8/31/2006

मास्टर जी

बचपन में तस्वीरे‍ बनाने का शौक था पर कभी ऐसी स्थिति नहीं आई कि सीख सकूँ । जब कॉलेज में थी तब एक बार नाज़िर बाबा (इनके बारे में यहाँ पढिये ) आये । मेरी कुछ आड़ी तिरछी लकीरें देखी और कहा , चलो तुम्हें एक जगह ले चलें । हमारे घर से लगभग १० मिनट की दूरी पर एक लड़्कों का सरकारी स्कूल था , काफ़ी बड़ा (आम सरकारी स्कूलों से भिन्न )बहुत बड़ा कैम्पस ,शि़क्षकों के क्वार्टस वहीं अन्दर । मास्टर जी इसी स्कूल में आर्ट टीचर थे । नाज़िर बाबा के परिचित ।" ये तुम्हें सिखायेंगे " , उन्होंने परिचय कराते हुये कहा । मास्टर जी बड़े शान्त स्वभाव के लगे । दुबला पतला इकहरा शरीर , साँवला रंग , घुँघराले बाल कँधे तक बढे हुये । उनकी पत्नी बाहर आई , गोरी , गोल मटोल , चौड़ा आकर्षक चेहरा और चेहरे से अंकवार ले लेने वाला अपनापन मुस्कान से भी ज्यादा खिलता हुआ ।

आम , जामुन और बेर के पेड़ों के बीच घिरा हुआ दो कमरे काक्वार्टर , बाहर वाले कमरे में कैन्वस , रंग , कूची ,तमाम चित्रकारी के अल्लम गल्ले , कुछ बेहद सुंदर पोट्रेट्स , आँगन में खटिया पर बच्चों के कपड़े,थोड़ा सा जो बरामदा दिख रहा था वहाँ रसोई के कुछ इंतज़मात, अलगनी पर टंगे कपड़ो‍ का ढेर , धूप में मर्तबान में पकते अचार ।सब एक नज़र में देखा।तय हुआ कि अगले इतवार मास्टर जी घर आयेंगे ।देखेंगे हमारी चित्रकारी के नमूने फ़िर आगे कैसे सिखाना है इसपर विचार होगा । मेरा ख्याल था कि मास्टर जी लिहाजवश मना नहीं कर पाये । वरना उनकी बातों से लगा कि बहुत व्यस्त रहते हैं । ये बाद में पता चला कि लोगों के आग्रह पर पोर्ट्रेट्स अपने खर्चे पर बनाते हैं,वक्त और पैसे दोनों जाता है पर लोगों को इन्कार नहीं कर पाते ।

इतवार आया और साथ में बिलकुल समय पर मास्टरजी । बाहर धूप में चाय की दौर चली । मैंने अपनी बनाई एक स्केच उनको दिखाई । एक ब्रिटिश पत्रिका आती थी 'विमेन एंड होम ' , उसी से देखकर नकल उतारी थी , हाथ में मशाल लिये दौड़ते हुये एक पुरुष की जिसके एड़ियों पर पंख लगे थे ।मास्टरजी ने देखा और कहा " हम सिखायेंगे "
उनके एक इस वाक्य से मुझे कैसा खज़ाना मिला था । लगा अब मुराद पुरी हुई । आँखों के सामने खूबसूरत पेंटिग्स एक एक करके लहरा गई , पैलेट,कूची हाथ में लिये ,ऑयल कलर्स के रंगीन धब्बों से सुसज्जित एप्रन पहने मैं कैन्वस के सामने सपनीली आँखों से रंगों की दुनिया में विचर रही थी । बस अब ये सब हाथ बढाकर मुट्ठी में भर लेने लायक दूरी पर ही तो था ।
अगले इतवार हम उनके घर पर थे । पहली सीख ये दी कि अभी खूब पेंसिल स्केचेज बनाऊँ श्वेत श्याम तसवीरों की । किन पेंसिल से चित्र बनाना है ये बताया । घर लौट कर सब सरंजाम किये । घर पर दो मोटी मोटी चमकीली कागज से सजी हुई फोटोगराफी की किताबें थीं । उनमें कई श्वेत श्याम फोटोज़ भी थे । सब धीरे धीरे मेरे पेंसिल के कैद में आकर अपना चेहरा बिगाड चुके । एक लडकी की तस्वीर तब बनाई थी , फिर उसी पत्रिका 'वीमेन एंड होम ' से , कहानी के साथ ये स्केच था । कहानी का नाम अब तक याद है ,'द फ्लावरिंग डिसेम्बर ' , एस्सी सम्मर्स का लिखा हुआ ।

अनामिका
पहली क्लास के बाद करीब दो हफ्ते बीत गये । मास्टरजी फिर एक दिन आये । मेरे स्केचेज़ देखे , कुछ सुधारा , कुछ गल्तियाँ बताई । फिर रंगों के बारे में बताया । कुछ बेसिक रंग खरीदने को कहा और कैनवस बनाने की प्रक्रिया समझाई । कहा कि पहले कैनवस खुद से बनाऊँ । प्लाई , मार्किन का कपडा , सैंडपेपर और शायद ज़िंकपाउउडर । पहला कैनवस पीसी मॉनिटर जितना बडा रहा होगा ।प्लाई पर मार्किन चिपका कर , पाउडर का घोल लेप करके रगडना सैंडपेपर से । ये प्रक्रिया तीन चार बार करनी थी । मेरा कैनवस तैयार होता तबतक N.T.P.C. से चिट्ठी आ गई कि मेरा चयन हो गया है । चित्रकारी सीखना कोल्ड स्टोरेज में चला गया । वो तब था और आज भी ये अरमान अधूरा ही है । देखें भविष्य में कुछ जुगाड बैठता है या नहीं ।बाद में , कई साल बाद जार्जिया ओ कीफ की पेंटिंग "पॉपीज़" की नकल बनाई थी उसी अपने हाथों से बनाये कैनवस पर । अब ये चित्र कहाँ है पता नहीं , शायद खो गया कहीं घर बदलते रहने के चक्कर में ।एक और बडी सी पेंटिंग बनाई थी दौडते हुये घोडों की ।ये भी कहीं खो गई ।
मास्टर जी से फिर मुलाकात नहीं हुई । पटना छूट गया । मास्टरजी की एक बात और याद आई । कहते थे कि उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी थे , क्रांतिकारी थे । जेल में थे रामप्रसाद बिस्मिल के साथ ।

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए- कातिल में है"

ये मशहूर शेर उनके पिता का लिखा हुआ था , न कि बिस्मिल जी का । अपने पिता की बात करते करते मास्टरजी जोकि आमतौर पर बेहद शांत , सौम्य और नफासत से बोलने वाले थे , एकदम आवेश में आ जाते । कहते कि ये साबित कर के रहूँगा कि यह शेर मेरे अब्बा का लिखा हुआ है ।आज मास्टरजी कहाँ हैं , कैसे हैं कुछ पता नहीं पर जब अपने स्केचेज़ और वाटर कलर्स निकाला तो उनकी याद आई । दुआ करती हूँ कि जहाँ भी हों स्वस्थ हों , सुखी हों

मेरी कविता .........................

रंग

मन था, कोरा सफेद कैनवस,
कुछ आडी तिरछी लकीरें
कुछ अमूर्त भाव
कुछ मूर्त कल्पनाएँ

उँगलियाँ कूची पकडे
काँपती थीं
उत्सुकता से..
आज नया क्या सृजन हो
जो खुद को भी कर दे
चमत्कृत

रंग बिखरे थे, गाढे, चटक,
कुछ हल्के, सपनीले…
सफेद कैनवस पर
लाल सूर्य सा,बिंदी गोल
मन वहीं टँक जाता है

सृजन का ये पहला रंग
हर बार पीडा देता है
और खुशी भी, जैसे
गर्भस्थ शिशु की
पहली चीख , माँ के कानों में,
इस दुनिया में आने पर….

8/25/2006

टाईगर टाईगर बर्निंग ब्राईट

बचपन में पढी थी विलियम ब्लेक की कविता , "टाईगर "।
तब कल्पना की उडान खूब लगती थी । मुझे अबतक याद है कि कक्षा में बैठे हुये खिडकी से बाहर देखते हुये घने अँधियारे जँगलों में विचरते रौबीले खूँखार बाघ की कल्पना की थी ।

बाद में कई बार सबसे पसंदीदा जानवर कौन है के जवाब में हमेशा बाघ ही दिमाग में आया । बाघ से ज्यादा राजसी और कोई जानवर नहीं । मेरे हिसाब से जँगल का राजा शेर भी नहीं

तो पेश है अपनी बनाई एक पेंसिल स्केच और एक कविता

टाईगर



एक पत्ता खडका था
एक चाप सुनाई दी थी
एक साया डोल गया था
दूर बियाबान जंगल में
रात का जादू फिर छा गया था
इस औचक आखेट का अंत
क्या फिर वही होगा
क्या फिर किसी की जीत में
मेरी हार होगी ?

8/23/2006

मैं और मेरी कूची

मुझे चित्रकारी का बहुत शौक था । पहले रंगों में खेलती थी , पेंसिल स्केचेज़ भी खूब बनाये । सीखने की बहुत इच्छा रही पर मौका नहीं मिल पाया ।जब स्कूल में थी तो किताबों और कॉपियों के मार्जिंस पर तरह तरह के चेहरे बनाना पसंदीदा समय निकालने का , वो भी पढाई के वक्त , तरीका था । अब भी मीटिंग्स में , वर्कशॉप में , कॉंफरेंसेस में , लोगों की शक्लें बनाना , मज़ा आता है ।

कई साल पहले बनाये गये अपने दो वाटर कलर पेंटिग्स पेश हैं


water colour village


और ये रहा एक और

water colour solitary house

ये शौक अब छूट सा गया है । कभी खूब सारी छुट्टी मिले तो फिर शुरु किया जाय ।

8/17/2006

छुट्टी के दिन की सोंधी बातें

छुट्टी का दिन था । सुबह सवेरे ही हमने एलान कर दिया था ,'आज हमारे ऊपर अन्न्पूर्णा अवतरित हुई हैं । आज जो भी खाने की इच्छा हो माँगो, आज हमारे मुँह से तथास्तु ही निकलेगा ।'भाई लोग मौका क्यों चूकते । तुरत फ़रमाईश की फ़ेहरिस्त हमें थमा दी गई ।(बाकी के दिनों में तो उन्हें वही खाना होता है जो मैं अपने समय के हिसाब से पकाऊँ ) हर्षिल के लिये बनाना हनी पैनकेक , पाखी के लिये रोटी पित्ज़ा , संतोष के लिये बेसन के चीले । रसोई में प्रवेश करते ही हमारे दो हाथ चार हाथ में तब्दील हो गये ।वाकई अन्न्पूर्णा साक्षात हमारे शरीर में प्रवेश कर चुकीं थीं ।

ऐसा था कि सुबह ही संतोष ने ये कह कर कि आज मैं आराम करूँ और रसोई का कार्यभार वो संभालेंगे , मेरा मन प्रसन्न कर दिया था ।मैं भी अपने कुशल गृहिणि , आदर्श माँ और समर्पित पत्निहोने का मौका कैसे चूकती सो 'वर माँगो वत्स' मोड में आ गई । तीन लोगों के लिये तीन व्यंजन । पर मैं अपनी उदारता और सदाशयता से खुद अभिभोर थी । रसोई के शेल्फ़ में 'पाक कला के बेहतरीननमूने', '१०० प्रकार के अचार','माईक्रोवेव कुकिंग''तरला दलाल के साथ ' जैसी कई किताबें धूल खा रही थीं । उन पर झाड़न चलाई । सिमोन द बोवुआ और जरमेन ग्रीयर को दिमाग से आउट कियाऔर जुट गयी पैनकेक बनाने में ।संतोष को अखबार चैन से पढने छोड़ दिया । आज ये भी नियामत तुम्हारी ।

सुबह का काफ़ी बड़ा हिस्सा जो कि चैन से अखबार पढते , चाय पीते , बात करते बिताया जा सकता था वो अब रसोई की भेंट चढ रहा था ।

"अमूमन हम छुट्टियों के दिन
खूब बातें करते हैं ,
दो तीन दफ़े
चाय का दौर चलता है
फ़िर नाश्ता बनाने किचन में
बात अनवरत चलती है
कटे प्याज़ और भुने पनीर पर ,
सिंकते पराठे और टमाटर की कतली पर ,
नाश्ते की टेबल पर
काँटों और चम्मचों की खनखनाहट
और तश्तरियों और प्यालियों पर
फ़ैलती हुई
अलसाई छुट्टी की बातें
बेपरवाह बातें
अलमस्त बातें

कुछ गंभीर मसले भी
कभी कभार
पर ज्यादातर
अपनी बातें
हँसी की बातें
पसरे हुये दिन की
पसरी हुई बातें "

पर नाश्ते की टेबल पर बच्चों के चेहरे से तृप्ति और हाथों से शहद टपकता देख कर जो तृप्ति मुझे हुई उसको क्या बयान करें । बस सुबह बहुत अच्छा बीता । तब और भी ज्यादा जब बढिया नाश्ते के बाद संतोष ने खूब जानदार कॉफ़ी पिलाई ।

संतोष कई बार मज़ाक में मुझे छेड़ते हुये कहते हैं कि औरतों को बहलाना (इसे पढें ,बेवकूफ़ बनाना ) बड़ा आसान है । सिर्फ़ ये कह भर दो कि फ़लाँ काम , अलाँ काम ,मैं कर दूँगा फ़िर देखो कितनी तत्परता और प्यार से वे उसी काम को बिना शिकायत ,पूरा कर देती हैं । और तुर्रा ये कि खुश भी रहती हैं । मेरा जवाब होता है कि ये सच है । औरतों को खुश करना बड़ा आसान है । सिर्फ़ दो मीठे बोल ही तो चाहिये । पर ये भी हमेशा बिजली की तरह शॉर्ट सप्लाई में ही रहता है,न जाने क्यों । मेरा ये मानना है कि अगर जीवनसाथी को आपकी चिन्ता है तो वो ऐसा कोई काम कैसे कर सकता है जिससे आप को तकलीफ़ हो । आपकी तकलीफ़ और परेशानी उसे कैसे बरदाश्त हो सकती है ।ये बात दोनो तरफ़ लागू होती है । अगर एक दूसरे की चिन्ता में ईमानदारी हो तो उड़ चलें आसमान में ,पँख तो उड़ने के लिये ही हैं न ।जब घर साझा हो तो जिम्मेदारी भी साझी ही होगी ,चाहे घर की हो या बाहर की ।और जो पकती फ़सल काटेंगे उसको भी मिलबाँट कर ही खायेंगे ।

तो अभी मुझे आदेश हुआ है कि मैं लिखने पढने का काम करूँ । किचेन में खूब हँगामा मचा है । दोपहर का खाना पक रहा है ।कुछ जलने की भी बू आ रही है । तीन लोग मिलकर एक व्यंजन बनाने की कोशिश जो कर रहे हैं ।

8/15/2006

महिला मुक्ति ... किससे मुक्ति , कैसी मुक्ति


कभी बड़ा द्वंद मचता है , बड़ी लड़ाई के पहले का गर्दो गुबार , आखिर महिला मुक्ति मोर्चा की सरगना बनूँ या पतिव्रता भारतीय नारी के घूँघट में चैन की साँस लूँ ।

बचपन से माँ को बाहर नौकरी करते जाते देखते आये थे । कॊलेज में सोश्यालजी पढाती थीं । पर घर की सारी जिम्मेदारी उनकी थी । ये अलग बात थी कि कई बारघर के काम के लिये नौकर ,चपरासी रहते पर कई बार ऐसा नहीं भी होता था । पापा कई घरेलू चीज़ों में माँ का बराबरी से हाथ बँटाते पर, खाना बनाना और घर की तमाम अन्य चीज़ों का लेखाजोखा तो माँ का ही था । हमारे घर के हर पुरुष ( पापा , दोनों भाई ) खाना खाने और पकाने के बेहद शौकीन हैं । फ़िर भी उनका ये काम शौक की ही कैटेगरी में आता । बड़े तामझाम से पापा कभी रसोई में आते , माँ को रसोईनिकाला हो जाता और हम सब भाई बहन पापा के असिस्टेंट्स बन जाते ।कुछ बड़ा शानदार लेकिन अजीबोगरीब सी रेसिपी से खाना बनाया जाता । माँ ताकझाँक करतीं , हैरान होतीं , भविष्यवाणी करतीं कि जिस तरीके का खाना पक रहा हैउसे घर का कुत्ता भी न खाये । पर जब खाना पक कर तैयार होता और खाया जाता तो हमसब ,माँ सहित , पापा की पाक कला और कुछ नये तरीके से खाना पकानेकी कला का लोहा मान लेते । बचपन की कई मधुर यादों में से ऐसे कई वाकये मुझे अब तक याद हैं ,उन पकाये खानों की खुश्बू और स्वाद आज भी ज़ुबान और मन कोभिगा जाते हैं ।

पर ये सब भी एक पिकनिक की तरह होता । रोजमर्रा के खाना बनाने और घर की साफ़सफ़ाई जैसा एकरसता भरा काम तो स्त्री के जिम्मे ही हो सकता था । पापा और माँ जिस संस्कार और समाज में पले बढे थे उसमें पापा का इतना करना ही उन्हें एक लिबरल और समझदार जीवन साथी का तमगा आसानी से दिला देता था । पर बावजूद इसके औरतऔर मर्द का रोल परिभाषित था । ये मेरा काम है , ये तुम्हारा । बात सही भी है , डिविशन औफ़ लेबर तो होना ही चाहिये । पुरुष बाहर जाये कमाये परिवार का पोषण करेऔर स्त्री घर देखे , बच्चों की परवरिश करे ।सदियों से चली आ रही इस व्यवस्था की नींव मजबूत भी थी और व्यावहारिक भी ।

परेशानी तो तब शुरु हुई जब इस परिभाषित रोल को उठा कर पटक दिया गया । स्त्री घर की चाहरदीवारी फ़लांग कर बाहर की दुनिया में उड़ने की ज़ुर्रत करने लगी ।तब ये कहा गया, ठीक बाहर कदम रख रही हो पर घर की व्यवस्था में जरा सा भी ढील ...न , बरदाश्त नहीं किया जायेगा ।और औरत जी जान से जुट गई घर को संभालनेमें , बाहर की दुनिया अपने पँखों से छूने की, उड़ने की । भागदौड शुरु हो गई थी और ये तो सिर्फ़ शुरुआत थी । साहब बीबी और गुलाम में रहमान का मीना कुमारी को कहना,'गहने तुड़वाओ , गहने बनवाओ', वाला ऐशो आराम ( उसी ऐशोआराम से छुटकारा पाने की तो सारी जद्दोजहद थी )अब कहाँ ?

हम अभी ट्रांसिशन फ़ेज़ में हैं । हमारी माँओं को फ़िर भी आसानी इस मायने में थी कि उन्हें इस बात की इतनी शिद्दत से कमी महसूस नहीं होती कि पति उन के घर की जिम्मेदारियों मे बराबरी का हिस्सेदार नहीं । एक वजह तो ये भी थी कि घर में उनके मददगार कई थे , संयुक्त परिवार भी और नौकरों की कतार भी आमतौर पर । हमारी पीढी सबसेकठिन दौर में है । संयुक्त परिवार डायनासोर की तरह लुप्त हो गये हैं , घर के काम में मदद के लिये लोग आसानी से नहीं मिलते , ऒफ़िस में अपने को पुरुष की बराबरी या कभीउनसे भी बेहतर साबित करना अब भी जरूरी है ।शायद अगली पीढी इस मामले में हमसे ज्यादा भाग्यशाली साबित हो । जब बाहर अपने को हर वक्त साबित करने की होड न हो ,जब घर में पति "मदद " न करे अपना काम समझ कर हिस्सेदारी करे , जब आज़ादी का मतलब बाहर जाकर नौकरी करना न हो बल्कि आजादी का मतलब चुनाव कीआज़ादी हो कि औरत घर में रहे या बाहर नौकरी करे ।

आज भी हमारे पुरुष प्रधान समाज में अगर कोई पुरुष गाहे बगाहे भी घर में खाना पका दे , बच्चों को कभी कभार देख दे , खासकर तब जब उसकी बीवी नौकरी न करती होतो उस पति के पत्नि को एक भाग्यशाली स्त्री का खिताब मिल जाता है ।अगर बीवी नौकरी कर रही हो तो स्थिति बदल जाती है । पुरुष घर में मदद करने लगता है । स्त्री उसके एहसान के तले दब जाती है । ऐसा अपने आसपास कई घरों में देखा है कि बीवी नौकरी कर रही है पर आर्थिक स्वतंत्रता उसकी नहीं है । उसके काम का दायरा बढा दिया गया है पर फ़ैसले लेने की जवाबदेही का सुख उसका नहीं ।

ऐसी स्थिति में जब अपने घर में नज़र दौड़ाती हूँ तो सुखद आश्चर्य होता है । संतोष की सबसे बड़ी खूबी इस मामले में ये है कि खाना पकाना (संतोष बहुत बढिया खाना पकाते हैं ) या घर का और कोई भी काम ,वो सिर्फ़ मेरा नहीं समझते । अगर मैं दो घँटे किचन में बिताती हूँ तो संतोष अपराधबोध से ग्रसित हो जाते हैं ।उन्हें लगता है कि ऒफ़िस की भागदौड़ के बाद रसोई में फ़िर समय देना मेरे साथ ज्यादती है ।ये और बात है कि खाना पकाना मुझे बहुत अच्छा लगता है । अन्न्पूर्णा की तरह अपने प्रियजनों के लिये स्वादिष्ट भोजन बना कर उन्हें खिलाना बड़ी तप्ति का एहसास दिलाता है । इस मामले में शायद भगवान ने ही हमारे साथ नाइंसाफ़ी करदी है कि ये सब किये बिना हमें चैन नहीं आता । कितना भी बाहरी दुनिया में भागदौड़ करलें घर का सुख बार बार हमें खींच कर अंदर कर देता है ।तो जब तक हमारे मेंटल मेक अप की रीवाईरिंग नहीं होती हम लाचार हैं ट्रेडमील पर दौड़ते रहने के लिये ।

तो आप ही बतायें हमने क्या अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है ? घर से हम छूटना नहीं चाहते , बाहर की दुनिया में अपने आप को साबित करने की उबलब्धि का रस हमने भी चख लिया है । हम जायें तो कहाँ जायें ? शुक्रिया भगवान छोटी बड़ी दयानतदारियों के लिये । शुक्रिया ऐसे जीवनसाथी के लिये जिसके साथ घर और बाहर की दुनिया में सन्तुलन बनाना साथ साथ सीखा है और ये भी सीखा है कि शादी शुदा जीवन , जिम्मेदारियों का सी-सौ नहीं है । संतुलन बीच बीच का बनाया जा सकता है , आसान नहीं लेकिन असंभव भी नहीं । तो कभी जब महिला मुक्ति मोर्चा का सरगना बनना होता है , तब हमारे ऊपर सति सावित्री सवार हो जाती है । जब पतिव्रता पत्नि बनना होता है तो म. मु. म. का विद्रोह गीत फ़ूटने लगता है ।जीवन में बड़ा द्वंद है , कुछ अपना कुछ औरों का ।

फ़िलहाल तो सीज़फ़ायर है लड़ाई के मैदान में ।संतोष की वजह से म. मु .म. ने एक बहुमूल्य सदस्य खो दिया है।

8/12/2006

कुछ तस्वीरें जो मैंने नहीं खींची

ये तस्वीरें भाई की खींची हुई हैं, जब पिछले दिनों वो भारत आया हुआ था ।

DSC_1340

ये फ़ोटो रांची में खींची गई है ।

DSC_1322

ये कुछ और भी

DSC_1356


और एक

DSC_1313

छाया जी , बताये‍ कैसी तस्वीरें हैं ? मैंने नहीं खींची तो क्या

8/10/2006

खिलने दो , खुशबू पहचानो

आज जगदीशजी की "तुम मुझे जन्म तो लेने देते" पढकर अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई ।


खिलने दो , खुशबू पहचानो
आज तुम ,और तुम ,और तुम
कल मैं ,हम सब

क्योंकि मैंने देखा है
नन्हे फेफडों को फफकते हुये
साँस के एक कतरे के लिये
नन्ही मुट्ठियों को
हवा में लहराते लहराते
शाँत गिर जाते हुये

अब कोई किलकरी नहीं गूँजेगी
क्योंकि
चारों ओर लटके हैं बेताल
उलटे वृक्षों पर
शिशु कन्याओं के रूदन से
भरा है रात का सन्नाटा

ये अभिशप्त हैं पैदा होते ही
मर जाने को
या फिर ख्यालों में ही
दम घोंटे जाने को
और अगर इस धरती पर
आ भी गये
तो अभिशप्त हैं तिलतिल कर
रोज़ मरने को

हँसी की कोई आवाज़ नहीं गूँजेगी
कोई छोटे हाथ ,फूलों के हार
नहीं गूँथेंगे
तुम्हारे लिये
क्योंकि
अब अभिशप्त वो नहीं
तुम हो
एक मरुभूमि में जीने को

इसलिये एक मौका और दो
अपने को ,जीने के लिये
खिलने दो , खुशबू पहचानो


(शिशु कन्याओं की भ्रूण हत्या के विरोध में एक छोटी सी आवाज़ मेरी भी)