1/22/2008

कोयलिया मत कर पुकार

बजेगा नगाडा कोई कहीं दूर पास धक्क से । पिघल जायेगी तरल तरल कोई नदी , कई शिलायें बर्फ की ? फूटती है जैसे अल्ल सुबह कोई हरे खिच्चे पत्तों में बन्द ओस । और ठीक उसी वक्त , बस ठीक उसी वक्त वही वही स्वर निकलेगा उस पुराने ग्रामोफोन से । सुर और ताल के टेढे मेढे रास्ते तय करता फिसल आयेगा गले से नीचे किसी नस के सहारे ,धमनियों में , गाढे मीठे शहद सा । कोई गीत बजेगा रात भर गले की हड्डियों के सुबुक गड्ढे में । हर उठती गिरती थरथराती साँस के साथ टिका होगा बस जीभ के नोक पर ज़बान तक पहुँचने के बस ज़रा सा पहले । शब्द , धुन सब बिसराये से किसी पुरानी चोट का भूला हुआ दर्द जो टीस न मारे । स्मृतियाँ किसी मार्चिंग सॉंग की धुन पर बहकेंगी मचलेंगी इठलायेंगी । हटाओगे उन्हें फिर किस बेरहमी से ? आह कितनी भीतरघुन्नी कैसे समेट रखा हिफाज़त से ।अब देखो कोई कोना उघड़ेगा बस इतनी सी बात फिर सब होगा जगज़ाहिर जैसे झाँकता बच्चा किसी ओट से ।

7 comments:

  1. aapki shaily kavyatmak hai. aapki kavita ya ghazal ka intezaar hai. bahut achchhaa likhti hein aap. badhaayee.

    - p k kush

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  2. सुंदर रचना। अच्छा वर्णन। बधाई।

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  3. अच्छी गद्यात्मक कविता है

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  4. स्वरलहरियां ग्रामोफोन की
    तरलता से उतरेंगी ही कानो में
    उठती गिरती सांसो की लय महसूस होगी शायद
    उघड़ेगा क्या, जगजाहिर होगा क्या आखिर,
    क्या ऐसा कुछ जो सृष्टि में न हुआ अब तक।

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  5. प्रभाकर पांडेय ने लिखा है.. अच्‍छा वर्णन। बधाई। मतलब ????

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  6. करेजवा लागी कटार

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  7. "कैसे किसी पुरानी चोट का भूला हुआ दर्द टीस न मारे?" [हर सर्दी तो उठना ही उठना है बर-ख़बरदार को - सवा सोलह आने] - सही में कविता ही है - - मनीष [ पुनश्च: दो दिन से घरेलू इंटरनेट को जुखाम रहा, आज तबीयत सुधरी (-:]

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