3/22/2006

अनहद नाद


घुँघरू की लडी
पैरों में
ता थेई तत थेई
पीछे से
राग असावरी
अभी
दोपहर नहीं हुई



तानपूरे पर थिरकती
मेरी उँगलियाँ
आँखें मून्दे
विभोर
मैं ही तो हूँ
इस राग में
इस रंग में
मेरा संगीत भी तो सुनो




आलता लगे पाँव
कितना नाचे
हरी घास
सिमट गई अब
पाँवों के नीचे




नृत्यरता नृत्यरता
कान्हा कान्हा
मैं ही वंशी
मैं ही गोपी
नृत्तरता नृत्यरता




कितने कमल फूल
खिल गये
हृदय में
खुशबू खुशबू
तुम तक भी




अनहद नाद
काँप जाता है
पूरा शरीर
धरती
आकाश
बर्ह्माँड
सब यहीं सब यहीं

3 comments:

  1. बढ़िया है। अब आगे भी कुछ सुनाया जाय!

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  2. सब शब्द का मतलब न समझ सका लेकिन फ़ीर भी अच्छी लगी यह कविता, खासकर लाय। लेकिन प्रत्यक्षा जी मेरेपास एक माँग है अपने हिन्दी क्लास के लिए एक प्रस्तुत पेश करना पर्डता है मंगलवार है और हिन्दी चिट्टाजगत के बारे में होगा। आपका ब्लोग मुझे बहुत पसंद है इसिलिए आशा है कि आप एक जबाब दे सकती हैं मेरी सवाल को कि आप क्योंकर ब्लोग लिखते है खासकर हिन्दी में और आप हिन्दी चिट्टजगत के बारे में क्या सोचतीं हैं? अगर आपकेपास कुछ अलग ख्याल है जिसका इस्तेमाल होगा तो बताइये और शामिल करूँगा प्रस्तुत में।

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  3. ग्रेग, शुक्रिया पहले तो.
    दूसरे, ये कि ब्लॉग लिखना तो बस ऐसे ही शुरु किया. कुछ लिखते रहने की इच्छा शिद्दत से होती थी. ब्लॉग ने एक मँच दिया इस उदगार को पेश करने का. और सबसे बडी बात कि टिप्पणी के ज़रिये जो बातचीत साथी ब्लॉगर्स से होती है, वो बहुत अच्छा लगता है. प्रतिक्रिया मिलने से बहुत संतोष होता है तुष्टि मिलती है.ये दोतरफा रास्ता है और यही ब्लॉग की सबसे बडी खासियत है.
    हिन्दी में लिखना लगभग छूट गया था . ब्लॉग के ज़रिये वो भी शुरु हुआ. मेरी मातृभाषा है और जब हिन्दी में नहीं लिख रही थी तो ग्लानि का अनुभव करती थी. अब हिन्दी लिखना अच्छा लगता है.कई भाषायें सीखना चाहती हूँ (बेटे के साथ जर्मन सीखने का प्रयास कर रही हूँ )पर अपनी भाषा से जुडाव अम्बलिकल कॉर्ड जैसा होता है न.

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