2/02/2008

रौशनी के बाहर खड़ी औरतें

जब तेज़ रौशनी पड़ती है एक घेरा बनता है अंदर सब साफ दिखता है । लेकिन जो इस वृत के ठीक ज़द पर खड़ी हैं , न उजाले न अँधेरों में ,उनकी बात कौन कहेगा उनका भोगा कौन देखेगा उनका लिखा कौन पढ़ेगा ... एक कोशिश उनकी बीती रौशनी के घेरे में लाने की ..लेकिन मात्र एक क्रॉनिकल है .. तथ्यों का सूखा संकलन भर । कौन कितना और क्या अर्थ निकालेगा वो उसकी समझ पर निर्भर करेगा


पहली कथा

सन उन्नीस सौ इकतालीस

निहारचंद रायज़ादा और शीलकुमारी रायज़ादा ... दो पुत्रों के बाद पहली कन्या रत्न । हम भेदभाव लड़के और लड़की में नहीं करते सो धूमधाम से छठी का आयोजन । ये दीगर कि यही आयोजन तीसरी कन्या तक आते आते ,नहीं करते फुसफुसाहट में बदल फीका रंगहीन हुआ ।

पर ये तो पहलीं थी सो किस्मत वाली थीं । चुलबुली थी दुलारी थी बाप की चहेती थी रानी राजकुमारी थी । हँसते कूदते पढ़ते लिखते बढ़ती थी , समझती थी मैं खासमखास , भीड़ से अलग , एक कदम ऊपर , आँखों का तारा .. मेरी एकतारनी ..एक तारा मेरी ।

सितार बजाती सुबह उठ , दौडती भागती गाती तराना , टप्पा ठुमरी । लैम्प की रौशनी में रात रात जाग किताबें खोल देखतीं सपने .. सब होंगे पूरे ..खुद का वायदा खुद से । और इन सब सपनों के बीच किसी मिल्स एंड बूनी रोमांस का टॉल डार्क हैंडसम भी छुपता छुपाता झाँकता किसी कोने से । डिबेट शिबेट टेनिस पूल बैले नाच छोटे शहर में फूलों का राज । कैसा दर्प कितना कितना सहज प्राप्य सब ।

फिर राजकुमार आया । लाल जोड़े में सिमटी सिकुड़ी शायद पहली बार । पर ये शर्माना भी कुछ प्राकृतिक नैसर्गिक अंदर का खेल । हल्दी रोली अक्षत सिंदूर । पीले चादर से बँधी पसीजे हाथ में सिन्होरा पकड़े सर नवाये झुकी धड़कती आँखों से देखा नया संसार ।

अब भाग दो का पटाक्षेप हुआ । जुम्मा जुम्मा चार दिन बीते । जाने कैसी सड़ाँध फूटने लगी । खिड़की दीवार से ,बाग के चौहद्दी वाले लतर से , बरामदे के बेंत की कुर्सी से , गमलों से चूल्हों से । जाने कैसी सड़ाँध थी । सब दूर भागने लगे , दुर दुर करने लगे । इसे कुछ समझ न आये । पति ने विद्रूप से कहा , होगी अपने बाप की रानी राजदुलारी , यहाँ ये ठाट नहीं । इसने हिम्मत किया , पूछा बताना होगा । कैसे नहीं

जवाब में हाथ पैर लात बात । ढीठ थीं , जिद्दी मगरूर थीं बड़े बाप की सहेजी समेटी बेटी थीं , कुछ खुद को इंसान भी समझती थीं । सो इसरार किया । बात नहीं बनती देख कभी रार मनुहार भी किया । फिर किसी बड़ी बूढ़ी ने ज्ञान दिया , पति फँसा किसी और से रे बहुरिया । टोना टोटका गंडा ताबीज़ कर ले जो कर सके और बनी रहे सदा सुहागन । आखिर सिंदूर आलता लगाने का अधिकार , किसी की ब्याहता कहलाने का सुख कम है क्या ?

निकल आई भाग के । पिता कहें लौट जा बेटी , माँ कहें छोटी बहनों का ऐसे रवैये से होगा ब्याह ? एक बार फिर मन मारे लौट जा । लौटीं और ठीक तीन दिन बाद कंबल में लिपटीं लौटी बाप के पास । फिर अस्पताल ..महीनों दिन और उसके बाद लम्बी आस्तीन का ब्लाउज़ चट गर्मी में भी , सोने के पतले चेन के नीचे खलतराई खाल ,कमर और पेट कभी गलती से भी मालिश वाली दाई तक के सामने नहीं उघारी ।


शारदा रायज़ादा पोफेसर , विसिटिंग फैकल्टी अल्ल्म गल्ल्म यहाँ वहाँ सिगरेट पर सिगरेट धूकती । कैसी मुँहफट , ओह सो रूड बट हाउ कांफिडेंट ! हद है । कॉलेज की लड़कियाँ डरती सिहरतीं एकाध कैसी ऐडमायरिंग ग्लांसेज़ देतीं ..काश हम भी ! पुरुषों को दो टूक समझतीं । फर्राटे से गाड़ी चलातीं सब स्पीड लिमिट तोड़तीं भागती जाती हैं जीवन में । दुर्खाइम और मार्ग्रेट मीड की मोटी पोथियों , नियनडर्थल और क्रो मैग्नन मानव की बतियाँ , आदिमानव और आदिवासी में खोजतीं जीवन का रहस्य । साल मे चार बार विदेश भ्रमण , फलां सेमीनार में पेपर पढना है , अलां वर्कशॉप में लेक्चर देना है , उस अंथ्रोपोलॉजिकल रिव्यू में आर्टिकल , इस सोशल साईंस पैनेल के बोर्ड पर । घर में किताबें ही किताबें । बचपन के खेल सपने सब हुये हवा । सितार तक एक कोने में गर्द खाता उपेक्षित पड़ा है । बहनों और भाईयों की सुखी गृहस्थी पर चुपके आह । उनके बच्चों पर लाड़ दुलार , लेकिन अपना कोई कहाँ ? जैसे एक बड़ा गड्ढा हो जो हर वक्त और गहरा होता जाता है , अंदर झाँकों तो कूँये में झाँकने जैसा हो , कुछ दिखे ही न , बस कुछ डोलती छाया का आभास मात्र , अतृप्त इच्छायें मुँह बाये सब लीलने को तत्पर ।

बिस्तर पर पलथी मारे ऐशट्रे सामने धरे सिगरेट फूँकती लगातार बोलती हैं । साड़ी मुसमुसा गई है ,बाल बिखर गये हैं । छाती के अंदर धौंकनी जलती है । सारे डिग्रीज़ सब सम्मान , अंतर्राष्टीय गोष्ठियों से मिले रिकॉगनिशन , आज की स्वतंत्र नारी , अपना जीवन जीती है.... सब खुद बुहार कर परे धकेल देती हैं । हाथ फैलाती हैं हवा में .. उँगलियाँ सब अलग ... देखो ऐसे जीवन बह गया , चुक गया । बच्चे नहीं पति नहीं तो जीवन कैसे चुक गया ? इसलिये कि चाहा था यही सब लेकिन मिला जो सब वो भी तो चाहा था । मिल गया इसलिये मोल चुक गया । आदमी की बुद्धि ? औरत के संस्कार ? बिना पुरुष के साथ के जीवन बेकार ? चाहे पुरुष कितना कमीना क्यों न था ? जानते हुये भी ..जीवन सिर्फ एक काश ? एक कामना ?

सिगरेट बुझाती , उठती हैं । बाल काढ़ती हैं आईने के सामने , कलफ की हुई साड़ी की चुन्नट सरियाती हैं ... निकलना है तीन बजे क्लास है फिर मीटींग है उसके बाद प्रकाशक के साथ बैठना है अपनी किताब का कवर तय करना है , प्रमोशनल स्ट्रैटेजीज़, फिर इंस्टीट्यूट कुछ देर । समय कहाँ है कुछ फालतू सोचने का ।

लेकिन दूसरों के पास है ,कितने टैग तो लगा दिये उन पर ...दबंग , घमंडी , बंजर , ऐसी औरत की ऐसी ही तो नियति , लूज़ कैरेक्टर , स्मार्ट इंडीपेंडेंट वोमन , सूखी सड़ी चिड़चिड़ाही स्पिंस्टर ? जो औरत पारंपरिक रास्तों से हटी , सूत भर भी उसकी यही तो नियति है ,इसमें गलत क्या ?

आपको क्या लगता है ?


(स्त्री संबंधी मुद्दे जो स्पॉटलाईट में हैं , जिनका सबको पता है स्त्री को भी ... और स्पॉट लाईट के परे जिनका किसी को पता नहीं , स्त्री को भी नहीं)

4 comments:

  1. सही लिखा हैं आपने प्रत्यक्षा । पढी लिखी , कमाती , ४५ के ऊपर , अविवाहित , जरुर मानसिक बीमारी से पीड़ित होगी !!!!!!!!!! नोर्मल तो हो ही नहीं सकती । पुरुष के बिना रहती है तो कोई ना कोई तो फंसा रखा होगा !!! काम के बाद देर से घर आती , मस्ती मार रही थी { बाक़ी अविवाहित पुरुष तो सब" काम" कर के ही देर से आते हैं }।

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  2. हम महिलाओं को अपना रास्ता खुद बनाना है, किसी लेबल की हम बिलकुल परवाह नहीं करते।

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  3. चिंता की बात यह भी है कि जब एक महिला लीक छोड़कर चलने की कोशिश करती है तो उस पर तरह-तरह के टैग लगाने वालों में अक्सर सबसे आगे महिलाएं ही होती हैं। जो लीक पर चल रही होती हैं उन्हें लीक तोड़ने वाली महिलाएं खलनायिका जैसी पता नहीं क्यों लगती हैं?

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  4. (स्त्री संबंधी मुद्दे जो स्पॉटलाईट में हैं , जिनका सबको पता है स्त्री को भी ... और स्पॉट लाईट के परे जिनका किसी को पता नहीं , स्त्री को भी नहीं)

    मेरे ख्‍याल से सब कुछ तो इसी में है.. और क्‍या कहा जाए?

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