11/30/2007

बाथटब आदमी और कनगोजर

ओह कैसी भटियारी ज़िंदगी है । सड़क की धूल भरी गर्द फाँकता सोचता है आदमी । एक लाईन से इकतल्ले दुकान , माँ अम्बे टेंटहाउस ,स्नोव्हाईट लौंड्री , महावीर भोजनालय का शुद्धशाकाहारी भोजन , साईं फोटोकॉपियर ,मित्तल केमिकल्स से लेकर गुड्डु पप्पी दी गड्डी और बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला , नींबू मिर्ची का टोटका ... कैसी प्रेडिक्टेबल ज़िंदगी है । कोल्हू का बैल हुये सब । इक्के का घोड़ा जिसकी आँखों पर काली पट्टी जिससे सिर्फ आगे आगे देखे । आजू बाजू अँधकार शून्य ।

औरत सिर्फ रंग सोचती है । दिनरात रंग । उठते जागते रंग । इतना कि आँखें थक जाती हैं फिर खाली स्याह सफेद दिखता है । सोचती है सिर्फ सोच लेने से भर से हो जायेगा ? हुआ है क्या ? फिर ? फिर भी फिर भी । औरत की छाती हुम्म हुम्म करती है ।

कबाड़ीवाले के टाल पर अंबार है रद्दी का , टूटे फूटे कबाड़ का और किनारे पड़ा है एक पुराना इनामेल का बाथटब जिसे जोसान ने प्यारी मटिल्डा के लिये खरीदा था सन उन्नीस सौ तेईस में । नीली आँखों वाला जोसान और हरी आँखों वाली मैटी प्यानो पर जब बजाती थी , आई वॉन्ट से आई विल बट आई वॉन्ट से आई वॉंन्ट , तब जोस देखता था कैसे उसे । पर आदमी को क्या पता कौन जोसान कौन मैटी । यहाँ इस छोटे से कस्बे में इसाईयों के कब्रिस्तान में कैसी जंगली हाथी घास उग आई है । बकरियों मेमेनों का झुंड टूटी दीवार से कभी कभार अंदर घुस आता है तब गले बँधी घँटी की रुनझुन में प्यानो की अवाज़ ऐसे ही गूँजती है । तब गड़रिया टूटी मुंडेर पर बैठ कर आसमान तकता है रूई बादल ।

उस छोटे से घर के बड़े से आँगन में कोने में खूब सेरेमनी के साथ बाथटब टिकाया जाता है । औरत फिक्क फिक्क हँसती है । हाय ! कौन नहायेगा इसमें ? मैं तुम कि ये हमारी मुर्गियाँ ? हाय , पेट पकड़ पकड़ कर दोहरी होती है । इतना कि आँखों में आँसू झिलमिला जाते हैं । और आँसू में बेहिसाब रंग ।
आदमी झेंपा मुस्कुराता है । कान खुजाता है सिर झुकाता है फिर हँसता है । बाथटब के कोने पर बैठ बैठ हँसता है । लायें हैं तुम्हारे लिये और क्या ?

इस प्रेडिक्टेबल ज़िंदगी में कुछ अनप्रेडिक्टेबल कर देने के आहलाद से भर जाता है आदमी का मन । औरत की हँसी रसभरी है और आँगन का कोना धूप के टुकड़े में झिलमिल करता है । इनामेल के बाथटब के नीचे तल से सटा कनगोजर ज़रा सा और अंदर ठंडे में सरक जाता है ।

11/23/2007

ओह ब्लेम इट ऑन द डीएनए बडी

(आज मैं हुई चिराग का जिन्न , ऐसा उसने कहा । क्या दे दूँ कहाँ दे दूँ । ऐसा कि दिग दिगंत लोक पाताल सब भर जाये । अंदर समुद्र हरहराता था । पेड़ पौधे नदी नाले , चर अचर ,जल थल । सब तरफ धूँआ ही धूँआ । और बीच में घूमता था गोल गोल चिराग भी जिन्न भी और वह भी जिसे दिया जाना था पर जो ले नहीं सकता था । ले लेना आसान नहीं होता ये वो जानता । इसलिये कि लेते ही देने का खेल शुरु होता है और उसके पास न चिराग , न जिन्न न मन । ये भी जानती थी जो देना चाहती थी । उसे पता था जिस पल सब थिर होगा उसका देना भी रुक जायेगा । तब चिराग धूँये सा काफूर हो जायेगा । वक्त निकल रहा था गला भर रहा था । खाली तलहथी पर कोई फूल नहीं था , धूँआ भी नहीं था , कुछ नहीं था । जिन्न का जादू तो नहीं ही था ।)

बदन की कोशिकायें पीले पत्तों सी झर रही थीं । चाय की केतली में पत्तियाँ जैसे तल पर नाचती फिर थमती हैं । किसी जीनोम के डीएनए में छुपा गुप्त आज्ञात कोड अपना काम बेआवाज़ एफ्फीशियेंसी से कर रहा था । हज़ारों लाखों साल से रिबन में पंच हो रहा था हर एक क्षण के घटित होने का हिसाब । कैसे लम्बे इक्वेशंस , महीन फॉर्मुलाज़ , कोई अलोगरिदम ... पाईथॉगरस या यूक्लिड ,जाने क्या क्या सिम्बल्स । किसी उज़बक पागल साईंटिस्ट का सोचा हुआ कोई अजूबा प्रोसेज़ जहाँ आधा किसी पीले कम्प्यूटर शीट के हरे प्रिंट में धड़क रहा था और बाकी किसी वेरियबल स्मृति पर द्वार ठकठकाते अपने आगमन का ऐलान करता होता । बीकर में उबलता फफकता बैंगनी धूँआ ,पिपेट की एक फूँकी बून्द पर ..... जैसे एक फूँक पर चू पड़ी ज़िन्दगी । हर घटना के पीछे करोड़ों करोड़ों छोटे कीड़े कुलबुलातें हो , किस लार्वा से कैसा प्यूपा ? फिर कैसी तितली ? रानी मधुमक्खी बैठी है अपने छत्ते के बीच में । काम चल रहा है अनवरत चलती चीटियाँ । प्रोग्राम्ड फॉर इटरनिटी ।

कितनी अंगड़ाई ले कर पीठ ठोकते हैं । ये किया वो किया , जाने क्या क्या किया । हमने किया , हमने कहा । ओह , आह । किया किया । गर्द गुबार पर आँख मींचा । नहर खोदे , बाँध बाँधा , अपना मन साधा । ओह जीवन जीया ..हमने हमने । इतना पढ़े इतना भूले । साईबेरियायी क्रेन और अपलूज़ा घोड़े , बेलूगा कवियार और टॉर्टिल्ला फ्लैट ,कम सेप्टेम्बर। ज्ञान बाँटा आज्ञान बाँटा । मन ही मन उत्फुल्ल रहे गुलफुल रहे । नहीं बाँटा तो सिर्फ एक चीज़ , पकड़ के रखा , छाती से संजो के रखा । हाँ जी ले के जायेंगे अपने साथ । वही अपनी खाली हथेली का सच । सच !

डीएनए में छुपा कोड हँसा , गुपचुप हँसा । हर हँसी पर पंच किया हुआ कोड लहराया । ब्रेल के डॉट्स और डैशेज़ । किस अशरीरी उँगलियों ने पोर फिराया । एक डॉट और एक डैश और बदल गया । हाँ जी पूरा जीवन बदल गया । मुन्ना तू तो ऐसा न था । बेवकूफ बुचिया बबली बॉबी कैसे बनी । मैंने दिया दिया बेहिचक दिया । न कोई जिन्न न चिराग फिर भी दिया । उसने नहीं लिया , हिज़ लॉस व्हाट द हेल ? मेरा कोडबुक फॉल्टी ? ओह ब्लेम इट ऑन द डीएनए बडी !

11/21/2007

हमने उनको हँसते देखा

खाने की थाली लगी थी । रोटियाँ , थोड़ा सा चावल , कटोरियों मे दाल , सब्ज़ी , दही । दाल सब्ज़ी चावल सान कर भाई छोटे छोटे कौर बनाते , बात करते जाते थे । एक कौर मुँह में और उसके बाद का दूसरा ज़रा सा खिसका कर थाली के कोने में , सामने की ओर । वो मुस्कुराती , बनाया हुआ कौर उठा कर खा लेतीं । बात और खाना दोनों आराम से आफियत से , सलीके से । बीच बीच में उनकी ज़रा सी भारी रेशेदार हँसी गूँज जाती । तब हथेलियों से मुँह ढक लेतीं । शायद बचपन के किसी खुर्राट दादी नानी की डाँट उजागर हो जाती । मुँह दाबे उनका हँसता चेहरा किसी चौदह साल की शर्मीली हँसमुख लड़की में बदल जाता ।

कमरे में सामान अटा पड़ा था । पर हर चीज़ की नीयत जगह । एक तिनका तक टेढ़ा नहीं । जूठे बर्तन उठाये वो रसोई की तरफ चली जातीं । आदत थी रात को एक अंतिम चाय पीने की । छोटे से देगची पर ऊपर हथेली रख पानी के खौलने की गर्मी महसूस करतीं । दो पीले हरे कप में रिम पर उँगली रखे चाय ढारतीं । बाहर की ज़रा सी चौकोर खुली जगह में मोढ़े पर बैठे चाय पी जाती। लड़कियाँ अन्दर गुपचुप गप्प करतीं । डब्बे में रात की बनाई बिरयानी और रायता भाई पैक करते ।

प के लिये है । आज नहीं आई न । कहना भाभी ने भेजा है ।

रात मैंने खाना नहीं खाया था । पता था लड़कियाँ भाभी के घर गई हैं । फिर मेरे लिये सिंधी बिरयानी आयेगी ही । मैं जाऊँ न जाऊँ मेरा हिस्सा डब्बे में पैक ज़रूर आता था । भाभी क की मुँहबोली भाभी थीं । क मद्रासी और भाभी सिंधी । भाई पंजाबी । क की मुलाकात भाभी से तब हुई थी जब वो अपने आँखों के इलाज के लिये शंकर नेत्रालय गई थीं । लम्बा इलाज चला । तब वे लोग क के किरायेदार रहे कुछ दिन । तभी का रिश्ता था । अब जब क दिल्ली में थी तो हर इतवार उनके घर जाती । हम सब यानि क के दोस्त भी जाने लगे थे । लाजपत नगर की शॉपिंग के बाद हम सब निढाल भाभी के घर जा धमकते । कपड़े दिखाये जाते , रंगों का बखान होता । फैब्रिक छू छू कर देखा जाता । भाभी हँसती , गुलाबी रंग ? फिर तो प पर अच्छा लगेगा । और अ ने क्या खरीदा ? आज क्या पहना है ? आओ इधर । फिर छू छू कर देखतीं । कौन सा रंग है ? नीला होता तो अच्छा होता नहीं । ऐसी गप्पबाजी और खरीदारी का मज़ा लेने के बाद भाभी खाना बनातीं । हम अफरा कर खाते ।

भाई कोने में खड़े भाभी की मदद करते और मुस्कुराते । आज साल बीत गये । पता नहीं भाभी और भाई कहाँ हैं कैसे हैं । पर अभी भाभी के गोरे चेहरे और छोटे कटे बाल . खूब सलीके से पहने गये कपड़े , उँगलियाँ नेल पॉलिश्ड , सब एकदम टीपटॉप , और उस बड़े काले चश्मे के पीछे दृष्टिविहीन आँखें सब याद आ गये । और इनसब के ऊपर सिर पीछे फेंककर हथेलियों से होंठ दाबे उनकी ज़रा सी भारी रेशेदार हँसी याद आती है , भाई का छोटे छोटे कौर बनाकर उनकी उँगलियों की पहुँच तक थाली में खिसकाना याद आता है ।

टीवी में चित्रहार में हिरोईन ने क्या पहना है , क ने बाल कटवाये तो कितने कटवाये , नये पर्दें कैसे लगे .. जाने कितनी छोटी बातों से हम लगभग भूल ही जाते कि उन्हें बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता । तब हम छोटे थे और उनके जीवन के बीहड़ नीम अँधेरों की दुनिया हमसे बहुत बहुत दूर थी । कितने कितने सतहों पर वो जीती थीं ये हम अनुमान भी नहीं लगा सकते थे । अवसाद और उदासी उन्हें भी घेरती होगी । हताशा और निराशा से उनका खूब वास्ता भी पड़ता होगा । पर हमने हमेशा उनको हँसते देखा , खुश देखा ।

11/16/2007

तलाश है अब एक नये स्क्रिप्ट की

लपकते शोलों की लपट किस्सागो की आँखों में चौंध भर देती । अरेबियन टेल्स वाली शाहज़ादी हो जैसे । लुढ़कते पुढ़कते ऊन के गोलों सा किस्सा दर किस्सा खुलता जाता था , कभी रेशम कभी नीला । सब मुँह बाये भक्क सुनते थे बिना पलक झपकाये , बिना उबासी जम्हाई लिये । कहीं एक पल को भी किस्सा छूट न जाये । बरस बीतता जाता था । किस्सागो किस्सा कह कह नहीं थकता । बस सुनने वाले बदलते जाते थे । तभी उस भयंकर षडयंत्र का पता कहाँ किसी को चला था ? सब उस किस्से की नूतनता पर आह करते , गज़ब ! उँगलियाँ तक सिहर जातीं रोमाँच से , ओह अद्भुत ! अद्भुत । सिर डुलाते वेदवाक्य का जाप होता । किस्सा कोह हँसता मंद मंद । इस शातिर चालाकी पर बाग बाग । फिर किसी होनहार गुनहगार की तरह इसे कैसे ज़ाहिर किया जाय कि सुनगुन में रहा मस्त । फिर मस्ती बेपरवाह हुई मुर्झाई सुस्त । बेचैन हुई आत्मा बेचैन हुआ मन ।

वही किस्सा बरस दर बरस उमर दर उमर हज़ारों लाखों साल , जाने कितने लाईट ईयर्स कहा जाता रहा , शून्य में , समग्र में , जंगलों गाँवों में , भोर के झुटपुटे में , तारों के चमकने में , छाँह में , बचपन की उमगन में , बुढ़ापे की ठहराई में , सघन वन अमराई में । किस्सा जीवन का मरण का , बेचैन तड़पते दमतोड़ खुशी और टूटती काँपती रुलाई का । फिर भी हर जन्म पर वही नये खुशी के नवजात भाव और मृत्यु के गठीले कंठ फोड़ते भय के तराजू पर ऊपर नीचे होती ज़िन्दगी का , वही का वही बरसों बरसों का खेल चलता है अनवरत । सब फैल कर विस्तार में विलीन या सिकुड़ कर एक बिन्दु में समाप्त ? किस्साकोह अब मुस्कुराता नही । खेल का मज़ा हुआ मन्द । वही किस्सा बार बार कितनी बार ? और क्यों भला ?

तलाश है अब एक नये स्क्रिप्ट की , कुछ तड़कता फड़कता दमदार ज़ोरदार । कहा जाये कोई नया किस्सा तरबतर रसेदार । है कुछ आपके पास ? कुछ तेज़ तीखा मिर्चीदार । किस्सागो करता है इंतज़ार ।

11/10/2007

लास वेगास के चकमक रास्तों में चित्तकोहड़ा की तलाश

कल वो अमेरिका से वर्षों बाद दीवाली पर पटना पहुँचे । बचपन शिवपुरी , चित्तकोहड़ा के आसपास बीता । घूमते रहे गलियों में , बाज़ार में । खोज खाजकर घर ढूँढ निकाला । जो देखना चाहते थे नहीं दिखा , जो दिख रहा था आँखें उसे देख नहीं पा रही थीं । अपनी व्याकुलता की कथा सुनाते रहे । लास वेगास के चकमक रास्तों में चित्तकोहड़ा की धूल भरी गलियों को तलाशते हैं । कैसे बतायें क्या ढूँढते हैं क्या आँखें साफ शफ्फाक देखती हैं । जब चिकनी सड़कों पर लम्बी गाड़ियाँ फिसलती हैं , मन लौटता है उस गली जो अब सिर्फ स्मृति में महफूज़ है । उनकी बेकली शब्दों को पार कर उफन रही थी । कसीनो की जगमग , रौशनी और चकमक । छोटे दुकानों पर आलू और चावल की बोरियाँ , दस साल और बुढ़ा गया वही नाख्रुस टेलरमास्टर , एक एक कपड़े के लिये कितना दौड़ाता था , आज देख पहचान कैसा खुश हो गया । भिनभिनाती मक्खियों के ढ़ेर , बजबजाती नालियों से सजी धूल भरी सड़क , सड़क के बीचोबीच पगुराती गाय , औटो ,रिक्शे की गजर मजर । आह यही है होमकमिंग । मोहल्ले का सबसे शानदार घर अरे उसी आनंद का , पढ़ता था जो एक साल आगे , उफ्फ कैसा जर्जर हुआ आज । एक गुस्सा कौंधा । क्यों नहीं सब वैसा ही रहा जैसा मन में साबित साबुत है । कैसी दुखदायी टीस । क्या छूट गया पीछे क्या मिलेगा आगे । छोटे छोटे टूटे वाक्य । वही क्लीशेड इमोशंस । बार बार उस अजब से दुख को पकड़ लेने की नाकाम कोशिश में अटके शब्द । आवाज़ में अजीब हैरानी । कुछ न समझ आने जैसी गज़ब सी बात ।


क्यों हम हमेशा एक तलाश के गुलाम होते हैं । भौगोलिक दूरी को तो कभी पाट भी लेते हैं , समय की दूरी का क्या करें ? कैसे लौटें , कुछ दिन पहले , कुछ महीने पहले , पिछले साल , पिछले कई बरस ? हाय ! मन इतनी चीज़ों को क्यों सहेज रखता है । कोई ब्लैकहोल , कोई ट्रैश बिन कहाँ है जहाँ ये स्मृतियाँ गड़प से बिला जायें ?

एक उम्र पर आकर शायद हम सिर्फ पीछे लौटते रहते हैं । जितना हम वर्तमान में जीते हैं उतना ही अतीत में लौटते हैं । बढती उम्र के साथ ये लौटना डाईरेक्टली प्रोपोर्शनल होता है । मेरे शब्द भी ऐसे ही टूटे फूटे से थे । उनकी हाँ में हामी भरते । हम साथ साथ चित्तकोहड़ा बज़ार जो घूम रहे थे , घूम घूम कर चकित हो रहे थे । अरे ! अब भी बिलकुल वही का वही ? नहीं ? हमारे आहलाद के पीछे पीछे कंठ में एक रुलाई वाली टीस ,मैं भी हूँ , जैसा कुछ याद दिला रही थी । मुझे भी पटना लौटे चार साल बीत चले हैं ।

11/04/2007

ईवनिंग ब्लूज़


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
सड़कों पर साँझ उतर रही है । आसमान धूसर मटमैला है । नीचे एक भूरी बिल्ली उदास आँखों से छज्जे को देखती , झाड़ियों में बिला जाती है । पंछियों का लौटना भी जैसे उदासी का ही कोई राग हो । जैसे खत्म होने को दोहराता हुआ । लौट जाना भी जैसे खत्म होना होता होगा । पेड़ों के पत्तों पर से अँधेरा गहराता है । कुछ देर में नीचे शाखों से होकर ज़मीन तक फैल जायेगा ।

मन उदास बेचैन है । पचास चीज़ें उभचुभ कर रही हैं ,जी किसी में नहीं रम रहा । सामने के घर के छोटे लॉन में कुर्सियाँ लगी हैं । बगल में मेज़ पर क्रिस्टल ग्लासेज़ हैं , वाईन की बोतल । शायद कोई छोटी सी पार्टी । धीमा संगीत उठकर ऊपर मुझ तक आता है । अँधेरे में चुप बैठे सोचती हूँ कितने काम करने हैं , कितने बिलकुल नहीं करने । करने न करने के बीच मन यो यो जैसा डोलता है । कितना पढ़ना , कितना सीखना , कितना संगीत सुनना , कितना खाना चखना पकाना । कितनी दुनिया देखनी है । कितनी यायावरी , कितना पागलपन, कितना मिलना कितना छूटना । कितना कितना करना । मैं चुपचाप ढ़लती साँझ में बिना कुछ किये बैठी समय का बीतना महसूस करती हूँ । एक नशे में धुत्त पागल ऐडिक्ट वेटिंग फॉर अ फिक्स ?