6/08/2006

आराम बडी चीज़ है मुँह ढक के सोइये

इधर कई दिनों से खूब वयस्तता रह रही थी. पहले तो अस्पताल का चक्कर रहा कुछ दिनों तक . बहन बडौदा से आई हुई थीं. उसके बेटे की तबीयत गडबड रह रही थी. अपोलो में भर्ती रहा एक सप्ताह. तो भागदौड रही, अस्पताल की , सुबह खाना भेजने की , बहन को ढाढस देने की. सप्ताह दस दिन के बाद ,भगवान का शुक्र ,कि ठीक हो कर बच्चा घर आ गया वापस . फिर एक हफ्ते हमने चकल्ल्स की. घूमे फिरे. फना देखी , बाहर खाना खाया .ऑफिस बदस्तूर चलता रहा. कुछ माहौल ऐसा कि छुट्टी संभव नहीं .वो लोग वापस गये तो ऑफिस में बेतरह काम. कुछ बाहर जाने वाले भी काम रहे जो मुझे रास आते नहीं . दफ्तर में बिठाकर कितना भी काम करवा लो पर बहर की भागदौड से बेहद परेशानी होती है. वैसे भी मेरी प्रकृति आलसियों वाली ठहरी. इसलिये छुट्टियों में भी कहीं आराम से पसर जायें ऐसी ख्वाहिश रहती है. जगहों को देखने की भागदौड अपने वश में नहीं . खरामा खरामा जिन जगहों को देख पाये उतना ही काफी. वैसे इस से कई बार नुकसान भी हो जाता है . बाद में अफसोस रह जाता है कि फलाँ जगह नहीं देखी . जब इतनी दूर गये तो थोडा कष्ट कर ही लेना था.

लेकिन दोबारा जब ऐसा मौका आता है फिर वही ढाक के तीन पात. मुझे अपने इस गुण का पता बचपन में ही चल गया था. खेलने से ज्यादा प्रिय किताब पढना लगता था . शाम होते ही दोस्तों की भीड जब खेलने बुलाने के लिये जुटती तो हमारी हालत पतली हो जाती. बडे कला कौशल से बहाने रचे जाते. कभी असरदार होते कभी नहीं भी. पर जब भीड को झाँसा देने में सफल हो जाते तब चैन से बैठकर ( हमारी एक प्रिय कुर्सी थी जिसपर गोलमोल बैठना हमारा पास्ट टाईम था खासकर किताब पढते वक्त ) किताब पढते. जैसे जैसे बडे होते गये सोचते गये कि जब स्कूल और कॉलेज से पीछा छूटेगा तब सुबह की भागदौड भी बीती बात हो जायेगी . तब प्रण किया था कि ऐसा कुछ नहीं करना जिसमें रोज़ बाहर जाना पडे. पर कहते हैं न , " मैन प्रोपोज़ेस गॉड डिस्पोसेस " . कॉलेज छोडने के पहले ही एन टी पी सी में बतौर एक्सेक्युटिव ट्रेनी नौकरी मिल गई और स्कूल के ज़माने से जो पाँच दिन बाहर जाने का सिलसिला बना वो आजतक कायम है.

खैर, अब तो आदत सी पड गई है पर दिल ढूँढता है फिर वही फुरसत के रात दिन . बीच में एकबार मैने नौकरी से तीन साल की छुट्टी ली पढाई के लिये. पढाई तो बहाना थी .ये ऐश करने के और अपनी फुरसत की दिली तमना पूरी करने के लिये थी. पढाई चूँकि सेकंडरी थी इसलिये परीक्षा में युनिवर्सिटी में अव्वल आ गई. ये तो खैर बाद की बात थी . ज्यादा महत्त्वपूर्ण ये बात थी कि हमने बडे सारे स्कीम बनाये थे कि कैसे कुछ भी नहीं करना इस छुट्टी के दौरान . कितना सफल रहा ये कैसे कहूँ पर पहला साल छुट्टी का शानदार रहा. दूसरा साल बस ठीकमठीक और तीसरा... मत पूछिये...बोरियत के आलम हमने दिन गिनने शुरु किये कि कब छुट्टी की अवधि समाप्त हो.
लब्बोलुबाब ये कि फुरसत के क्षण भी स्मॉल डोज़ेस में भले लगते हैं लेकिन भई इधर भागदौड ज्यादा हो गई . कोई है जो पेश करे ...

एक ऐसा पूरा समूचा दिन
एक पारे सा चमकता दिन
कलफ लगी साडी सा कडकडाता दिन
सफेद कागज़ पर पहली सतरों सा दिन
मतलब ,एक कोरा नया नकोर सा दिन

जहाँ फुरसत ही फुरसत हो
आँखे अनदेखी हों
सपने अनबोले हों
चाय की प्याली हो
भुट्टे की बाली हो
मौजों की रवानी हो
मुस्कुराहट सयानी हो

आओ सम्हाल लें
ऐसे ही एक दिन को
पत्तों की फुनगी पर
खिलते हुये दिन को
आँखों के कोरों पर
ठिठके हुये दिन को

अरे भाई अब समझा करो, मुझे चाहिये बस फुरसत का एक दिन

7 comments:

  1. बहुत अच्छे!कई कविताओं पर भारी है यह लेख। भई फुरसत के दिन खुद तलाशने पड़ते
    हैं। हाँ,http://hindini.com/fursatiyaफुरसतिया का साथ जरूर मिल सकता है। पढ़ते रहें।

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  2. अनूप भाई !
    अब यह भी कहा जा सकता है कि पूरे लेख पर भारी हैं , लेख के अंत में कविता की कुछ पँक्तियां ।
    जानता हूँ कि खिचाई होगी लेकिन जो बात इतनें सलीके से इतनें कम शब्दों में कही जा सके , उस के लिये लम्बा सा लेख लिखनें की ज़रूरत क्या है ?

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  3. प्रत्यक्षा जी, फुरसत के उन दिनों की तलाश सबको ही रहती है, लगता है आजकल ज्यादातर चिठ्ठाकार उन्ही दिनों की छाँव में हैं या चिठ्ठाकार-मिलन की तैयारी में, क्योंकि चिठ्ठाजगत में अजीबोगरीब सी खामोशी है।

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  4. अनूपजी,
    कविता अच्छी लगने में सबसे बड़ा हाथ शायद इस लेखका है। आपकी खिंचाई की इच्छा को हम
    फिलहाल पूरा नहीं कर पा रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि कविता भी 'ठीकै' है।असल में
    लेख का सौन्दर्य तथा ताकत इस बात में देखी जाये कि आलसमना,फुरसताकांक्षी लेखिका से इतनी
    मेहनत करवा ली टाइप कराने में । जब कि कविता बहुत कम देर तक बाँध पायी। छायाजी,ये जो शांति है वो ऐसे ही बनी रहती है जब तक कोई इस तालाब में पत्थर नहीं डालता। उठाइये न एकाध कंकरी। फेकिंये तालाब में!

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  5. पढ़, लिख, फिर गाया सुना किस्सा सुबहो शाम
    फुरसत वाला पर निमिष, मिला न इक भी याम

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  6. कविता बेहद पसंद आयी !

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  7. Anonymous8:40 pm

    मुझे आपकी कवीता बहुत पसंद आई

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