1/29/2008

सचमुच क्या फर्क पड़ता है ?

सारे मसले पर इतिश्री कह दिया था लेकिन फिर प्रियंकर जी की टिप्पणी आई , सुबह ज्ञानजी के ब्लॉग पर “अपने पक्ष” में द्विवेदी जी के पोस्ट का ज़िक्र देखा ,तो जो पत्र मेल कर रही थी उसे ही यहाँ डाल देने की इच्छा हुई । बारबार उसी हैकनीड मसले पर कितनी दोहरावन की जाय । इतनी उर्ज़ा किसके पास .......


प्रियंकर कहते हैं......


सिएटल स्पीच एक अनिवार्य पाठ है . धन्यवाद!

"चूँकि पढ़ते हैं ,लिखते हैं , नौकरी करते हैं , घर चलाते हैं , खाना पकाते हैं , सोचते हैं ...."

इन सभी में 'नौकरी करते हैं'(यानी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं),यह तथ्य बहुत मार्के का है क्योंकि बाकी चीज़ें इससे जुड़ी हुई हैं और इससे बल-समर्थन पाती हैं. जो आपके केस में है और रीता जी के मामले में नहीं है . रीता जी ने अपने को उसी पारम्परिक रूप में ढाला है और ज्ञान जी ने उसे उसी संरचना में स्वीकार किया है .मैं इसमें हड़बड़ी में सिद्धांत ठेलने से बचना चाहूंगा . यह जानते हुए भी कि अगर रीता जी आपकी स्थिति में होतीं तो बहुत सम्भव है ज्ञान जी अपनी खिचड़ी के अलावा न केवल उनकी पसंद की कॉफ़ी बनाना जानते होते, वरन बना कर पिला भी रहे होते और तब कॉफ़ी के साथ नेरुदा-फेलूदा(सत्यजित रे वाले) पर बहस भी हो रही होती जो अगर करनी हो तो शायद खिचड़ी के साथ भी सम्भव है . और बकलम ज्ञान जी होती है .

फिलहाल जो है सामने हैं . और ज्ञान जी के बताने पर ही सामने है किसी तहलका का रहस्योद्घाटन नहीं है . पर छिटपुट उदाहरणों से सिद्धांत गढने,सोच बनाने और उतावले होकर सिद्धांतों की ठसक के चलते एकांगी उदाहरणों के आधार पर 'वैल्यू जजमेंट' देने के अपने खतरे हैं . एक अबाबील के आने से इतनी गर्मी नहीं पड़ने लगती कि सबको खस-खस की टट्टी लगाने का फरमान जारी कर दिया जाए,और न लगाने पर बिरादरीबाहर और द्रोही मान लिया जाए .

लगता है गुस्सा अच्छे लिक्खाड़ों की नाक पर धरा रहता है. उधर प्रमोद पंचलैट की माफ़िक सन्ना रहे हैं,इधर आप . और अभय हैं कि 'जेंटलमैनी' के सर्टीफ़िकेट की चौतरफा बौछार में भीगे-दबे जा रहे हैं .
आलोचना-समालोचना अच्छी चीज़ है पर अगर उससे ऐसा संदेश जाने लगे कि तेली का तेल जल रहा है और मशालची का दिल तो बहस व्यर्थता की कीच में फंस कर रह जाती है और ऐसे में इच्छित संदेश भोथरा हो जाता है .

क्या प्रमोद का,अभय का,ज्ञानजी का या आपका लिखा पढते समय और उस पर मुग्ध होते समय आपका ज़ेंडर मेरे माथे में होता है ? है ।






मेरा कहा......


प्रियंकरजी

आपकी टिप्पणी का सार्वजनिक जवाब न दे कर मेल कर रही हूँ इसलिये कि इस मसले पर अननेसेसरिली बहुत कुछ कहा गया । खेद इस बात की हुई कि जो महीन सट्ल बात थी कोर पर, उसका अनदेखा करना कई लोगों द्वारा आश्चर्य पैदा नहीं करता लेकिन आप भी ? सच बात है कि ज्ञानजी के पोस्ट पर जितना क्षोभ मुझे आपके कमेंट से हुआ उतना ज्ञानजी के पोस्ट से भी नहीं । ब्लॉगजगत में ऐसे लोग बहुत कम संख्या में हैं जिनके विचारों का मैं सम्मान करती हूँ और जब किसी ऐसे क्वाटर से आपकी अपेक्षा पूरी न उतरती हो तब तकलीफ होती है ।

उस पोस्ट में , जैसा कि मैंने पहले भी कहा ज्ञानजी और रीताजी का जाति मामला है कि वे कितनी भागीदारी और बराबरी से जीवन चला रहे हैं । लेकिन जब वो यह कहते हैं कि किसी स्त्री के नेरूदा पढ़ने से उन्हें भय होता , जो उनकी समझ अनुसार बेसिक संरचना है परिवार की , और जो स्त्री की जगह है उनकी निगाह में , और पढ़ लिखकर स्त्री अपने बेसिक ड्यूटी ( खाना बनाना) भूल जाये ... मुझे उससे आपत्ति थी । पहले भी उनके ऐसे ही रवैये वाले किसी पोस्ट के विरोध में मैंने लिखा था । तो कोई एक अबाबील तो नहीं ही है । और फिर बिरादरी के बाहर और द्रोही किसे करार दिया जा रहा ?

किसी के परिवारिक निजी जीवन से मुझे क्या मतलब । लेकिन औरत की जगह सिर्फ रसोई में है ऐसा कहने वालों के खिलाफ प्रोटेस्ट दर्ज़ करना मुझे ज़रूरी लगा । आर्थिक आत्मनिर्भरता औरतों के समान आधिकारों को सुगम करता है लेकिन सेफ पैसेज एंश्योर करे ऐसा अमूमन नहीं होता , इतना आप भी वाकिफ होंगे (इसके बारे में विस्तार से अगली बार , बहुत उलझा हुआ मसला है)। सदियों से पितृसत्तात्मक समाज में चलता आया पुरुष वर्चस्व सिर्फ मेरे एक पोस्ट लिखने से क्या बदल देगा लेकिन अगर कोई पैराडाईम शिफ्ट होना है कभी तो छोटे छोटे अनगिनत कदमों की ज़रूरत पड़ेगी । वैसे मानसिकता में कितना बदलाव आया है ये उस पोस्ट और उस पर आये स्त्री पुरुष टिप्पणियों से साफ ज़ाहिर होता है ।उसमें आप मेरे एक विरोध के स्वर तक को खारिज़ कर रहे हैं ? अभय ने तो बेमतलब और हास्यास्पद साबित किया ही है ।इस कोरस गान में एक बेसुरा सुर मात्र ?

आपने सही कहा जो है सामने है ,कोई तहलका रहस्योदघाटन नहीं और इतना साफ सामने इस लिये भी रखा गया क्योंकि ज्ञानजी शायद अपने को उदार सहिष्णु पुरुष समझते हैं (शायद रीताजी भी)। कोई बेजा बात कह रहे हैं इसका भान भी नहीं । तब भी नहीं जब उनकी अपेक्षा तनु से पढ़ाई की बजाय अच्छी खिचड़ी के अभय गुणगान की उम्मीदों से है और इस बात का भय कि अगर वो पढ़ती है तो खाना कौन बनाता है ? ऐसा उन्होंने कहा तो क्या गलत कहा । फॉरगिव हिम फॉर ही नोज़ नॉट वाट ही सेज़ ? लेकिन आप और अभय ? जो शायद सब जानते और समझते हैं ? ऐसी बातों पर मेल फ्रटरनिटी वाली सहोदरता काम आती है ? या अपनी पारिवारिक सहूलियतों की पक्षधरता ? आखिर कौन नहीं चाहता कि पत्नी कामकाजी या होममेकर , आपको घरेलू जंजालों से मुक्त रखे ताकि आप नेरूदा फेलूदा पढ़ते रहें ? आपकी इच्छायें ? और स्त्री की इच्छायें ? मैं ये चाहती हूँ ..तक भी कहने न दें ? आप कहेंगे मैं उदार हूँ , मैंने पत्नी को समान अधिकार दिया है । इस “दिया” शब्द से कभी परेशानी होती है ? नहीं होती क्योंकि आप आत्ममुग्धता में नहाये हैं कि मैं कितना प्रोग्रेसिव हूँ .. न सिर्फ बोलता हूँ , करता भी हूँ ।

माफ करें ... इस विषय पर सोचा था ठंडे दिमाग से अपनी बात कहूँगी । वो होता नहीं दीख रहा । शायद संभव भी नहीं । पुरुषों की भी गलती नहीं । जो इज़ीली अवेलेबल है उसे क्यों छोडें और जो स्त्रियाँ कभी अपनी उदारता में और कभी घुट्टी में पिलाये संस्कारों के दबाव में (कामकाजी होने न होने के बावज़ूद) दे रही हैं उस ऐपल कार्ट को क्यों हिलायें।यहाँ प्यार , स्नेह, कंसर्न में एक दूसरे के लिये किये गये बातों के परे उन इशूज़ की बात कर रही हूँ जो अंडर प्रेशर , अपने को तकलीफ में डाल कर दूसरे के लिये किया जाता है । मैं भी कोई तहलका नहीं कर रही सिर्फ जो है , जिसकी जानकारी आपको ,ज्ञानजी को या द्विवेदी जी को (अभी उनका पोस्ट पढ़ा जहाँ उन्होंने भी वही गलती दोहराई है कि मुझे रीताजी के चाय बनाने पर आपत्ति है । आश्चर्य होता है सचमुच कि कोर इशू को किस तरह ट्विस्ट किया गया , समझ को तो मैं क्वेश्चन नहीं करती ) है , उसे सामने एक बार फिर ला रही हूँ ।

आप बड़े मुद्दों पर सार्थक बहस छेड़ें । ये तो खैर मुद्दा तक भी नहीं कि उर्ज़ा नष्ट की जाये । आप मेरा लिखा पढ़ते हैं बिना जेंडर देखे....शुक्रिया । लेकिन मुझे अब डर होता है कि कोई ये प्रश्न न उठाये कि आप लिखती हैं फिर खाना कौन बनाता है ?

ब्लॉग दुनिया हमारे समाज का ही एक माईक्रोकोस्म है ।जो समाज में व्याप्त है वही न सिर्फ दिखा रहा है बल्कि करतल ध्वनि के साथ ग्लोरीफाई भी कर रहा है । ब्लॉगजगत से मेरी किसी भी दूसरी अपेक्षायें कितनी निरर्थक हैं इसका प्रमाण खोजने का भोंडा प्रयास न करूँ सो ही सही है । मेरी बातों को अन्यथा न लेंगे । आपके लिखे के प्रति एक रिगार्ड है जिसने इतना सब लिखवा दिया मुझसे । बहुत बातें हैं .. ढकी छिपी ही ठीक रहती हैं । कोई कोना उघाड़ कर अंदर की गंदगी प्रगट कर दूँ ,वहाँ जहाँ कोई वैली ऑफ द ब्लाईंड्स है , ऐसी बेवकूफियाँ बार बार नहीं करूँगी ।

प्रत्यक्षा

15 comments:

  1. शाबाश प्रत्यक्षा, जो मसले औरत कंधे झटक कर जाने दो के तौर पर तय करती है उन पर कोई झाड़ लगाए तो बड़ी खुशी होती है।

    कभी तुम्हारे लिखे पर टिप्पणी नहीं की यह सोचकर कि वो तो लिखती ही अच्छा है और जानती है उसको प्रोत्साहन की ज़रूरत नहीं पर भई बहुत दिन हो गए एक कहानी तो बनती है तो हो जाए एक धमाकेदार? लिखती रहो ऐसे ही...

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  2. excellent pratyaksha you have voiced our opinion well
    and i wish all woman would stand up together and at least from blogging wipe out this gender difference . no woman should accept any award or appreciatio if it comes to them for being a woman . and no woman should aceptr any detrogatey remark for any other woman .
    we have freedom but we all need to liberate ourselfs

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  3. मुझ से कुछ तो भूल हुई है जो अभी मुझे समझ नहीं आ रही.. अपनी समझ से तो मैंने आप के लिखे पर सवाल नहीं उठाया था बल्कि समर्थन किया था.. लेकिन आप को मेरा उस तरह से सफ़ाई देना ही बेमतलब और हास्यास्पद लगा.. आप मुझे एम सी पी कह तो नहीं रही पर मेल फ़्रटेर्निटी के सद्स्य होने का आरोप भी लगा रही हैं.. और प्रोग्रेसिवपन की आत्ममुग्धता में नहाए होने का भी..
    बहुत तरह से आप को जवाब लिखने की कोशिश की.. पर डिलीट कर दिया.. बस इतना लिखता हूँ कि आप ने जो लिखा उस से तो मैं बिलकुल सहमत था और हूँ..
    हो सकता है मेरे भीतर एक जेंटलमैन बनने की दबी-कुचली चाहत हो.. जो मुझसे ऐसी बेमतलब व हास्यास्पद चीज़ें करवाती हो.. उसके प्रति सचेत हो कर भविष्य में ऐसी मूर्खताओं से बचने का प्रयास करूँगा..

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  4. प्रत्यक्षा इस रूख को कायम रखना। वक्त के साथ समझौते तो बहुत करते हैं पर वक्त को अपने हिसाब से चलाते रहना..............

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  5. मेरी टिप्पणी वही है या वैसी ही है जैसी पिछ्ली बार थी...बदल रहा हूँ...शायद.

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  6. कोई जैसा है, वैसा ही बना रहे, अपनी बला से। सुधरे या न सुधरे, या और भी रच-बन जाए, अपनी बला से। लेकिन उसकी नजर में अच्छे बने रहने के लिए अब हम यह तो नहीं कह सकते कि हां जी भाई साहब, वैसे तो पृथ्वी सूरज के चौगिर्द घूमती है, लेकिन कभी-कभी शायद सूरज भी पृथ्वी के चारों ओर घूम जाता हो, या शायद कहीं कुछ भी न घूमता हो, यह सब सिर्फ माया हो। ऐसी हीला-हवाली करके, या बुद्धिमत्तापूर्ण चुप लगाकर अच्छी बन जाने की कोई कोशिश नहीं की, अच्छा किया। स्वतंत्र स्त्री व्यक्तित्व के इस स्पष्ट, विनम्र, वस्तुगत आग्रह को किसी ने सुना, नहीं सुना, माना, नहीं माना, निंदा की, प्रशंसा की या कुछ गोलमोल बुदबुदा कर रह गया, जो भी किया, करता रहे, अपनी बला से।

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  7. ये हुई न बात. सटीक जवाब पढ़ कर तबियत खुश हो गई. बस यह देखना चाहता हं कि आप अपना स्‍टैंड बदलती तो नहीं हैं?

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  8. आपकी बात जायज है और चिन्ताएं सच्ची . अतः इस मुद्दे पर आपका 'पैशनेट' होकर प्रतिवाद करना भला ही लग रहा है . और सहमति की गुंजाइश ही ज्यादा दिख रही है . इधर बहस की शैली ऐसी हो चली है कि अब ऐसा कम ही होता है जब किसी मुद्दे पर वैचारिक विरोध में खड़ा साथी आपको पहले जैसा ही प्रिय और आत्मीय लगता रहे . पर इस बहस में ऐसा लगा,इसके लिए आभारी हूं .

    ज्ञानजी की पोस्ट को मैंने पूरी तरह अलग 'प्लेन' पर लिया . उसमें वह नहीं देखा या देख पाया जो आप देख सकीं . हो सकता है यह मेरे पुरुष होने का अनिवार्य और 'इनबिल्ट' दोष हो या फिर मन का यह विश्वास कि ज्ञान जी जैसा आदमी स्त्रियों के बारे में इस तरह सोच ही नहीं सकता . मुझे इस बारे में पक्का नहीं पता . पर यह सच है कि मैं ज्ञानजी की पोस्ट में वह सब नहीं देख सका जो आपने देखा . शायद मेरे पैर में बिवाई नहीं फटी सो पराई पीर का सही अंदाजा ही नहीं है मुझे .

    मैंने उस चुहलभरी पोस्ट को ज्ञानजी और अभय के बीच की आत्मीयता और अंतरंगता के आलोक में ही देखा . शायद अभय के शालीन जवाब ने भी इस धारणा को आधार उपलब्ध कराया . हमेशा बहुत सही देखता हूं इसका कोई मुगालता मुझे नहीं है, पर गलत समझा इस नतीजे पर भी कोशिश करके ही पहुंच पाऊंगा,आप सब के विरोध के मद्देनज़र .

    मुझे स्त्री-विरोधी या स्त्री से जुड़े मुद्दों के प्रति असंवेदनशील न समझें और अपनी चिन्ताओं में शरीक समझें, बस इतना-सा अनुरोध है .

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  9. अच्‍छा? ऐसे? ओहो!

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  10. हां, पहले कमेंट नहीं कर सका माफ़ी चाहता हूं.. अपने विचार दुरुस्‍त करने व पत्‍नी के लिए दवा ढूंढ़ने निकला था.. अब मिल गया है (पता नहीं विचार है या दवा).. थोड़ा स्‍वस्‍थ हो जाए (पतनी या मेरे विचार व्‍हाटेवर) फिर बात करता हूं.. व्‍हाटेवर..

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  11. पता नहीं मुझे इन बहसों की खबर क्यों नहीं रहती। उस दिन आपके ब्लाग पर आपका लिखा पढ़ा तो ताज्जब हुआ। कमेंट नहीं जा रहा था , सो चैट बाक्स में ही लिख कर आ गया। आज अभय जी से किसी और विषय में बात हो रही थी,मगर वो कुछ और ही कह रहे थे। चिन्तित थे कि प्रत्यक्षा नाराज़ हैं। पूछा तो इस सिलसिले का पता चला।
    आपने अपनी बात अच्छे ढंग से कही है और जायज़ है। अभयजी और प्रियंकर जी के जवाब भी मुझे तो आश्वस्त करते हैं, जो वे कहना चाहते हैं।
    मैं आप लोगों जितना बौद्धिक तो नहीं हूं मगर इतना ज़रूर कहूंगा कि अनजाने में ही सही आपको बुरा अगर लगा है तो किन्हीं कोनों से भी कुछ थमी साँसें कह रही होंगी कि अरे, ऐसा तो नहीं होना था।

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  12. bravo - very true - regards manish

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  13. Anonymous10:43 am

    प्रत्यक्षा के चिंतन को ले कर जो वाद विवाद हुआ उस का नतीजा है हैं ये पोस्ट

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  14. @पूर्णिमा जी .. हम साथ हैं ये पता है मुझे , फिर भी आपका फिर से कहना खुशी दे गया

    @रचना जी ..एकदम सही ..हमें जो हमारा है उसे सिर्फ पहचानना भर है

    @अभय ..अपका प्रोग्रेसरिपोर्ट मैं ही बनाउँगी :-), बाकी बातें फिर कभी

    @अनुराधा ... कोशिश निरंतर है .. रहेगी ..और आप भी ..

    @काकेश .. सही रास्ते जा रहे हैं

    @चन्द्रभूषण... समझने के लिये ... शुक्रिया !

    @संजय... मेरे लिये ये बहुत मुश्किल नहीं ..कम से कम इस मामले में तो

    @प्रियंकर... दे अल्सो सर्व हू स्टैंड ऐंड वेट वाली नीति नहीं ...पर आपका नाम नोट किया .. जायज चिंताओं को आपने समझा ..आभार । फिर स्वीकार करने में कोशिश कैसी ? और आपसे बहस का भी एक मज़ा है ..उम्मीद है आगे भी सार्थक चर्चा होगी ।

    @प्रमोद ... इस मसले पर आपका क्षोभ और आपका सपोर्ट बेहद अच्छा लगा । हाँ सर्चलाईट से आशा है कुछ आँखें ज़रूर चौंधियाई होंगी । आपने रौशनी तेज़ की .. फिर कभी अँधेरे में ज़रूरत पड़े

    @अजित ..ऐसा नहीं होना था ... काफी है अभी के लिये लेकिन आगे इससे ज़्यादा की दरकार होगी । आप हैं न ?

    @जोशिम ... काफिले में जुड़ने के लिये शुक्रिया ।

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  15. ये प्रमोद उत्प्रेरक किस्म के खुराफ़ाती जीव हैं . पर अब चूंकि अब इस 'मेक' के खुराफ़ाती 'रेयरेस्ट ऑव द रेयर' हैं सो हम उनकी इस 'इस्टाइल' पर भी फ़िदा रहते हुए फ़िदाई बने हुए हैं .

    एक पंक्ति की उत्तेजक टिप्पणी से मुर्दा बहस में भी जान डाल देना उनकी 'इस्टाइल'है. बल्कि मेरा तो यह भी मानना है कि वे कोशिश करें तो मुर्दे में भी जान डाल सकते हैं . बहुत ऐयार किस्म का आदमी है यह और इनका तिलस्म समझना हरेक के बस की बात नहीं .

    इनमें एक पोस्ट-मॉडर्निस्ट किस्म की ठकुरास है . हथियार डालते हुए को भी यह आदमी चुहलभरी चपत मार सकता है और 'विंक' करते हुए कह सकता है कि शाबासी दे रहा था .

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