लोगों की अपनी रुचि होती है अपने पाठकवर्ग होते हैं । कुछ लोग बहुत बढ़िया लिख रहे हैं इसका यह मतलब नहीं कि जो साहित्य रच रहे हैं वो सिर्फ टिप्पणी के आधार पर कमतर हैं । ऐसा सोचना सिर्फ अपनी सोच को गिराना है , अपने बेंचमार्क को लोअर करना है ।
जैसा ज्ञानदत्तजी ने कहा ब्लॉग लेखन पाकशाला नहीं लिंकशाला है । यहाँ हम आपसी सौहाद्र और आत्मीयता की फसल उगाते हैं । लिंक का खेल , इंटरऐक्शन का खेल , सामाजिकता का खेल , सौहाद्र का खेल यही सब तो है यहाँ । इसी में हम अपनी भाषा से भी पहचान रिनियू कर रह हैं । लेकिन अगर इस मुगालते में रहें कि ऐसे रिन्युअल से हम कोई साहित्यिक माप दंड की मिसाल रच रहे हैं , ये गलत होगा । पॉपुलर और क्लासिकल का फर्क शाश्वत है , रहेगा । इसे बराबरी पर ला कर दोनों की एहमियत समाप्त करने की ब्लासफेमी क्यों की जाये ।
जो साहित्यकार ब्लॉग कर रहे हैं वो शायद वहाँ पहुँच गये हैं जहाँ हम सब जाना चाहते हैं और उसके आगे भी । तो इस पहले कदम को मंजिल मान लेने की गलतफहमी न माने सो ही हमारी लिखाई के लिये बेहतर ।
एक और बात ...पॉप या क्लासिक ? आप पॉप सुनते हैं , मज़ा लेते हैं इसका ये अर्थ नहीं कि शास्त्रीय सुनने की संवेदनशीलता खो दें । ब्लॉग पढ़े , ब्लोग़ लिखें पर साहित्य भी पढ़ें .. उसे किसी छिछले मापदंड के आधार पर डीग्रेड न करें ।
बिल्कुल सीधी बात कही आपने.. सहमत हु आपसे
ReplyDeleteलेकिन पहला कदम ही भयावह रास्ते दिखाए तो मंजिल का क्या किया जाए?
ReplyDeleteठीक है जी, हमें तो मुगलता होने लगा था की हम भी रचनाकार हो गए है. :)
ReplyDeleteभाषा कुछ सुधर गई है, यही काफी है.
ji bilkul sahi farmaya,class aur mass me humesha fasla raha hai aur rahega
ReplyDeleteसही बात। साहित्य, पत्रकारिता और ब्लॉगिंग को गड्ड-मड्ड न किया जाये। सब के अलग अलग उत्कृष्टता के मानदण्ड हैं।
ReplyDeleteवाजिब बात! पूरी तरह सहमत .
ReplyDeleteसही कहा ।
ReplyDeleteसत्य वचन. जे के रॉलिंग की ग्राहम ग्रीन से या फिर सुरेन्द्र मोहन पाठक की यादवेंद्र शर्मा से तुलना बेमानी है.
ReplyDeleteका हो प्रियंकर, इहां भी सहमत, उहां भी सहमत?
ReplyDeleteवाकई!
ReplyDeleteअक्षरश: सहमति!
सोच रहा हूँ
ReplyDeleteकरूँ टिप्पणी
या पढ़ कर ही मौन सराहूँ
कहूँ किसी से
पढ़ी आज कुछ अच्छी बातें
शायद हो साहित्य नहीं पर
हो सकता है समझ नहीं है
सोच रहा हूँ
हम बिल्कुल असहमत हैं। इस बात से नाराज भी कि आपसे हमारी जरा सी खुशी देखी नहीं गयी। झट से सच बयान किया। एकदम पिन की तरह चुभा दिया और हमारा खुशी का गुब्बारा फोड़ दिया। ऐसे कहीं होता है जी। आप तो ऐसी न थीं। लेकिन नहीं आप ऐसी ही हैं , हम ही न पहचान पाये थे। :)
ReplyDeletebahut sateek likha hai aapne.alag alag vidhaon mein fark kii samajh banaaye rakhnaa bhi zaroorii hai..
ReplyDeleteसच है, सबकी अपनी अपनी अहमियत है और मापदंड भी.
ReplyDeleteसहमत.
ReplyDeleteagreed
ReplyDeleteमैं भी सहमत हूँ।
ReplyDelete"पॉपुलर और क्लासिकल" की जगह लेखन को सिर्फ़ अच्छे और बुरे में बाँटे तो कैसा रहेगा ?
ReplyDeleteजी सही। तुलना कैसी ?
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