कमरे में दो दीवार पर छत से लेकर ज़मीन तक आलमारी थी , लकड़ी की । तीसरे दीवार पर खिड़कियाँ थीं लम्बी शीशे वाली जहाँ से धूप की नदी अंदर आती थी । चौथी दीवार अभी खाली थी । लकड़ी के फर्श पर कार्टंस ही कार्टंस थे । हम किताबों की कैटलॉगिंग कर रहे थे । अल्फाबेटिकली , फिर नम्बर चिपकायेंगे फिर आलमारियों में सजायेंगे । मैं किताब उठाती और उसके कवर में खो जाती । कोई हवा में भागता आदमी जिसके आउटलाईंस स्मज हो जाते हैं या कोई चेहरा जो फेडआउट हो जाता है सिर्फ आँखें रह जाती हैं इतना बोलती हुईं या फिर रेत और समुद्र का कोई भूला टुकड़ा या किसी खिड़की के अंदर से झाँकता कमरे का कोना या कोई साईकिल इंतज़ार में ... कोई जर्नी ऑफ एम्बार्कमेंट । मैं चल पड़ती विली निली । सिधु मेटिक्यूलस है । नम्बर का स्टिकर टेढ़ा हो उसे दिक्कत होती है । शेल्फ पर किताबें आड़ी हों उसे दिक्कत होती । मैं किताबों के पन्ने सूँघती , उँगलियों से कागज़ सहलाती , उलटती पलटती । अगर कुछ दिलचस्प लाईन दिखी तो मैं पढ़ने भी लग जाती । मैंने जीन रीस ऐसे ही पढ़ डाली , फर्श पर ओठंगे हुये खिड़की से टिके हुये अन्ना मोरगन के साथ वेस्ट इंडीज़ और लन्दन के थियेटर्स तक उसकी मासूमियत के खोने की अँधेरी यात्रा में उसके साथ हो ली । सिधु नाराज़ होता रहा , अकेला काम करता रहा । नाराज़गी में उसकी एफीशियेंसी बढ़ती जाती । मैं अकेली मोनैको और आर्मीनिया , कोर्फू और काहिरा घूमती रही । किसी ग्रीक मछुआरों के संग भूनी मछली खाती रही , चाँदनी रात में रेत पर बैठे शराब पीती रही , बसरा की तंग गलियों में मोलभाव करती कहवा पीती रही , कोई जार्जियन चर्च में ऑरगन सुनती रही , काफे बूलवार में उस बूढ़े ट्रम्पेट बजाते आदमी की उलटी रखी टोपी में कुछ नोट डालती रही । और सिधु नाराज़ होता रहा ।
हमारा काम हफ्ता खिंचता रहा । अभी तक हम सिर्फ पी तक पहुँचे थे एज़रा पाउंड और टॉमस पायेन और अभी से मुझे एस दिखाई दे रहा था ..... सैलिनगर और सरोयान , स्टाईनबेक और सिनक्लेयर । मुझे पी खत्म करने की हबड़ तबड़ थी । सिधु भी स्टाईनबेक देखना चाहता था पर अपनी उत्तेजना काबू में रखना उसे आता था । अंडर टाईट लीश । मुझमें जन्मजात सब्र की कमी थी । आलमारी वाली दीवार अब सुंदर लग रही थी । जैसे सफेद कैनवस पर ऐक्रीलिक रंग । मेरी त्वचा सिहरने लगती । मैं चुप बैठे कितनी भी देर उस भरी आलमारी को देख सकती थी , फिर किताबों के स्पाईन पर उँगलियाँ फिरा सकती थी जैसे लोग अपने प्यारे पालतू स्पित्ज़ और सेंट बर्नार्ड को दुलराते हैं । मुझे जाने कब की पढ़ी किताब याद आती जिसमें एक औरत इतनी बूढ़ी और लाचार है , जो देख नहीं सकती पर जो फिर भी जगहें घूमना चाहती है और उसके साथ के लोग खूब एलाबोरेट इंतज़ाम करते हैं जिसमें उसे ऐसा लगे , अपने कमरे में बैठे बैठे कि वो सफर कर रही है , नई जगहों पर पहुँच रही है , स्टेशन की आवाज़ें , टैक्सी की , किसी खास बीच , वहाँ की महक , शोर गुल , हॉकर्स की चिल्ल पों , सब रेप्लीकेट की जाती । मैं भी ऐसी ही किसी जगह से दुनिया घूम रही थी । एक धूप के टुकड़े में बैठकर समुद्र की लहरों को सुनती थी , रोटी के टुकड़े चबाती और मुँह में किसी पीटा ब्रेड का स्वाद पाती , बोतल से पानी पीती और अंगूर के शराब की खुशबू जीभ पर महसूसती ।ऐसा प्यार मैंने और किसी के लिये नहीं महसूस किया , कभी नहीं किया । ये दिन मेरे सबसे अच्छे दिन थे ।
हाँ सिधु से कोई पूछे तो वो क्या कहे ? किताबों से उसे भी प्रेम था । पर उसका प्रेम अनुशासित प्रेम था । किताबों का प्रकाशन किसने किया , लेखक किताब लिखते वक्त कितनी उम्र का था , कवर इलसट्रेशन किसने डिज़ाईन किया , बाईंडिंग कैसी है , छपाई कितनी सुबुक है , पेपर क्वालिटी बुरी है , ऐसे गंभीर मुद्दों से निपटने के बाद कहानी की बारी आती । उसके पागलपन में भी एक तरतीब थी , पाबन्दी थी नियमबद्धता थी । मैं पानी में सर के बल कूद जाने वाले जुनून से किताब की कहानी में छलांग लगाती , गोते खाती ढेर सारा पानी उछालती किसी नौसिखिये तैराक की अबाध खुशी से किताब पढती । फिर मुझे दुनिया जहान की सुध नहीं होती ।
आज सिधु नहीं है । अंतिम कार्टन खोले मैं किताबों के ढ़ेर , कुछ गोद में लिये ज़रा उदास बैठी हूँ । सिर्फ डब्लू एक्स वाई ज़ेड ......एलिस वाकर और वल्ट विटमैन ,यामामोटो और ज़ुकोफ्स्की..... हाथ में मेरे वर्जीनीया वुल्फ और गोर विडाल हैं । काम खत्म सा हुआ । बोतल का पानी आज सुसुम है । कोई अंगूर अनार के रस की खुशबू नहीं , कोई पोलर बीयर बर्फ पर अकेला नहीं घूम रहा , कालाहारी में बुशमेन का कबीला शिकार के तलाश में नहीं भटक रहा , नेबुचेडनज़र बेबिलोनिया का राजा राज नहीं कर रहा , रानी हातशेपशुत किसी पुरुषवेश में राजगद्दी पर कब्ज़ा नहीं कर रही । आज सिर्फ एक्स वाई ज़ेड है । मैं किताबों से भरे इस कमरे में बैठी हूँ ओरलैंडो उठा कर देख रही हूँ और अचानक सम्मोहित हो जाती हूँ उस आदमी से जिसने तय किया था कि वो बूढ़ा नहीं होगा और जो एक दिन उठने पर पाता है कि वह एक औरत में बदल गया है । मेरा जादू फिर शुरु होता है । धूप अब भी खिड़की के काँच से अंदर आ रही है । आज शायद ही काम खत्म हो , मैं सिहरती खुशी से सोचती हूँ ।
गजब है, किताबों की दुनिया और आपके शब्दों की भी, आपके इस सिमुलेशन में थोड़ी डुबकी हमने भी लगा ली.
ReplyDeleteअच्छा कटा ये सफ़र !
ReplyDeleteबहुत खूब प्रत्यक्षा.पढ़ते-पढ़्ते खो जाती हूँ.
ReplyDeleteआपका शब्द विन्यास अद्भुत है,आप भी ऐसी दुनिया रचती हैं कि हम उसमें खो से जाते हैं,यथार्थ में सपनों का तड़का !!
ReplyDeleteइसे कहते हैं ख़ूब सारी किताबें पढकर डराना.
ReplyDeleteआप डरे क्या ? ये तो सिर्फ कहानी है । जब असली लिस्ट बताऊँगी फिर तो पक्का डरेंगे :-)
ReplyDeleteमैं चुप बैठे कितनी भी देर उस भरी आलमारी को देख सकती थी , फिर किताबों के स्पाईन पर उँगलियाँ फिरा सकती थी .....sacchi badii vaali beemaari hai ye....post hamesha ki tarah mun bhaayi.
ReplyDeleteशचमुच बड़ी जटिल है किताबों, छवियों और शब्दों की यह दुनिया। मैं तो, यकीन मानिए, उलझकर रह जाता हूं। हां, ओरलैंडो के जादू से ज़रूर चमत्कृत हूं जिसमें बूढ़ा न होने का फैसला करनेवाला आदमी अचानक उठने पर पाता है कि वह एक औरत में बदल गया है।
ReplyDeleteइरफान जी से सहमत होने को दिल चाहता है! ;)
ReplyDeleteवाह, नन्ही-सी रचना में महाकाव्यात्मक सघनता का विस्तार और औपन्यासिक विस्तार का सार-तत्व है। शब्द-साधना तो अद्भुत है। जेपी नारायण
ReplyDeleteअच्छा जादू रचा और मैं सम्मोहित होता चला गया. अचानक पाया कि कहानी खत्म हो चुकी थी. यह सोच कर सिहर उठा कि क्या एक दिन अचानक सचमुच ऐसा कुछ होगा? फिर याद आए ठसाठस भरे कुछ ऐसे ही कार्टंस... जिनमें रखी किताबों को अभी बाहर आकर किसी अलमारी में करीने से सजने का इंतजार है... ओह! आपने तो सचमुच बहुत डरा दिया. कुछ विचार सुप्त ही रहें तो कितना अच्छा है ना.....
ReplyDeleteबेहतरीन - नए कथासरित्सागर की कुंजी ? [:-)]- मामिन सिबिर्याक उपेक्षित तो न सोचेंगे? - rgds- manish
ReplyDeleteकिताबें भी कुछ कहती हैं, यह आपको बुलाती हैं और हम अपने आप खींचे चले जाते हैं
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