3/29/2006

एक टुकडा छत

वृक्ष की जडों के खोह में
अँधेरा कुलबुलाता था
थोडी सी रौशनी
मुट्ठी भर ज़मीन
और एक टुकडा छत
बस इतना ही काफी है
अँधेरे को अपने
काबू में करने के लिये



मेरी छत
वहाँ से शुरु होती है
जहाँ से तुम्हारी
ज़मीन
खत्म होती है
रौशनी का
एक गोल टुकडा
बरस जाता है
किरणे बुन लेती हैं
अपनी दीवार
और हमारा घर
धूप ,साये, परिंदो
और बादल से
होड लगाता
झूम जाता है
हमारी आँखों में


मेरी छत और तुम्हारी छत
की मुंडेर अब बराबर है
तभी तुम्हारी खुशबू
पहुँच जाती है
मुझतक

मैं बारबार
नंगे पाँव
भागकर,
छत पर क्यों आजाती हूँ
ये समझ गये हो न
अब !



मैंने
रौशनी के उस
गोल टुकडे को
हल्के से
फूँक दिया है
तुम्हारी तरफ

अब तुम्हारा चेहरा भी
खिल गया है
मेरी तरह


6 comments:

  1. बढ़िया लिखा। यह छत देखकर मेरे सामने एक जीना खुल रहा है जिससे होकर मैं
    अपनी छत का हाल देख सकता हूं।

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  2. Bahut achha likha hai...

    Woh chhat bhi kabhi apni hogi,
    Jab us chhat ki chahat hogi...

    Mera bhi ek khyal hai, Magar likh nahi pa raha hoon

    Agar aap sahayeta kare to shayad likh sakoo

    khyal kuchh aisa hai

    "ke apne bade bajurg bhi ik chhat ki tarah hote hai,
    aur jo hume har tarhe ki museebat se bachahate hai...

    agar kabhi ab subhe utho aur aapko pata chale e aapki chhat gayab hai to kya hoga..."

    Mujhe umeed hai aap kuchh sahayeta karenge...

    mein kuchh tuk bandi kar leta hoo

    my blog is
    http://gauravshwe.blogspot.com/

    kripya dekhiyega

    aap mujhe email bhi kar sakate hai

    g_arora@hotmail.com

    Namaskar!

    Gaurav Arora

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  3. अच्छी पंक्तियाँ हैं । सहज और सुन्दर कल्पना । कुछ लिखने के लिये बाध्य किया । यहाँ देखें :
    http://anoopbhargava.blogspot.com/2006/04/blog-post.html

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  4. shabd keval hawaon aur roshni me hi nahi tange jo giraft me nahi aate kuchh aapke blog par bhi hain .
    :)

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  5. मेरी भतीजी जब कभी बारिश में भीगती है तो कह्ती है ,"मेरे सिर की छत पर बारिश हो रही है!"

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