3/08/2007

तुम्हारी इच्छा मेरी इच्छा

तुम पुरुष , तुम आदम
अपने पौरुष के अहंकार में
ग्रीवा ताने , तुमने कहा
अपनी इच्छा बता

मैं भोली अबूझ हव्वा
तुम्हारे प्रश्न का मर्म जाने बिना
चहककर कहा

मेरी इच्छा !!!
मेरी इच्छा , रोटी घर और बार की इच्छा
प्यार ,बात और साथ की इच्छा

तुम
ठठाकर हँस पडे
मैं चौंककर चुप हो गई
तुमने कहा
तुम्हारी इच्छा तुच्छ इच्छायें
अब तू सुन मेरी इच्छायें
............................................................


आदि काल से मुँह को सीये
सुन रही हूँ आजतलक मैं
तुम्हारी गाथा

अभी भी मैं वही भोली हव्वा
बैठती सुनती इंतज़ार में
कभी तो आयेगी मेरी भी
फिर से इच्छायें कहने की बारी

7 comments:

  1. Anonymous2:36 pm

    अकस्मात, भाई प्रवचन सुनाने पहुँच गया...

    किसकी इच्छा,बहना?
    मैने कहा, मेरी
    यह जो सामने तुम,क्या यह शरीर हो तुम?
    मैने कहा, नहीं मूर्ख,इच्छा तो मन की होती है
    मन किसका? इच्छाएँ किसकी?
    मैने कहा,मेरा मन, इच्छाएँ मेरे मन की
    क्या तुम मन हो?
    नहीं ! नहीं !
    अगर यह शरीर नहीं, यह मन नहीं, तो तुम कौन?
    मैं मौन
    अगर स्वयँ को जानो, तो नर नहीं, नारी नहीं
    मन नहीं, इच्छाएँ तुम नहीं
    जो बचता है,वह अनंत,सर्वझ हो तुम

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  2. बहुत खूब !
    घुघूती बासूती

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  3. बढ़िया है। महिला दिवस मुबारक हो। एक बार समझ में आई कि यहां अगर 'सिगार' नहीं तो 'बार' है। क्या बात है!

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  4. रिटोरिक्‍स का समय है,
    चलो ये भी सही
    :
    :
    :
    पर देखो अब छोड़ दो साथ की इच्‍छा, न हो सके तो छोड़ दो गाथा खत्‍म होने की आशा।

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  5. अभी भी मैं वही भोली हव्वा
    बैठती सुनती इंतज़ार में
    कभी तो आयेगी मेरी भी
    फिर से इच्छायें कहने की बारी ...:)

    अपनी बात आप अनायास ही एक twist के साथ कह जाती हैं आप ! अच्छा लगा ये अंदाज.

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  6. वाह, बहुत सुंदर. बधाई!!

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  7. Anonymous9:05 pm

    बहुत खूब ! बहुत खूब !

    बधाई!!

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