8/10/2006

खिलने दो , खुशबू पहचानो

आज जगदीशजी की "तुम मुझे जन्म तो लेने देते" पढकर अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई ।


खिलने दो , खुशबू पहचानो
आज तुम ,और तुम ,और तुम
कल मैं ,हम सब

क्योंकि मैंने देखा है
नन्हे फेफडों को फफकते हुये
साँस के एक कतरे के लिये
नन्ही मुट्ठियों को
हवा में लहराते लहराते
शाँत गिर जाते हुये

अब कोई किलकरी नहीं गूँजेगी
क्योंकि
चारों ओर लटके हैं बेताल
उलटे वृक्षों पर
शिशु कन्याओं के रूदन से
भरा है रात का सन्नाटा

ये अभिशप्त हैं पैदा होते ही
मर जाने को
या फिर ख्यालों में ही
दम घोंटे जाने को
और अगर इस धरती पर
आ भी गये
तो अभिशप्त हैं तिलतिल कर
रोज़ मरने को

हँसी की कोई आवाज़ नहीं गूँजेगी
कोई छोटे हाथ ,फूलों के हार
नहीं गूँथेंगे
तुम्हारे लिये
क्योंकि
अब अभिशप्त वो नहीं
तुम हो
एक मरुभूमि में जीने को

इसलिये एक मौका और दो
अपने को ,जीने के लिये
खिलने दो , खुशबू पहचानो


(शिशु कन्याओं की भ्रूण हत्या के विरोध में एक छोटी सी आवाज़ मेरी भी)

6 comments:

  1. "हँसी की कोई आवाज़ नहीं गूँजेगी
    कोई छोटे हाथ ,फूलों के हार
    नहीं गूँथेंगे
    तुम्हारे लिये
    क्योंकि
    अब अभिशप्त वो नहीं
    तुम हो
    एक मरुभूमि में जीने को"
    जब तक यह बात समझ आये बहुत देर ना हो चुकी हो। :-(

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  2. अत्यंत भावुक कर देने वाली इस कविता के लिए प्रत्यक्षा जी को हार्दिक धन्यवाद. एक स्त्री की वेदना को आप हमसे अच्छी तरह से समझ सकती हैं. स्त्री विमर्श पर आप और भी लिखें ज़रूर. ईश्वर कन्याभ्रूण हत्या करने वालों को सद्बुद्धि दे.

    कविता के लिए कोटिशः धन्यवाद... मेरी आंखें नम हो गईं.

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  3. बहुत मार्मिक एवं भावुक रचना.

    समीर लाल

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  4. सुबह सुबह सेंटी कर दिया आपने यार
    भावुक कर देने वाली कविता
    धन्यवाद

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  5. Anonymous5:49 pm

    कविता बढ़िया लगी। इतनी बढ़िया कि हमें लगा कि हम भी अपनी पुरानी कविता पढ़ा दें जो हमने कभी लिखी थी महिलाओं के बारे में सोचते हुये। कविता पढ़िये-ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।

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  6. Anonymous10:59 pm

    पुरानी कवीताऊँ मे बहुत जान है :) - शेर करने के लिए आपका धन्यवाद

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