2/05/2008

आईल ऑफ काप्री ..

आज लावण्या जी की पोस्ट पढ़ रही थी । डॉकटर ज़िवागो की लाराज़ थीम । फिर उनके दिये लिंक से ब्रिज़ ओवर रिवर क्वाई और कर्नल बूगी सुना । झम से कुछ बिसरी यादें सामने कूद पड़ीं ।

एक कूट का बड़ा सा डब्बा हुआ करता था । ऊपर तक ठस भरा ..ईपी और एलपी । क्या रंगीन जैकेट्स ..कम सेप्टेम्बर , ब्रिज ओवर रिवर क्वाई , कर्नल बूगी , आईल ऑफ काप्री (इसके जैकेट का नीला समन्दर बचपन में कहाँ कहाँ नहीं खींचकर ले गया ) , बीटल्स ,जॉर्ज मैक्ग्रे से लेकर पाकीज़ा , देवानंद वाली फिल्म की .. रंगीला रे , या भूपेन्द्र की शोखियों में घोला जाय थोड़ी सी शराब , या फिर पता नहीं कौन सी फिल्म पर जैकेट पर शशि कपूर आशा पारेख ..नी सुल्ताना रे .. वो कौन है वो कौन है , कुछ पहेली टाईप गाना , कुछ रशियन फोक और पॉप , एकाध मुंडारी लोकसंगीत ..बहुत सारा शास्त्रीय संगीत .. बिस्मिलाह खान से लेकर पंडित ओंकारनाथ ठाकुर तक ।

जाड़े के दिन में पीछे के हाते में चटाई बिछाई जाती और दिन भर का कार्यक्रम धूप में आउटडोर्स बिताया जाता । नाश्ता और संभव हुआ तो दोपहर का खाना भी । कुर्सियाँ , मेज़ सब लग जाते । एक रेडियो कम रिकार्ड प्लेयर था .. सफारी ( पता नहीं सफारी क्यों ? ये कम्पनी थी या कोई घरेलू जोक ?) उसे बकायदा चटाई पर किसी पेड़ की छाँह में स्थापित कर दिया जाता । ईपी एलपी वाला डब्बा निकाल लाया जाता । फिर देर दोपहर तक एक एक करके गाने । रिकार्ड बजाने का भी एक मज़ा होता । सूई को बड़े एहतियात से रिकार्ड के ग्रूव पर इस होशियारी से रखना कि शुरुआती म्यूज़िक का एक बीट तक न मिस हो । ये बड़ा प्रोफेशनल काम था आसानी से होने वाला नहीं । कितने दिनों बाद हल्के कोमल हाथ से रूई के फाहे सा धीमे से रख देना ..कोई प्लेन रनवे टच करे ऐसा दुरुह ऐसा सीधा ।

ये सब तब की यादें जब तीसरी चौथी पाँचवी कक्षा का वयस ..फिर भी सभी रिकार्डस के जैकेट ऐसे याद हैं जैसे कल देखा हो , महीने भर पहले का देखा दिमाग पर कई बार ज़ोर डालना पड़ता है । स्मृति भी सेलेक्टिव गेम खेलती है । क्या अटका रहेगा रेंगनी के काँटे से , क्या फिसल जायेगा बहते पानी सा । कौन सी याद किस संदर्भ में कब उमड़ेगी ,कब दुखी कर जायेगी कब सुखी , जाने कौन सा केमिकल रियेऐक्शन है । जो भी है मज़े का खेल है । कितना कितना छाँट कर सोने सा कोई स्मृति कण कब चमक जाये इसकी उत्कंठा भी गज़ब की चीज़ है । और संगीत की याद जीभ पर भरा स्वाद है ,बचपन की कोई मिठाई शायद चुरा छिपा कर हड़बड़ा कर खाई हुई , पूरा ध्यान मन बस उसी एक मुँह भरे कौर पर हो जैसे ।

अभी काजू की कतली (इच्छा तो थी कोई पेड़ा या बालूशाही टाईप या फिर काचा गोला जैसी मिठाई मुँह में होती) खाते हुये कम सेप्टेम्बर और आईल ऑफ काप्री को समर्पित आज का दिन । कोशिश की कि कहीं से खोजकर इन्हें सुनाऊँ पर मिला नहीं । ये बात और कि मिल भी जाता तो यहाँ अपलोड कर पाती पता नहीं । अगर किन्हीं को मिले तो सुनायें ज़रूर !


फिलहाल ये सुनें

6 comments:

  1. आधे नाम सर के ऊपर से निकल गये तो लगा कि पढ़ा लिखा आदमी (?) भी ज्ञानियों की संगत में मूरख ही होता है..

    ReplyDelete
  2. तीस-पैंतीस साल पहले के काल-खंड में पहुंचा दिया आपने -- बचपन का अनअलॉइड प्योर नॉस्टैल्ज़िया . बादल घिरने लगे .

    अपने अनुभवों के आईने में देख सकता हूं कि सत्तर के दशक में नीरज/एसडी कम्बाइन के 'प्रेम पुजारी' के गीतों पर तो अपने से पहचान करती,किशोरावस्था से जवानी की ओर बढती उस पूरी पीढी का दिल कुर्बान था :

    "शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब/उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी-सी शराब/ होगा यूं नशा जो तैयार/हां! होगा यूं नशा जो तैयार,वो प्यार है"

    रादुगा और प्रगति प्रकाशन के वे रूसी उपन्यास जिन्हें पढकर हम एक ऐसी दुनिया में पहुंच जाते थे जहां एकसाथ सब कुछ भिन्न था और अभिन्न भी .बहुत कोशिशों के बाद ही अपने देश-काल में लौटना होता था . और दुनिया अलग ही रंग में रंगी दिखाई देती थी .

    स्मृतियों की अलगनी पर क्या टंगा रह जाएगा और किस रूप में , कोई नहीं जानता . स्मृतियां हमारा अकृत्रिम अनुभव हैं और आसंजक इतिहास भी .

    ReplyDelete
  3. स्मृति भी सेलेक्टिव गेम खेलती है । क्या अटका रहेगा रेंगनी के काँटे से , क्या फिसल जायेगा बहते पानी सा । कौन सी याद किस संदर्भ में कब उमड़ेगी ,कब दुखी कर जायेगी कब सुखी , जाने कौन सा केमिकल रियेऐक्शन है ।
    बहुत अच्छी लगी ये पँक्तियाँ.गाने की धुन भी.

    ReplyDelete
  4. प्रत्यक्षा
    अलग अलग देशकाल्,समय् व परिजन होते हुए भी स्वतँत्र भारत की एक पूरी पीढी कयी सारे,एक से अनुभवोँ को लेकर के वयस्क हुई है --
    हमारे प्राचीन वाँग्मय के साथ,
    कहीँ वेस्ट का असर भी अवश्य रहा है -
    - परिवार इन सब के मध्य मेँ रखी
    आधार शिला रही !
    आपने मेरे लोग पर आकर , मेरा पन्ना पढा और उसका लिन्क दिया उसके लिये आभार !
    हाँ, सबसे बढिया तो सँगीत सुनने का मज़ा और ये यादोँ का सिलसिला ही रहा, है ना ?
    स्नेह के साथ,
    -
    -लावण्या

    ReplyDelete
  5. या भूपेन्द्र की शोखियों में घोला जाय थोड़ी सी शराब ......

    "भूपेन्द्र" क्यों ???????

    किशोर कुमार नही ????

    ReplyDelete
  6. Anonymous2:46 am

    आधे नाम तो मेरे सर के ऊपर ही से निकल गईं....लेकिन यकीन से कह सकता हूं कि अगर समझ पाता तो ये जरूर अच्छा ही होता...खैर जो कसर थी वो म्यूजिक ने पूरी कर दी....सुनकर दिल काफी हल्का हो गया...सो डाउनलोड भी कर लिया है अपने डेस्कटॉप पर...
    पहली बार टहलते हुए आ गया था अब जब भी इधर से गुजरूंगा सलाम जरूर करूंगा

    ReplyDelete