2/06/2009

ओ लाल मेरी पत रखियो ...


दिन गुज़रता है , दीवार पर हिलते काँपते सिमटती छाया , साया गुज़र जाता है आसपास , रात बीतती नहीं , आँखों में सपना बीत जाता है । आग के फूल रेगिस्तान में उगते हैं , पैर के तलवे फटते हैं , सफर होता नहीं खत्म , दिन बीतता है , बीतती है साँस और छाती पर हर रोज़ जमता है , फिर रात होते पिघलता है अँधेरा , ऐसे ही .. ऐसे ही

रात के अँधेरे में मेज़ पर एक गोल टुकड़ा रौशनी का उगता है धीरे से । स्याही की शीशी , फाउंटेन पेन और कॉपी और किताब के बीच रखी चिट्ठी , एक पोस्टकार्ड सुघड़ अक्षरों में । चाय की प्याली पर हल्दी के निशान और टूटा एक कोना । लकड़ी की कंघी जो खरीदी थी पिछले दफे दो सौ रुपये में दस्तकार बाज़ार से और कितने अल्लम गल्लम चिड़िया पक्षी फुदने गुदने सब देखा था । गाता था पीछे से ..ओ लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण ... सिन्दरी दा सेवण दा सखी शाबाज़ कलन्दर ...

उसकी आवाज़ में शहद घुला था । उतना ही जितना आँखों की पुतलियों में था । गाढ़ा नशीला । आवाज़ ऐसे गमक के साथ उठती थी कि दिल तक फँसा कर खींच ले जाये । तान मुरकियाँ बारीक कभी घनेरी । पान के पत्ते पर खुशबूदार सुपारी का छल्ला । सुन कर दिल लटपटा जाये , ज़ुबान की औकात क्या ।

बंजारों की टोली रातोंरात उठ गई । खिड़की से झाँकता देखता है , चाँद के पिछवाड़े टप्परगाड़ी पर असबाब लादे भूतिया टोली विलीन होती है , शायद जाने कब की पढ़ी किसी किताब के पन्ने पर या फिर किसी सपना कल्पना में । लौटता है , फिर फिर लौटता है , छूता है किताब के पन्नों को , सूँघता है दिन को , चहक पहक रोता है मन ही मन सोचता है , जाने क्या देखता है ,उन आँखों से ? जाने क्या देखता है ..

15 comments:

  1. वाह! आपने तो गद्यागीतों की यादा दिला दी.

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  2. बहुत बढ़िया इसे तो कविता की श्रेणी में भी ला खड़ा किया जा सकता है!

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  3. कुछ कोहरा सा ..
    कुछ रेगिस्तान में पानी की बूंद जैसा ...

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  4. घने कोहरे को हटाने की कोशिश करती हूँ। एक एक शब्द के साथ, कोहरा हटता जाता है, और सोचती हूँ कि अब शायद गोल सूरज की रोशनी चीर कर पहुँच जायेगी मुझ तक, या मैं ही पहुँच जाउँगी उस तक...पर अभी भी कोहरा है कुछ, झीना सा....फिर शब्द बुला रहे हैं आपके...एक बार, बार बार...कितनी बार पढ़ूँ?

    आपका हर लिखा भाता है....

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  5. सुन्दर-निर्मल!

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  6. बहुत सुंदर लिखा...

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  7. वाह ... संयोग ... कि शब्दों का सफर में भी इन दिनों सूफी श्रंखला ही चल रही है...

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  8. गर फोटो न डालती तो खाका खीच जाता दिमाग में......

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  9. शब्दोँ की सरगम पर बाजे मन की तान या किसी खानाबदोश की आवाज़ मेँ डूबा दर्द से भरा गीत
    प्रत्यक्षा की लेखनी है ये ...
    जो दिल की आवाज़ है !
    बहुत स्नेह सहित,
    - लावण्या

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  10. प्रत्यक्षा जी,
    बहुत अच्छा शब्द चित्र .खास कर आखिरी पराग्रफ
    बहुत काम्पैक्ट लिखा गया है.
    हेमंत कुमार

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  11. mujhe talash nahi hai, magar wo milti hai.

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  12. सुन कर दिल लटपटा जाये , ज़ुबान की औकात क्या ।

    ab kya kahu.n

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  13. खूबसूरत प्रविष्टि. सत्य ही प्रत्यक्ष हो गया सब कुछ जैसे.

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  14. वाह.......... बेहतरीन ......

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  15. aap ki kavitayen padhna chahta hoon

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