4/01/2008

कैसी बेमुरव्वत ज़िंदगी है !

हर पल जो घटित होता है ठीक ठीक उसी पल उसके बीत जाने के एहसास की पीड़ा छाती में कैसी अजब टीस का हथौड़ा मारती है । रास्ते पर कभी आगे जा कर आफियत से मुड़ कर पीछे देखने का सुख मेरा सुख क्यों नहीं हो सकता । कैसा अभिशाप है जैसे सिन्दबाद की पीठ पर चढ़ा बूढ़ा ? कुछ कुछ वैसा ही जैसा सुख के पठार पर पीछे तेज़ रफ्तार हाँफता भागता पीछा करता ताबड़तोड़ आता , वो , जो सुख नहीं है । शायद दुख भी नहीं । जैसे देर रात कोई आलाप सुनते आँखों से बहते सुख का सिहरा देने वाला एक कोर आँसू?

रीम के रीम कागज़ पर बेमतलब शब्दों की भीड़ में उमग कर ठेलता ठालता अपनी कहानी ज़बरदस्ती सुनवाता ,पकड़ पकड़ सुनवाता पर पीछे बैकग्राउंड में बजता रहता लगातार सारंगी का एक अकेला दुखियारा सुर? सुख में दुख का और दुख में सुख की जुगलबन्दी गाता अपने आप में होता छटपटाता कौन ? आखिर कौन ? जिसे मैं , ‘मैं’ कहती और जिसे तुम ‘तुम’ कहते । न भी कहते , न भी कहती पर उस अछोर पठार पर हमेशा मैं अकेली । शायद हम सब ऐसे ही हमेशा के अकेले ?

जैसे छाती धक्क से हो जाये ऐसी सुन्दरता देख कर रुलाई की एक मरोड़ , कभी सिर्फ आधी या पाव भर भी। जैसे जीवन इन्हीं नापतौल के खाँचे में सिकुड़ कर दुबक बैठा है, उस राजकुमार की तरह जिसके प्राण बसते हों किसी सुनहरे पिंजरे में कैद सुग्गे की लाल चोंच में ?

और फिर मेरे पास अंत में , अनंत में बचता है सिर्फ एक लम्बी कतार प्रश्नों का , जिनके उत्तर ठीक इम्तहान के पिछली रात देखे गये दु:स्वप्न सा तिरोहित होता है घबड़ाहट के असीम सागर की अतल गहराई में । ऐसे ही किसी एक प्रश्न से लड़ते भिड़ते सर टकराते धुनते कोई सूत्र का कोमल सिरा मिल जाये ऐसा भी शायद सुख ही हो का भजन गाते शुरु होता है आज का आख्यान। हर दिन का । कैसी बेमुरव्वत ज़िंदगी है !
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इन्हीं बेमुरव्वत रवायतों की फेहरिस्त बनाती ... लगा कि मेरे प्रलापों का कोई तार जिनतक पहुँचता है उन सबों का शुक्रिया ... जो मेरे एकतरफा (रियाज़ों ) को अनसुना करते फिर भी (बावज़ूद एकतरफा ) स्नेह से मुझे पढ़ते रहे हैं.. इतने दिनों .. शुक्रिया !

5 comments:

  1. लगता है आप 'अमर प्रेम' देखने से रह गईं? और देखा भी तो राजेश खन्‍ना का अमर अभिनय देखने से रह गईं? या सब देखकर भी राजेश बाबू का वह अमर वाक्‍य भूल रही हैं? I hate tears... I hate tears, Pushpa?

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  2. पढ़ते तो हमेशा हैं पर हर बार उन प्रलापों को समझ पायें इतनी बुद्धि नहीं है अपनी. फिर भी प्रलापों से अपने राग बना ही लेते हैं.

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  3. काकेश जी की बात से सहमत. हम भी अकेले इस ओर बैठे उस ओर बैठे अकेले तार की झंकार सुन लेते हैं लेकिन सूझता नहीं. सोचते रह जाते हैं कि सुर तो एक सा है...

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  4. गोया की .....
    जिंदगी न हुई रोज दास्तानो की दिलचस्प मोड़ हो गया .....कभी कभी बेमुरव्वत जिंदगी जैसा स्पीड-ब्रकेर भी चाहिए ....
    इस बार कोई धांसू सा लिख मारिये .....मुए छोटे मोटे दुःख तो आते जाते रहते है......

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  5. पता नहीं तुम्हारा लिखा हमेशा उसी तार पर पढा जाता है जिस पे तुम लिखती हो लेकिन फ़िर भी पढनें में अच्छा लगता है ।
    शुभ कामनाओं के साथ ...

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