3/21/2007

उफ ,कल रात बहुत गर्मी थी


पता नहीं कितने बुक स्टॉल्स हम घूम चुके थे । वही ढाक के तीन पात । हिंदी की पत्रिका कहने से गृहशोभा , मनोरमा ,वनिता । बस इतना ही । एक वक्त धर्मयुग , सारिका , साप्ताहिक हिन्दुस्तान पर्याय था पढने का । किताबें न मिले कोई गम नहीं । ये काफी थीं । थाक की थाक बरसों से सहेजी हुई । कुछ पढने की इच्छा हुई तो मशक्कत कर सबसे नीचे वाली को खींच खांच कर निकाला । ये रोटेशन चलता रहा । खूब पढीं ।

अब ढूँढते रहो । गुडगाँव है एमएनसी नगर । यहाँ लोग पढते हैं अंग्रेज़ी पत्रिकायें ,ग्लॉसी और महँगी , चमकदार , आँखें चौंधिया जायें । करीने से सजी स्टैंड पर , सुन्दर डिपार्टमेंटल स्टोर्स में । हिन्दी मैगज़ीन ? नो नो ।
फिर उपाय क्या ? मंडी हाउस की दौड । बडे दिन बाद कोई मिले । सदस्य बने तो देर सबेर मिले । बडी मुश्किल । पढने की हुडक तो शांत हो जाती है किताबों से पर मैगज़ीन का मज़ा कुछ और ।

फिर पता चला कि एक किताब की दुकान खुल गई है , बुक्स बियांड, हिन्दी किताबें , हिन्दी पत्रिका मिलेंगी वहाँ ।शनिवार पता चला । तबसे तीन बार जा चुके । सच हिन्दी किताबें , वाणी ,राजकमल, रूपा , ज्ञानपीठ । इरादा है कि महीने में एक गोष्ठी करें , लेखक को बुलायें , प्रकाशक को बुलायें ।देखें , कितनी किताबें बिकती हैं । हिन्दी किताबों को रखना वायेबल है कि नहीं ।

वहाँ मुझे गुलज़ार की एक किताब दिखी , "रात ,चाँद, और मैं" । इस किताब की मज़ेदार बात उसकी साईज़ है , छोटी सी हाथ में रखने वाली । यह संकलन उनकी चुनिंदा कविताओं का है ,जिनमें वो चाँद और रात को नये नये रूपों में तराशते हैं । यह किताब रूपा ने छापी है ।गुलज़ार ने यह किताब समर्पित की है

अरुण शेवते
मेरी नज़्मों से तुम ने
जो रातें छानी थीं , और
चाँद चुने थे , उन्हें पोंछ
पांछ के तुम्हीं को पेश
कर रहा हूँ

सैंतालिस पृष्ठों की छोटी सी ये पॉकेटबुक नुमा किताब भा गई । इसमें उनकी कवितायें हैं , त्रिवेणी हैं।एक साँस में पढ जाने वाली किताब है । और फिर घूँट घूँट पढ जाने वाली किताब है ।कुछ नज़्म जो मुझे पसंद आये

चाँद जितने भी शब के चोरी हुये
सब के इलज़ाम मेरे सर आये


गर्मी से कल रात अचानक आँख खुली तो
जी चाहा कि स्वीमिंगपूल के
ठंडे पानी में इक डुबकी मार के आऊँ
बाहर आ कर स्वीमिंग पूल पे देखा तो हैरान हुआ
जाने कबसे बिन पूछे इक चाँद आया और मेरे पूल में
आँखें बन्द किये लेटा था , तैर रहा था
उफ कल रात बहुत गर्मी थी



"ज़ेरोक्स "करा के रखी है क्या रात उसने ?
हर रात वही नक्शा , और नुक्ते तारों के
हर रात वही तहरीर लुढकते "सय्यारों" की
इसरार वही , अफसूँ भी वही
हर रात उन्हीं तारों पे कदम रख रख के यहाँ तक आता हूँ

आकाश के "नोटिस बोर्ड " पे क्यों
हर रोज़ वही टंग जाती है
ज़ेरोक्स करा के रखी है क्या रात उसने ?


और ये त्रिवेणी


इतनी लम्बी अंगडाई ली लडकी ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा

चाँद बराबर छाला पडा है उंगली पर


रात के पेड पे कल ही तो उसे देखा था
चाँद बस गिरने ही वाला था फलक से पक कर

सूरज आया था , ज़रा उसकी तलाशी लेना


और भी कई हैं सुन्दर नज़्म । पर सब क्या हमीं बता दें । खरीदिये और पढिये मात्र पचास रुपये । इतनी सस्ती और सुंदर किताब । मोहक आवरण । बस पढनेवाले की कमी है ।

3/15/2007

पत्थर का चूल्हा , लिट्टी चोखा और गोर्गोंज़ोला पास्ता

नहीं इसबार फोटो नहीं है । पर पिछले चिट्ठे को अमल में लाते हुये हम पहुँच गये ‘स्टोन अवन “ यानि पत्थर के चूल्हे में । मेट्रो मॉल के फूड कोर्ट में एक रेस्त्रां है । दावा करते हैं कि इनका इतलियन खाना इनके इतैलियन रसोईये श्री अंतोनियो देत्त्रियो पकाते हैं श्री पीटर मिल्लर के साथ और इनके खाना पकाने का तरीका दो हज़ार साल पुराना है ,रोमन साम्राज्य के पाक कला सा स्वाद । अब हमें नहीं पता रोमन राजा क्या खाते थे । रोमन लोगों के बारे में हमारी जानकारी अस्टेरिक्स और ओबेलिक्स के कॉमिक्स में बेचारे रोमन सैनिकों की बेवकूफियों तक सीमित रही । बाद में जुलियस सीज़र पढकर थोडा ज्ञान में इजाफा हुआ पर बहुत ज्यादा नहीं ।

हमने ऑर्डर किया गोर्गोंज़ोला पास्ता । मज़ा आ गया सच । एकदम गरम भाप उडाता हुआ । फिर दूसरी टेबल पर दो लोगों को कुछ और खाते देखा । उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे या फिर घास हमेशा दूसरे के बाडे में हरा नज़र आता है जैसी कई लोकोक्तियों मुहावरों को सच साबित करते हुये हम अपना खाना छोड दूसरे का देख ललचाते रहे । फिर नहीं रहा गया तो पूछा और मँगाया , सीज़र्स सलाद । जितना सुन्दर देखने में था उतना ही खाने में । ये एकदम ठंडा था । भीतर तक तरावट वाली ठंडक और लेटस के पत्तों का करारापन । आजमाईये आजमाईये ।

लेकिन मज़े की बात कि घर लौटने पर अपना खाना याद आता रहा । लिट्टी चोखा पर हमेशा सत्तू का पराठा बाजी मार ले जाता है । फिर भी पटना में एकबार स्टेशन के पास किसी ढाबेनुमा जगह पर गये थे । संकरी सीढियों से ऊपर । खुली छत , घी में तरबतर लिट्टी और बैंगन टमाटर का गर्मागरम चोखा । आह ! क्या स्वाद ।

प्रमोद ने पिछली पोस्ट पर एक शब्द का इस्तेमाल किया था , “भकोसना” । अब पता चला कि इन अजदक और कस्बा और मोहल्ला वालों की पोस्ट पढकर मज़ा क्यों आता है । बिहारी बाबू और शशि जी की भोजपुरी पर बाँछे क्यों खिल जाती हैं । गुडगाँव आकर बिहारी हिन्दी क्यों इतनी प्यारी लगती है । प्रियंकर ,आपने लिखा है न केदार नाथ जी की कविता अपने चिट्ठे पर

जैसे चींटियां लौटती हैं बिलों में / कठफ़ोड़वा लौटता है काठ के पास …….
ओ मेरी भाषा !
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है मेरी आत्मा ।

तो अब पता चला कि मेरी आत्मा भी अपनी भाषा सुनने के बगैर अकड रही थी । अब जा कर कुछ तरावट आई है । एक लिस्ट बनानी है ऐसे शब्दों की जो छूट गये थे , भुला गये थे । अपने इलाके के शब्द ,जैसे आलू के चोखे में पका हुआ लाल मिर्च ।

3/13/2007

कुछ मीठा हो जाये

पेस्ट्री पेस्ट्री


सामाने ये रखा हो और आप कैलोरीज़ सोचें इससे ज्यादा दुखदायी और क्या हो सकता है मरफी के नियम अपनी सत्यता साबित करवा ही लेते हैं जब दुबले पतले थे तबा मीठा भाता ही नहीं था ज़रा मरा टूँग टाँग लेते । एकाध कोना कुतर लेते और परम तृप्ति । और अब ये हाल है कि मीठा देखते ही मन बेकाबू । बडी मुश्किल से सरपट भागते बिगडैल घोडे से मन को काबू करना पडता है । ये जो आप देख रहे हैं स्ट्रौबेरी वाली , उसका एक फाँक स्ट्रौबेरी उदरस्थ हो चुका है । बडी कठिनाई से फोटो खींचने तक रुका गया । उसके बाद तो 'डेमोलिशन स्क्वैयड ' टूट पडा ।

ये सच है कि इनको देखकर मेरा मन हो जाता है दीवाना सा ।अब मैं कोई 'गूर्मा' तो हूँ नहीं पर अच्छे खाने की थोडी बहुत शौकीन तो हूँ ही । मेरे विशलिस्ट में ये भी है कि कई जगहों प्रदेशों का खाना चखूँ , बनाऊँ । बचपन में एक ब्रिटिश पत्रिका वीमेन एंड होम आती थी । घँटों उसमें दिये खाने की फोटोज़ और रेसिपी देखा करती थी । नये नाम , नये व्यंजन । अब बगल के डिपार्टमेंटल स्टोर में उस ज़माने की पढी हुई सारी चीज़ें मिलती हैं , कैवियर से लेकर बेक्ड किडनी बींस और हाइंज़ सॉस से लेकर डैनिश ब्लू चीज़ तक ।

तय ये किया है कि हर बार कोई नयी चीज़ वहाँ से लाऊँगी । हो सकता है हिट हो जाये । खाने में एक्स्पेरीमेंट , आनन्द ही आनन्द । और ईस्वामी की तरह फ्यूज़न चिकन बनाना , य्म्म्म !


एनिड ब्लाइटन की किताबों में बच्चे जब बटर्ड स्कोन विद क्लौटेड क्रीम खाते तो मुँह में पानी आ जाता । ये तो अभी हाल फिलहाल पता चला कि क्लॉटेड क्रीम एक तरीके का गाढा किया हुआ रबडी नुमा चीज़ है ।

पूर्व और पश्चिम की भौगोलिक दूरी शाश्वत है पर खाने के मामले में हम करीब आते जा रहे हैं । इसी लिये तो लंदन में चिकन करी और गुडगाँवा में टॉरटिल्ला और नाचोस । अमर रहे हमारी स्वादेन्द्रियाँ ।

3/08/2007

तुम्हारी इच्छा मेरी इच्छा

तुम पुरुष , तुम आदम
अपने पौरुष के अहंकार में
ग्रीवा ताने , तुमने कहा
अपनी इच्छा बता

मैं भोली अबूझ हव्वा
तुम्हारे प्रश्न का मर्म जाने बिना
चहककर कहा

मेरी इच्छा !!!
मेरी इच्छा , रोटी घर और बार की इच्छा
प्यार ,बात और साथ की इच्छा

तुम
ठठाकर हँस पडे
मैं चौंककर चुप हो गई
तुमने कहा
तुम्हारी इच्छा तुच्छ इच्छायें
अब तू सुन मेरी इच्छायें
............................................................


आदि काल से मुँह को सीये
सुन रही हूँ आजतलक मैं
तुम्हारी गाथा

अभी भी मैं वही भोली हव्वा
बैठती सुनती इंतज़ार में
कभी तो आयेगी मेरी भी
फिर से इच्छायें कहने की बारी