3/28/2008

पर कहोगे कभी नहीं प्यार ?

कितनी बार कहोगे
लेकिन प्यार नहीं कहोगे
कहोगे
दुनिया जहान की बातें
इसकी बातें उसकी बातें
वो जो गौरैया थी
जो उड़ जाती थी
जो मेमना था
जो बच्चा था
कहीं हर्ज़ेगोविना बॉस्निया में
या
गाज़ा में , अनाथ अकेला
गिरजे पर हुये हमले
और मेधा पाटकर के धरने
कहोगे
फिर बुश और इराक
सद्दाम की मौत
और
पेंटागन की साजिश
नौ ग्यारह
कैसे गिरा था
ट्विन टॉवर
तब शायद खा रहे थे
रात का खाना
लिया था पहला कौर
रोटी का शोरबे के साथ
बगल में फेन उगलता
बीयर का मग
कैसे रह गया था
अधूरा
और फेंका था अगली सुबह
काँता बाई ने
ज़रा नाक सिकोड़ते हुये
तुम्हारे अफसोस के साथ

कहोगे
कि शेयर मार्केट के उछाल के इंतज़ार में
रोक रखा है तुमने
खरीदना किसी अपमार्केट सबर्बिया में
पॉश एक फ्लैट
कि कितने लाख
तुमने खोये पिछली गिरावट में
पर
परवाह नहीं
कर लोगे भरपाई
किधर और से
पढ़ लोगे
इकॉनिमिक टाईम्स और मनी मार्केट
नब्ज़ है तुम्हारी सेंसेक्स पर
सिर्फ यही नहीं
फुरसत में
पढ़ोगे रेनर मारिया रिल्के को
सुन लोगे मधुरानी को
पुरानी बदरंग अल्बम से चुनकर
देख लोगे उदास कर देने वाली तस्वीरें
धूप में भी सर्द सिहर लोगे
और परे हटा दोगे
फ्लावरी ऑरेंज पीको
कहोगे
एक अलस दोपहरी में
नींद की बातें
नमक में डुबाकर हरी मिर्च का स्वाद
देर रात तक थियेटर का रंग
कि हम सब कठपुतली है रंगमँच के
फिर उस नाटकीय डायलॉग पर
ठठाकर हँस पड़ोगे
फिर संजीदा
कहोगे
कि अब हमें लाना चाहिये
एक बदलाव
कहोगे
कि चलो अब किसी दूसरी तरह से
जिया जाय
किसी और तरीके से
रहा जाय
फिर उबासी लेकर औंधे पड़े
कहोगे
कल से ?
अच्छा ?
पर कहोगे कभी नहीं प्यार ?

3/25/2008

शारुख शारुख कैसे हो शारुख ?

बेड नम्बर बयालिस , न्यूरो डिपेंडेंस वार्ड

राफेल राफेल
आवाज़ खोज रही थी । दोपहर की सुन सन्नाट गलियों में गोलगाल घूम रही थी। कभी पास आ जाती तो तेज़ हो जाती। मद्धम होती तो राफेल समझ जाता दूर हो गई। हथेली में चार चमकीले पत्थर पसीने से चमकते थे जैसे उस रात पेड़ पर बैठे उल्लू की आँखें।


हथेलियों को हथेलियों में थामे कलाईयों को मोड़ते हुये जोएल सोचता है , बोलेंगे कभी ? पहचानेंगे कभी ? कलाईयों के बाद कुहनी फिर बाँह। उसके बाद एड़ियाँ , घुटने। हर एक घँटे एक्सरसाईज़ करायें । जोड़ लचीले रहें बाद में आसानी होगी । घड़ी देखता है जोएल। ठीक ग्यारह बज कर दस मिनट पर एक्सरसाईज़ का दूसरा दौर। अभी नेब्यूलाईज़र लगेगा फिर सक्शन कर के छाती पर जमा कफ निकाला जायेगा । सिस्टर जब पाईप डालती है मुँह में तो दाँत से पकड़ लेते हैं। गाल थपथपा कर सिस्टर चिल्लाती है , बाबा छोड़ो । तब जोएल की इच्छा होती है ठीक वैसे ही पकड़ कर सिस्टर को झकझोर दे । उनकी तकलीफ देखकर हट जाता है जैसे उसकी छाती तक पाईप रेंग गया हो ।

बगल वाले बेड पर लेटा बच्चा शारुख अपने पिता को बेहोशी के आलम में अंकवार भर लेता है। उसकी बैंडेज बँधी मुट्ठियाँ पिता के पीठ पर बेचैन थरथराती हैं। डी वार्ड में हर वक्त मरघट शाँति रहती है। सारे पेशेंट नीम बेहोशी में । अटेंडेंट्स थके हारे निढाल क्लांत । बाहर रुलाई की महीन रेखा उठती गिरती विलीन होती है। शायद कार्डियाक वार्ड से आती है । बीमारी की महक जैसे ज़्यादा पके फल की महक नाक में भर जाती है। कुछ कुछ सड़े हुये आम की महक जैसे।

वाईटबोर्ड पर जोएल पढ़ता है

नाम राफेल टिर्की
डेट ऑफ एडमिशन चौदह जनवरी दो हज़ार आठ
कॉज़ ब्रेन प्लस हाईपोथैल्मस कंट्यूशन
प्रोसीजर फ्रांटल क्रेनियोलजी
मेल कैथ /फॉलीज़ चौदह जनवरी
डाएट .........
राईलीज़ ट्यूब.......
..........
..............

नीचे नीचे और नीचे ऐसे ही कितने अजाने मेडिकल टर्म्ज़ ..सारे शब्द गडमड होते हैं । माँ कहती है मैं आऊँगी । आकर भी क्या करेगी । संस्था वाले कहते हैं सात लाख खर्च हो गये । एक ही आदमी पर कितना खर्च। और भी तो हैं मदद के लिये ..बेबस बेचैन बेसहारा । पिता अनदेखी आँखों से देखते हैं । कुछ भी नहीं देखते हैं। कहाँ चले गये तुम ? किस दुनिया में ? जहाँ मेरा रास्ता नहीं , जहाँ मेरी दरकार नहीं , घुसपैठ नहीं ? हमेशा अपनी की । अंत तक। और मैं अब क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ , कहाँ इन्हें ले जाऊँ ..उस छोटे से बीहड़ जसपुर के पास जंगल वाले गाँव में , उस दो एकड़ के खेत में ? उस सरकारी लावारिस से बे-डॉक्टर अस्पताल में ? कहाँ ले जाऊँ । अबकी बार जोएल देखता है खिड़की के बाहर अनदेखी आँखों से । कुछ भी नहीं देखता ।

पोखर पर लिपटती शाख से पानी में छपाक कूदते लहर बनाता तैरता है राफेल । मछली जैसा । पानी में काला चिकना बदन छहलता है।
राफेल , राफेल
आवाज़ कभी पीछा नहीं छोड़ती । सटती चिपकती है । सर झटकता है एक बार ज़ोर से । ओह अभी नहीं , अभी तो बिलकुल नहीं ।


सिस्टर सिस्टर ।
जोएल उत्तेजना से सिहर रहा है । अभी इन्होंने अपना सर हिलाया । मैंने देखा , अभी देखा । आप भी देखना सिस्टर ।

बाबा बाबा , मैं जोएल । मुझे सुनते हो तो अपना सर हिलाओ । जोएल उनको पकड़ कर हिला रहा है । दो मिनट इंतज़ार कर सिस्टर बेजार लौट जाती है कुर्सी पर ।

खिड़की के सिल पर गिलहरी भौंचक इस शोर से थमती ठिठकती है फिर पूँछ उठा विलीन हो जाती है।

सिस्टर बेड नम्बर चौआलिस पर झुकी पुकार रही है ,
शारुख शारुख कैसे हो शारुख ?

3/19/2008

अंतरे में रौशनी

अँधेरा था। अँधेरा एक दरवाज़ा था जिससे रौशनी की तरफ जाया जाय। शायद टटोलना पड़ता। लेकिन दरवाज़ा तो था। कोई स्विच अलबत्ता नहीं था जिससे खट रौशनी जला दी जाय। इस रौशनी के लिये जद्दोज़हद करनी पड़ती। अच्छा ही था आसानी से मिली चीज़ का क्या मोल। लेकिन प्रश्न ये था कि इस दरवाज़े की भनक किसी को नहीं थी। कोई आभास था रौशनी का, अँधेरे का, दरवाज़े का। इसी आभास का सिरा पकड़े ,अँधेरे को मुट्ठी में जकड़े उस पतली रौशनी के लकीर पर एहतियातन पाँव रखते , न इधर डोलते न उधर डगरते . चलते रहने , आगे बढ़ने ,उस दरवाज़े को उँगलियों से छू लेने का दिवास्वप्न ये दिन , महीने , रात ?
पत्तियों पर कचर मचर चलते रहने , छतनार शाखों से झरती रौशनी , हरा ताज़ा ..कोई उड़ती तितली के पँख पर एक लहर कौंध की , कोई सुनहरी रेखा हथेली पर ..ऐसी कितनी स्मृति दबा कर रखी पन्नों के बीच सूखा कोई फूल। आह कोई स्मृति रौशनी की ..दबी दबी राख में दबी चिंगारी।

लैम्प की झरती रौशनी वृत बनाती है फर्श पर ..अ परफेक्ट सर्कल। उसी वृत पर एक कीड़ा चलता है गोल गोल। रेडियो से आती है आवाज़ रसीली उदास , दुख में नहाई हुई ..एक टेक बार बार घूम फिर कर लौट कर बार बार वही एक टेक। उसी आवाज़ के सम पर घूमता है रामजी का घोड़ा , उँगलियाँ देतीं हैं थाप। खिड़की से आती हवा से लहराता है पर्दा , काँप जाता है वृत एक बार को , ठिठक कर डिसऑरियेंट होता है कीड़ा और भटक जाता है अँधेरे में। रेडियो की आवाज़ छूती है दीवार को , छत के कॉर्निस को , पर्दों के हेम को ,शेल्फ में रखे काले पत्थर के बस्ट को , कोने में पड़े इज़ेल के अधूरी औरत को , खुरदुरे कैनवस पर पेंट को , मेरे दिल को । एक रौशनी भरती है किसी कोने से , फैलती है , थमती ठिठकती है फिर वृत की रेखा पर गोल चलती है। मैं देखती हूँ देखती हूँ। दरवाज़ा धीरे धीरे खुलता है , आवाज़ के सम पर खुलता है। न ये दिवास्वप्न है न स्मृति। बस रौशनी है ... ब्लाईंडिंग लाईट ... बन्द आँखों के भीतर रौशनी का सपना .. दुनिया के भीतर एक और दुनिया , बुलबुले के भीतर का रहस्य।

अँधेरा चिपटता है पोरों से। छुड़ाओ तो छूटता नहीं। दरवाज़ा दिखता नहीं। बन्द आँखों के अँधेरे में तो बिलकुल नहीं। सपने में दिखा दरवाज़ा हर बार बस खुलते खुलते रह जाता है। अँधेरे में रौशनी होते होते रह जाती है। दरवाज़े के फाँक से दिखता है .. आस , स्मृति , आवाज़। पान के रस से सराबोर है आवाज़, घुलती है सुपारी और मीठी इलायची , खुशबू कत्थे की , गमक सुर की । घुँघरू की आवाज़ पर कोई भंगिमा लेती है अंगड़ाई , लचक जाती है आवाज़ फिर एक बार और। ठुड्डी पर हाथ धरे कटीली रसीली आँखों से पूछती है नायिका ... अंतरे में रौशनी देखोगे?


( बड़ी परेशानियों में घिरे मन का प्रलाप.... इतना टेढ़ा कितना सीधा पर सच ! वो दरवाज़ा खुल जाये। कोई सिम सिम की चाभी पसीजी हथेलियों में औचक मिल जाये..इतनी दुआ करें)

3/16/2008

दर्द का नशा भी कोई नशा है क्या ?

दर्द का कोई ज्वालामुखी फूटता है और पूरे बदन में बिछती है सुरंग । किस नस पर कहाँ उँगली रखूँ कि फूट पड़े कोई छुपा लैंडमाइन । तुम्हें पता है दर्द का भी अपना नशा होता है। उसी नशे पर सवार मैं घूमती हूँ किन्हीं कुहरीली गलियों में ..कोई बाँस का झुरमुट और उसकी छाँह में दुबका पोखर जहाँ सुबह की कोई अचक्के डली किरण की रौशनी अपने बदन पर सजाये डुबकी मारती है ..डुब्ब से कोई रेवा मछली , भेड़ और बकरी के खुर के गोल निशान के कीचड़ वाले गुपची में , तैरते मटमैले पानी के कोटर में एक मेंढक ताकता है अनझिप आँखों से किसी पनियल फतिंगे के पारदर्शक डैने को , कोई मुर्गाबी हरियाये घास के झुरमुट में गड़प चोंच डालती पकड़ती है चारा फिर उड़ जाती है इन्हीं पेड़ों में से कहीं । ये सब ये सब नहीं देखती हूँ मैं । कैसे देखूँ कि मैं दर्द के नशे पर सवार कोई हताश बेसहारा घुडसवार हूँ जिसका सफर , अंतहीन तकलीफदेह सफर कभी खत्म होता नहीं । भूख और प्यास से होंठ पपड़िया जाते हों तो क्या ? तकलीफ की चिलकन अपनी दुनिया रचती हो तो क्या ? इस तकलीफ को बाँटने तुम आओगे क्या ? तुम जिसे तकलीफ का पता तक नहीं मालूम ? उसे ये चिट्ठी भेजूँ भी क्यों ? क्यों क्यों ?

धूप में पुआल के ढेर पर औंधे पड़े उसकी मीठी महक नाक में भरे , दर्द को मुट्ठी में भरे डुबकी मारती हूँ कि तल में कोई सुराख हो जिससे पार जाकर निकलूँ किसी ताज़ा धूप नहाई दुनिया में जहाँ ये सब कुछ न हो , बस कुछ न हो । और तुम अब भी कहते हो दर्द का नशा भी कोई नशा है क्या ?

3/11/2008

मिस्टर वाईंड अप बर्ड

अगर उसके कहे का हर बार बुरा मानोगे
तब तो हुआ
हुआ करे फिर दुख
ऐसी कितनी छोटी चीज़ें हैं
कितना कितना मनाओगे

दुनिया के अंदर दुनिया देखोगे
अंधेरे के अंदर रात देखोगे
पैर के नीचे पानी देखोगे
भीगे तलवों की तकलीफ देखोगे
ऊपर आसमान की छत नहीं देखोगे?

छाती के अंदर का सुराख देखोगे
सुराख के अंदर का खालीपन देखोगे
खुशी के ठीक अगले पल दुख देखोगे
अंतर के अकेलेपन की तकलीफ देखोगे
आत्मा का जुड़ाव नहीं देखोगे?

नहीं देखोगे क्योंकि
तुम्हारे अंदर लिपटी है रस्सी
लट्टू के गिर्द सुतली
वाईंड अप बर्ड ?
उसी तार पर चक्कर खाओगे
उतनी ही वाईंडिंग्स
उतना ही दुख और उतना ही सुख

कहते हो फिर किसी तिब्बती लामा के निर्विकार ज्ञान से
सब माया है
ओम माने पद्मे हुम
कमल का फूल खिल जाता है
ठीक नाभि के बीचो बीच

फिर अगले दिन मेरे कहे का बुरा क्यों माना
फिर तो हुआ करे दुख
ऐसी कितनी छोटी चीज़ें हैं
कितना कितना मनाओगे




(द वाईंड अप बर्ड क्रॉनिकल के मिस्टर वाईंड अप बर्ड के लिये नहीं)

3/06/2008

अँधेरे में लाईटहाउस

तुम्हारे होंठ इतने खट्टे क्यों हैं? पुरुष पूछता है क्रूरता से। और मन भी? औरत का चेहरा कड़ा है। किसी ज़माने में सुन्दर रही होगी , लीला नायडू जैसी , उन्नत ललाट , थोड़ी सी विडोज़ पीक भी। सस्ते शराब के खट्टे नशे में पुरुष को हर चीज़ खट्टी दिखाई देती है। कमबख्त नशा भी। सोचता है सूखी मछली का टुकड़ा मुँह में डालते। सामने दीवार पर ब्लैक ऐंड वाईट तस्वीर है अलीशिया मार्कोवा की, रौशनी और अंधेरे के खेल में रौशन चेहरा। रंग से चीज़ें गड़बड़ होती हैं। उनका स्टार्क डिफरेंस डाईल्यूट हो जाता है। अब औरत को बीच के खेल पसंद नहीं। आरामकुर्सी पर पैर सिकोड़े शीशे के बाहर अँधेरे को देखती है। बाहर कुछ नहीं है सिर्फ घटाटोप अँधेरा है। वही देखती है औरत। लहरों के गरजने की आवाज़ बेमत्त होकर सुनती है। बचपन में लुक अलाईव में पढ़ी थी किसी लड़की की कहानी जो लाईट हाउस में रहती थी। किसी भयंकर तूफान में अकेले पड़ी लहरों के थपेड़ों से बचती बचाती लाईटहाउस के लैम्प जलाती बहादुर लड़की की कहानी। औरत सोचती है मेनलैंड कितनी दूर है, तूफान कितना भयानक है और लाईटहाउस में कैद अभी लैम्प जलाना बाकी है।

पुरुष दरी पर लुढ़क गया है। बोतल खाली है। मछली के काँटे चीनी मिट्टी के सफेद प्लेट में अमूर्त डिज़ाईन बना रहे समुद्र तल के खारे जल के पुष्ट मछलियों की नियति गीत गाते हैं। रह रह कर पुरुष सुगबुगाकर हिलक कर एक खर्राटा ले , करवट बदल पसर जाता है नशे के अनाम बेहोश आलम में। बाँहों पर सर धरे क्लांत औरत कुर्सी पर गुड़ीमुड़ी सोचती है किसी अनजान तट पर छूटी कोई एक गीत की एक पंक्ति , किसी घुम्मक्कड़ बंजारे के सुरों का बिछड़ा धुन , कोई तलाश , एक खोज जाने किस का । एक चोट धँसती है छाती पर , रुलाई रुकती है छाती पर , साँस अटकती है छाती पर। लाईटहाउस अब भी अँधेरे में जड़ है।



(उस लाईट हाउस तो नहीं लेकिन उस चीनी घर की तलाश का गीत सुनिये पाओलो कोंते की खरखराती आवाज़ में .. ला कासा चीनेज़े )




और ये रहा

ballerina

अलीशिया मार्कोवा का स्केच उसी ब्लैक ऐंड वाईट तस्वीर से.. बनाने वाले फूहड़ हाथ ? मेरे !

3/05/2008

धूप में रंगीन छतरी

बतकहियाँ गलबहियाँ
मूड़ी जोड़े दिनकटियाँ
टिकुली नाड़ा जूती चप्पल
सपने देखे दिनरतियाँ

और यही सपने देखती बड़ी हो गई। अलबत्ता कभी कही नहीं , उलटा किसी ने छेड़ा तो ओढ़नी दुपट्टा कमर में बाँध हाथ नचा नचा लड़ी ज़रूर। बाहर से एक और अंदर से एक। हमेशा की ऐसी ही रही। जनमते ऐसी ही रही। हाथ पैर हवा में उछाल खेलती रहती , कोई पास आने की भनक पर बुक्का फाड़ ऐसे रोती जैसे साँस थम जाये , शरीर नीला पड़ जाये। शुरु शुरु में अम्मा बाउजी को खूब डराया। जाने क्या हो जाता है इस लड़की को। ईया लाल मिर्चा सरसों से परिछ कर चूल्हे में डाल आयें। सब बुरी नज़र जला आयें। फिर कमबख्त चुप भी हो जाये। फिक्क से हँसने भी लगे। बाद में सब समझ गये। छोकरी ऐसे ही हल्ला मचाती है। सब ठीक है। निश्चिंत हो साँस लेते। फिर डगर डगर बड़ी होती गई। सीखती गई। दो चोटी रिबन से बाँधे आँगन में इखट दुखट खेलती ताड़ सी लम्बी होती गई। ब्याह नहीं करूँगी नहीं करूगी का पहाड़ा रटती गई, सपने किसी सजीले राजकुमार का देखती गई। अम्मा हँसती , सब जनी ऐसे ही कहती हैं। ब्याह नहीं करेगी तो जायेगी कहाँ। सच ! कहाँ जाती। सो मैट्रिक के बाद लाख हो हल्ले के बाद ब्याह हो गया। चल , गौना बाद में करायेंगे , तब तक पढ़ ले , बाउजी पुचकारते दुलारते कहते। अभिमान मान से आँख छलछला जाती। हाँ पढ़ूँगी पढ़ूँगी खूब खूब पढ़ूँगी। पर उन्हीं छलछालाई आँखों के कोर पर खिच्चे दूल्हे की शकल कौंध जाती तब पढ़ूँगी की रट खाली खाली बर्तन जैसी ढनढन करती। इसी संगम में उलट पलट देर रात लैम्प की पीली रौशनी में मूड़ी गोते किताब नीली और कॉपी लाल करती रही , मार्जिन पर दूल्हे का नाम भी लिखती रही , तीर बिंधे दिल तकिये पर काढ़ती रही ।

गौना हुआ और दिन बीतते रहे। किताब कॉपी बक्से के सबसे तली पर पेपर के भी नीचे भूले बिसरे पड़े रहे। फिर हरहराता ज्वार उठा और सब लील गया। सब हँसी खुशी , सब जीवन संगीत। सूखी काई लगी मिट्टी बची और पति की फूल सजी तस्वीर बची । और कुछ दिनों के लिये और कुछ न बचा। सन्नाटा बचा , धसकती मिट्टी बची , पाँव तले कोई ज़मीन न बची । सिर पर आसमान तो नहीं ही बचा। कंठ फोड़ रुलाई बची , छाती पर पत्थर की चट्टान बची , धूप साया न बचा , बारिश में छतरी तो नहीं ही बची। कुछ बच भी गया तो क्या वाला भाव बचा। खुली मुट्ठी बची ,उजाड़ दिन बचे , नंगे तलवे के नीचे गर्म रेत बचे। पेट में काँटे बचे छाती में घाव बचे , आँखों में कंकड़ बचे दाँतों तले पत्थर बचे। शरीर रूखा हुआ , चेहरा कड़ा हुआ। बक्से के तल से कॉपी किताब बाहर हुआ। फिर पागलपन सवार हुआ। दिन रात धूनी रमाई। किसी की एक न सुनी। बस पढ़ती गई । मन बन्द आँख बन्द । इंटरमीडीयेट किया सेकंड डिवीज़न में। जुटी रही । बीए किया सेकंड डिवीज़न में। फिर बी एड किया ,एम ए किया। अबकी बार गदहजनम मिटाया और फर्स्ट डिवीज़न में गली मोहल्ले में मिठाई तक बाँटी। फिर अब आगे क्या सोच कर हिम्मत नहीं हारी। स्कूल की नौकरी पकड़ी फिर कस्बे के कॉलेज में ऐडहॉक लेक्चरर। सीट सीट कर बाल का जूड़ा बनाया , कलफ की हुई साड़ी पहनी , जूते पहने . चश्मा पहना और निकल गईं बाहर की दुनिया में।

आज शहर की नामी गिरामी लड़कियों के कॉलेज में रीडर हैं। क्या कड़क दबदबा है। ज़रा मुँहफट बददिमाग हैं लेकिन काबिल हैं। क्या पढ़ाती हैं, कैसी गरिमा शालीनता का सौम्य मिश्रण हैं। लेकिन अब तक सपने देखती हैं। दिन रात देखती हैं । अँधेरे में रौशनी देखती हैं , रौशनी में उजाला देखती हैं। और उस उजाले से चका चौंध आँखों से दुनिया देखती हैं। ऐसी दुनिया जो बहुतों को पूरे जीवन नहीं दिखती। इन्हें दिखती है , अब तक दिखती है। जिस ज़मीन पर खड़ी होती हैं वहाँ मुलायम घास दिखती है। धूप में रंगीन छतरी के रंग दिखते हैं। हमेशा से ऐसी ही थीं। अब भी ऐसी ही हैं। अंदर से एक बाहर से एक।

3/01/2008

अनदर मिलियंथ टाईम ?

मिस्टर स्पॉक पढ़ पढ़कर सब कंठस्थ हो गया था फिर भी बउआ के नवजात मसले फूल से गाल और चमकीले रेशम बाल को देख मन आह्लाद और आशंका से भर जाता। उसकी बँधी मुट्ठियों में अपनी कानी उँगली पकड़ा देने का सुख जैसे अब जाकर मन कहीं ठहर गया हो। अ शिप इन ऐंकर !

जब पैदा होता था डॉक्टर मुकर्जी ने कहा था , बेटा हुआ है। मन बेटी के लिये हुमसता था। तीसरे महीने से ही विंडो शॉप्स में लटके फ्रॉक पर मन अटक जाता। पोल्का डॉट्स के गुलाबी झबले,कढ़ाई वाले आसमानी स्मॉक्स , स्मोकिंग वाले पीले रैप्स , लेस वाली बूटी , कैप्स अल्ल्म गल्ल्म। अब डॉक्टर कहती हैं बेटा हुआ है। स्पाईनल अनसथीसीया के खुमार में मैं पूछती हूँ बेवकूफाना सवाल , आर यू श्योर ? खडूस स्पिंस्टर डॉक्टर कड़ी होकर कहती है , ऐज़ श्योर अज़ आई कैन एवर बी। फिर रुखाई के कॉम्पेनसेशन में मेरे गाल थपथपा कर मुस्कुराती है , योर बेबी इज़ डूइंग फाईन। हाँ डूईंग फाईन , सच ! ऐसी बुलंद रुलाई ।

एड़ियों से उलटा लटके गोल गाल चेहरा भींचे मुट्ठी बाँधे लाल रुलाई । कितना प्रोटेस्ट दुनिया में आने का। नर्स तुरत बच्चे को ले जाती है। मैं रिलैक्स करती हूँ , मन भी शाँत। सब टेंशन खत्म। कुछ अनीसथीसिया का कमाल है , हैलूसिनेट करती हूँ , रंग बिरंगे वृत हवा में तैर रहे हैं। मैं हल्की सब हल्का मधुर। कैसा अजब खुमार। लूसी इन द स्काई विद डायमंड्स।

सफेद कपड़े में लिपटे गुलाबी गोल चेहरे के गाल को आहिस्ता एक उँगली से छूती हूँ। बेबी टुकुर टुकुर देखता है, फिर छोटा नन्हा मुँह खोल जम्हाई लेता है। कनपटी पर , माथे पर चमकते रेशम की रेखा है। अ ब्रूईज़्ड फ्लावर। मेरी छाती दरकती है। फिर मैं टूटती जाती हूँ किसी अनाम रुलाई के वेग से पूरा बदन हिलता है। कनपटी से अनवरत बहते आँसूओं को देख कर नर्स घबड़ा कर पूछती है, ज़्यादा तकलीफ होता क्या? इक्कीस बाईस साल की नई ट्रेनी नर्स है। क्या समझेगी माँ बनना क्या होता है। अब मैं मुस्कुराती हूँ। मैं , चौबीस साल की ताज़ा नवेली माँ , अचानक बड़ी समझदार दुनियादार हो जाती हूँ , अपनी नयी पदवी के भार से अचंभित आह्लादित। छाती का भार कैसा सुखद भार है। बउआ के होंठों के कोर से दूध की एक बून्द थरथरा कर लटकी है। नवजात की मीठी खुशबू , बेबी पाउडर की गमक , दूध की सोंधी महक से तरबतर.. नींद में दो बार उसके होंठ चलते हैं, आँखों की पुतलियाँ बेचैन पोपटों के नीचे थरथरा कर स्थिर होती हैं और कोई दिव्य मुस्कुराहट सी चेहरे पर पसर जाती है। मेरा दिल भर आता है। इस नये प्राणी को इस धरती पर लाने का चमत्कार।

कलाई में नस में धँसे आई वी की सूई , अनीसथीसिया के असर से तीखी उबकाई , सीज़ेरियन के कटाव का टभकता पोर पोर दुखाता घाव, पपड़ियाये होंठों और मोटे हुये जीभ की मोटी धँसी बेचैनी.. सब तिरोहित हो जाता है।ऊपर धीमे घूमते पँखे के डैनों में , बाहर गंगा किनारे पेड़ों पर चहचहाती चिड़ियों के शोर में , अपने बगल में सोये इस नवजात में जीवन का क्रम एकबार और अपना पार्ट खेलता है।


कहीं दूर कोई मुस्कुराता है .. खेल का नया सीन अनफोल्ड होगा , नये पात्र नयी कहानी ..देखें इस बार क्या मोड़ लेगा ये खेल , कुछ नया सुहाना अप्रत्याशित ? ठुड्डी पर उँगली टिकाये इंतज़ार करता है ... अनदर मिलियंथ टाईम?