दिन में बड़ी मेज़ पर पोस्टर्स और कागज़ फैलाये मैं धूप पीती हूँ । बारीक महीन इलस्ट्रेशंज़ । मेरे पास दो महीने का समय है । उसके मन्यूस्क्रिप्ट के शब्दों को मैं जीभ पर घुलते महसूस करती हूँ । हर शब्द के अर्थ तीन चार । तलाशती हूँ गुप्त संकेत । शब्दों और वाक्यों के ऊपरी मायने के भीतर बहती नदी जो सिर्फ मेरे लिये कही गई है । उन अर्थों के संदर्भ खोजती हूँ ।
उस दिन मैंने कहा था जाना चाहती हूँ कहीं अज़रबैजान ,या पेरू या फिर काहिरा की किन्हीं तंग गलियों में ।
उस दिन उसने लिखा था उस लड़की की कहानी जो कहीं नहीं जाती , जो सिर्फ पूरा जीवन एक जगह बिताती है ।
फिर कहा था मैंने , छिटके हुये धूप में उदास रंग और उदास क्यों लगते हैं ?
उस दिन उसने लिखा था .. रंग रंग होते हैं । वॉन गॉग के उस कमरे की बात की थी जहाँ रंग चटक धूप से खिलते थे किसी ख्वाब में ।
फिर उसने कहा था , सुनो मैं 'के' से ज़रा ज़रा नफरत करता हूँ ।
और मैंने सुना था , सुनो मैं 'के' को अब भी नहीं भूल पाया हूँ ।
फिर उसने कहा था ये इलस्ट्र्शंज़ अगर सही न बने मैं इन्हें फेंक दूँगा ।
मैंने कहा था जहन्नुम में जाओ ।
शाम को उसने फोन किया था ।
मैंने पूछा था , कहाँ ?
उसने कहा था वहीं जहाँ तुमने मुझे भेजा था .. जहन्नुम में ।
उसके आवाज़ की हँसी मुझे लहका गई थी । उसने फोन रख दिया था । मैंने फोन बहुत देर तक नहीं रखा था । उस दिन मैंने ढेर सारे स्केचेज़ बनाये थे । हैरान भौंचक लड़के की , एक कतार में तालाब के किनारे चलते बत्तखों की , जंगल के छोर पर एक अकेले घर की , मूड़ी निकाले कछुये की , दौड़ते चूहों की और अंत में दो आँखें बस । मेरी उँगलियाँ तड़क रही थीं । रात के बारह बजते थे । मैंने उसे फोन किया था ..
सुनो आ जाओ ।
उसने कहा , क्यों ? मैंने कहा, इसलिये कि मेरी गर्दन दुखती है , मेरी पीठ अकड़ती है , आ जाओ ।
मेरी आवाज़ की अकड़ खत्म हो गई थी । उसने फोन रख दिया था । मैं सो गई थी ..थकी नींद में ।
एक फिल्म याद आ गयी....जिसमे एक पेंटर एक साथ दो औरतो को प्यार करता है .....
ReplyDeleteआपकी कहानी पढ़ी थी.....पर इसका अंत मुझे अच्छा लगा....
ऊपर पेंटिंग आपकी ही है शायद .....
pyaar ke rangon ki achchi chata bikheri...milat khilat reejhat khisat ...
ReplyDeleteहैरान भौंचक लड़के ने...जीभ पर कुछ घुलता महसूस किया हो शायद...
ReplyDeleteबेहतर....
padh kar anand mila ...bahut suder... badhayee!
ReplyDeleteबेहतरीन!
ReplyDeleteफिर उसने कहा था , सुनो मैं 'के' से ज़रा ज़रा नफरत करता हूँ ।
ReplyDeleteऔर मैंने सुना था , सुनो मैं 'के' को अब भी नहीं भूल पाया हूँ
sundar hai, rishton ko is tarah samjhna ... aur phir kahani ka ant ...manushya kitna bhi khud ko articulate karne ke bahane kare ... kitna kuch unarticulated choot hi jata hai... kya koi ise samajh sakta hai?
पहले बरपकी पूरी कहानी पढते हैं फिर कमेंटियायेंगें ...
ReplyDeleteBAHUT SUNDAR
ReplyDeleteकुछ रिश्ते बडे अजीब होते है... कभी कभी वो, वो सब कुछ सुन लेते है जो वो कहते ही नही और कभी कभी वो सब कुछ कह देते है जो उन्हे सुनना भी नही चाहिये..
ReplyDeleteथकी नींद मे अक्सर आवाज की अकड़ कम होती जाती है जैसे किसी नशे की खुमारी चढती जाती हो और धीरे धीरे इन्सान ओरिजिनल बनता जाता हो...
दोनो के बीच का अनकहा सम्वाद पसन्द आया और कही गयी चीज़े तो बेहतरीन हैं ही..
kafi arse baad aapke blog par aaya aur ni:shabd hokar laut raha hu hamesha ki tarah..... kahne ke liye aap kaha kuch baki rakhti hain jo rakhti hai bas meh-susne ke liye hi to rakhti hain....
ReplyDeleteaur is mehsusne ke bad kuchh kahne ke layak kaha rah jata hai insan yaha
लेखन शैली में आते सकारत्मक बदलाव का संकेत देती, प्यार के अनछुए एहसास को उकेरती, सफल अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबस ?
ReplyDelete... आगे ?
अतिसुंदर! पूरी पढ्वाओ ना!.
ReplyDeleteआपको पढना एक खुशनुमा अनुभव है. बहुत से रंगों को अपने में संजोई हुई पोस्ट के साथ एक बेहतरीन चित्र भी देखना अच्छा लगता है.
ReplyDeleteमैं चित्रकला का विद्यार्थी नहीं हूँ पर इसपर बहुत पढ़ चुका हूँ. यकीन मानें, आज पहली बार मतीस(मैं इसे मातीस पढता हूँ) का नाम हिंदी में लिखा देखा है. मतीस से कितने अनभिज्ञ हैं हिंदी/अंग्रेजी जगत के पाठक. सबके लिए पिकासो ही सब कुछ है. वह ऐसा प्रेत है जो बीसवीं शताब्दी के परिमंडल पर ऐसा सवार हुआ की अब शायद ही कभी उतरे. खैर...
आप चित्र हमेशा छोटा ही क्यों लगतीं हैं. सच मानें, चित्रों को बड़ा लगाने पर भी आपका कथ्य दबेगा नहीं. बाकी आपकी मर्जी. :)
कहानी पूरी पढ़ना है ..ये आधी-अधूरी ,ये क्या बात हुई .
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