5/22/2008

सीधी बात

लोगों की अपनी रुचि होती है अपने पाठकवर्ग होते हैं । कुछ लोग बहुत बढ़िया लिख रहे हैं इसका यह मतलब नहीं कि जो साहित्य रच रहे हैं वो सिर्फ टिप्पणी के आधार पर कमतर हैं । ऐसा सोचना सिर्फ अपनी सोच को गिराना है , अपने बेंचमार्क को लोअर करना है ।

जैसा ज्ञानदत्तजी ने कहा ब्लॉग लेखन पाकशाला नहीं लिंकशाला है । यहाँ हम आपसी सौहाद्र और आत्मीयता की फसल उगाते हैं । लिंक का खेल , इंटरऐक्शन का खेल , सामाजिकता का खेल , सौहाद्र का खेल यही सब तो है यहाँ । इसी में हम अपनी भाषा से भी पहचान रिनियू कर रह हैं । लेकिन अगर इस मुगालते में रहें कि ऐसे रिन्युअल से हम कोई साहित्यिक माप दंड की मिसाल रच रहे हैं , ये गलत होगा । पॉपुलर और क्लासिकल का फर्क शाश्वत है , रहेगा । इसे बराबरी पर ला कर दोनों की एहमियत समाप्त करने की ब्लासफेमी क्यों की जाये ।

जो साहित्यकार ब्लॉग कर रहे हैं वो शायद वहाँ पहुँच गये हैं जहाँ हम सब जाना चाहते हैं और उसके आगे भी । तो इस पहले कदम को मंजिल मान लेने की गलतफहमी न माने सो ही हमारी लिखाई के लिये बेहतर ।

एक और बात ...पॉप या क्लासिक ? आप पॉप सुनते हैं , मज़ा लेते हैं इसका ये अर्थ नहीं कि शास्त्रीय सुनने की संवेदनशीलता खो दें । ब्लॉग पढ़े , ब्लोग़ लिखें पर साहित्य भी पढ़ें .. उसे किसी छिछले मापदंड के आधार पर डीग्रेड न करें ।

19 comments:

  1. बिल्कुल सीधी बात कही आपने.. सहमत हु आपसे

    ReplyDelete
  2. लेकिन पहला कदम ही भयावह रास्ते दिखाए तो मंजिल का क्या किया जाए?

    ReplyDelete
  3. ठीक है जी, हमें तो मुगलता होने लगा था की हम भी रचनाकार हो गए है. :)

    भाषा कुछ सुधर गई है, यही काफी है.

    ReplyDelete
  4. Anonymous3:48 pm

    ji bilkul sahi farmaya,class aur mass me humesha fasla raha hai aur rahega

    ReplyDelete
  5. सही बात। साहित्य, पत्रकारिता और ब्लॉगिंग को गड्ड-मड्ड न किया जाये। सब के अलग अलग उत्कृष्टता के मानदण्ड हैं।

    ReplyDelete
  6. वाजिब बात! पूरी तरह सहमत .

    ReplyDelete
  7. सत्य वचन. जे के रॉलिंग की ग्राहम ग्रीन से या फिर सुरेन्द्र मोहन पाठक की यादवेंद्र शर्मा से तुलना बेमानी है.

    ReplyDelete
  8. Anonymous7:18 pm

    का हो प्रियंकर, इहां भी सहमत, उहां भी सहमत?

    ReplyDelete
  9. वाकई!
    अक्षरश: सहमति!

    ReplyDelete
  10. सोच रहा हूँ
    करूँ टिप्पणी
    या पढ़ कर ही मौन सराहूँ
    कहूँ किसी से
    पढ़ी आज कुछ अच्छी बातें
    शायद हो साहित्य नहीं पर
    हो सकता है समझ नहीं है

    सोच रहा हूँ

    ReplyDelete
  11. हम बिल्कुल असहमत हैं। इस बात से नाराज भी कि आपसे हमारी जरा सी खुशी देखी नहीं गयी। झट से सच बयान किया। एकदम पिन की तरह चुभा दिया और हमारा खुशी का गुब्बारा फोड़ दिया। ऐसे कहीं होता है जी। आप तो ऐसी न थीं। लेकिन नहीं आप ऐसी ही हैं , हम ही न पहचान पाये थे। :)

    ReplyDelete
  12. bahut sateek likha hai aapne.alag alag vidhaon mein fark kii samajh banaaye rakhnaa bhi zaroorii hai..

    ReplyDelete
  13. सच है, सबकी अपनी अपनी अहमियत है और मापदंड भी.

    ReplyDelete
  14. मैं भी सहमत हूँ।

    ReplyDelete
  15. "पॉपुलर और क्लासिकल" की जगह लेखन को सिर्फ़ अच्छे और बुरे में बाँटे तो कैसा रहेगा ?

    ReplyDelete
  16. जी सही। तुलना कैसी ?

    ReplyDelete