे .
वो चले गये लेकिन अपने जाने
में और पास आ गये .जब कोई गुज़र जाता है हम दुनिया को बताना चाहते हैं कि वो कितना
शानदार इंसान था .हम शायद ये भी बताना चाहते हैं ,सबको ,उससे ज़्यादा खुद को, उस हाईंड साईट की तकलीफदेह अनिश्चितता ,उन सारे अनुत्तरित सवालों
का ,जो उनके आत्मीय होते हुये भी हम उनकी मदद के लिये नहीं कर पाये
.कितनी बेबस छटपटाहट होती होगी कि शायद ये सब टल सकता ,हमारे एक रत्ती और भर कर
देने से शायद हमारे प्यार का पलड़ा मौत पर भारी हो जाता
कि उस डिसाईसिव पल के ठीक
एक पल पहले का समय हम पकड़ सकते ,बदल सकते ,कि बस उस वक्त हम होते ,बस होते तो टाल सकते ,शायद .उस सरपट फेन गिराते
धूल उड़ाते घोड़े को भरसक लगाम लगा रोक सकते ,भले मांसपेशियाँ उखड़ जाती ,साँस टूट जाती
ईफ ओनली .. की कैसी दिल
तोड़ने ,चीख मारने वाली ,ध्वस्त कर देने वाली विकट स्थिति ..
हू आर वी टू जज
सुख ,दुख ,मौत जीवन ..सब अलग अलग
शेड्स के खेल हैं ,इंफईनिट पर्म्यूटेशन की दुनिया और दोस्त हम अभी बच्चे हैं ,इस विशाल विकराल दुनिया
ब्रम्हांड में हम कुछ हज़ार साल छोटे बच्चे हैं .दुनिया क्या फकीरी है उसका ककहरा
तक हमने अभी नहीं देखा .एक्सिस्टेंशियलिज़्म की वीरानी नहीं जानी , बेतुके का तुक नहीं जाना...
The notion of the Absurd contains the idea that there is no
meaning in the world beyond what meaning we give it.
***
शिफा सो चुकी है . मैं
रुखसार खाला को देखती हूँ . वो बहुत दुबली हैं . बहुत सुंदर भी . उनकी आँखों के
नीचे गहरे साये हैं . मैं उनको बताना चाहती हूँ , अपने सेक्शुअल अब्यूज़ की कहानी . कि उस हादसे के
बाद मैं किसी के साथ सो नहीं पाई कभी . औरत मर्द , किसी के साथ नहीं . मेरे भीतर कुछ कसक गया . कोई
चीज़ थी भीतर जो अपने अलाईनमेंट से अलग हो गई .
मैं बहुत सारा प्यार चाहती
हूँ , बहुत सारा प्यार करना चाहती
हूँ . लेकिन मेरे अंदर कोई फ्रिजिड ज़ोन है जिसमें बर्फ कभी पिघलती नहीं . उसमें
वसंत कभी आयेगा नहीं
बीरेन भाई आप तो मेरे आईडॉल
थे . फिर आपने मेरे साथ ऐसा क्यों किया ? आई लव्ड यू सो मच ऐंड नाउ आई हेट यू सो मच . .आपने
मेरा भोलापन , मेरा बचपन , मेरा निष्पाप मन मुझसे छीन
लिया . बिना बाप की बच्ची के साथ आपने अच्छा नहीं किया .
और आपकी सच्चाई किसी ने न जानी . आप जीवन में तरक्की
करते रहे , सबके आगे आप सबसे अच्छे
बेटे , सबसे अच्छा भाई , सबसे अच्छे पति और पिता रहे
. आप के अंदर का जानवर और किसी ने न देखा . माँ तक तो शायद इसीलिये बेफिक्र रहीं .
उनको शक तक न हुआ .
लेकिन मैं आपको कैसे माफ और
क्यों माफ करूँ . आपकी सच्चाई आपकी पत्नी को , आपकी बेटी को बता दूँ . ये आपके गुनाहो की भरपाई है? यू वेयर अ बीस्ट .
रुखसार खाला मेरे बाल सहला
रहीं हैं . अली तुम्हें प्यार करता है .
शायद बहुत . मैंने अपने
आँसू पोछ लिये हैं . उसने अब तक कोई जबरदस्ती नहीं की मेरे साथ . तो शायद हाँ .
मैं हँस पड़ी हूँ .
जानती हैं , बचपन में मैं अनारदाना को
ईनारदाना बोलती थी . सब खूब हँसते थे . फिर जब मैं जान गई कि सही अनारदाना होता है
फिर भी ईनारदाना बोलती रही . बस इसलिये कि सब हँसते थे . सबको खुश करने की अदा
मैंने बचपन में ही सीख ली थी . मैं फिर उदास हो जाती हूँ , लेकिन इतने बरसों में सब
भूल गई .
खुद को भी खुश करना .
आप सही कहती हैं , जीवन में उतना ही मतलब होता
है जितना हम देना चाहते हैं .
खाला मुस्कुराती हैं . मैं
फिर सोचती हूँ , कितनी खूबसूरत और कितनी
सौम्य हैं .
आप जानती हैं न मैं आपसे
प्यार करती हूँ .
गोकि उनको मैं पहली दफा
मिली हूँ . बात तो बहुत सुनी है शिफा से .
उनके चेहरे पर एक उदास
संजीदगी है .
तुम्हारा जीवन ईनारदाने सा
मीठा रहे
और वो झूठी कन बलियाँ ?
और वो मलयाली नन जो रोम में
मिली थी आपको
और वो मज़े की फिल्म जिसमें
एक अल्जीरियन बैंड था , पेरिस में भटक गये थे सब
और वो औरत जो हिन्दी गाने
गाती थी , रूसी थी
लेट्स मेक अ टोस्ट फॉर ऑल द
पीपल हू कैन कॉल ऐन अनारदाना बाई इट्स करेक्ट नेम
हमने ग्लास टकराया और पूरा
उड़ल लिया हलक में और फिर धीरे से कार्पेट पर लेट गये और नींद में खर्राटे भरने लगे
.
सुबह उन्हें निकलना था और
अली हफ्ते भर के लिये बाहर था . माँ तीन दिन के लिये मेरे पास आ रही थीं .
कहानी का बहाव अपने में बहा ले गया। किरच किरच चुभन महसूस होती रही। जैसे कि यहीं पास में सब कुछ घट गया, या यूँ भी कहलें कि खुद पर ही घट गया।
ReplyDeleteबहुत बहुत अच्छी कहानी!
कतरा कतर बहती रही कहानी , कभी इस तरफ कभी उस तरफ लेकिन स्थायी रहा नायिका का जिंदगी ,रोमांच,रोमांस को लेकर उदासीन होना। यह विश्वास के रिश्ते कितने कमज़र्फ होते है जो तोड़ जाते है लेकिन कमाल है उसकी किरचे किसी को नजर नही आती।
ReplyDeleteबधाई अच्छी कहानी के लिए
शब्दों पर तैरती ज़िन्दगी... सुँदर...
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