3/16/2008

दर्द का नशा भी कोई नशा है क्या ?

दर्द का कोई ज्वालामुखी फूटता है और पूरे बदन में बिछती है सुरंग । किस नस पर कहाँ उँगली रखूँ कि फूट पड़े कोई छुपा लैंडमाइन । तुम्हें पता है दर्द का भी अपना नशा होता है। उसी नशे पर सवार मैं घूमती हूँ किन्हीं कुहरीली गलियों में ..कोई बाँस का झुरमुट और उसकी छाँह में दुबका पोखर जहाँ सुबह की कोई अचक्के डली किरण की रौशनी अपने बदन पर सजाये डुबकी मारती है ..डुब्ब से कोई रेवा मछली , भेड़ और बकरी के खुर के गोल निशान के कीचड़ वाले गुपची में , तैरते मटमैले पानी के कोटर में एक मेंढक ताकता है अनझिप आँखों से किसी पनियल फतिंगे के पारदर्शक डैने को , कोई मुर्गाबी हरियाये घास के झुरमुट में गड़प चोंच डालती पकड़ती है चारा फिर उड़ जाती है इन्हीं पेड़ों में से कहीं । ये सब ये सब नहीं देखती हूँ मैं । कैसे देखूँ कि मैं दर्द के नशे पर सवार कोई हताश बेसहारा घुडसवार हूँ जिसका सफर , अंतहीन तकलीफदेह सफर कभी खत्म होता नहीं । भूख और प्यास से होंठ पपड़िया जाते हों तो क्या ? तकलीफ की चिलकन अपनी दुनिया रचती हो तो क्या ? इस तकलीफ को बाँटने तुम आओगे क्या ? तुम जिसे तकलीफ का पता तक नहीं मालूम ? उसे ये चिट्ठी भेजूँ भी क्यों ? क्यों क्यों ?

धूप में पुआल के ढेर पर औंधे पड़े उसकी मीठी महक नाक में भरे , दर्द को मुट्ठी में भरे डुबकी मारती हूँ कि तल में कोई सुराख हो जिससे पार जाकर निकलूँ किसी ताज़ा धूप नहाई दुनिया में जहाँ ये सब कुछ न हो , बस कुछ न हो । और तुम अब भी कहते हो दर्द का नशा भी कोई नशा है क्या ?

7 comments:

  1. अच्छा लिखा है। दर्द में सचमुच नशा होता है।

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  2. सृजन में दर्द का होना जरूरी है।

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  3. Anonymous10:27 am

    hindi achhi hai
    shabd kosh rich hain

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  4. 'दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियां साकी है…'

    प्रत्यक्षा जी आपके लेखन(कम अज़ कम ब्लॉगलेखन में क्योंकि किताबें कम ही पढ़ी आपकी) में अधिकांशत: आप ग्राम और ग्रामीण परिवेश में पहुंच जाती हैं किसी न किसी माध्यम से,माध्यम पर।
    शायद अंत:करण में ग्राम-ग्रामीण परिवेश हावी होने के कारण।
    हालांकि लेखन में ग्राम और ग्रामीन परिवेश की मौजूदगी मुझे पसंद है।
    लेकिन उतने ही अच्छे तरीके से आप शहरी ही नही बल्कि अति-आधुनिक परिवेश को भी अपने शब्दों में चित्रित कर लेती हैं।
    मौका मिला तो आपकी किताबें जरुर पढ़ना चाहूंगा।
    बधाई!!!

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  5. नशा है .. नशा भी है

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  6. श्रीकांत वर्मा की कविता है- बाबर समरकंद के रास्ते पर है, समरकंद बाबर के रस्ते पर

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  7. दर्द का नशा अच्छा तो है लेकिन हर अच्छे नशे की तरह समय से उतर जाना चाहिये , वरना चिन्ता का विषय हो सकता है ।

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