4/29/2005

मेरे मन का ये निपट सुनसान तट

उँगलियाँ आगे बढा कर
एक बार छू लूँ
मेरे मन के इस निपट
सुनसान तट पर
ये लहरें आती हैं
कहीं से और चलकर

4 comments:

  1. प्रत्यक्षाजी: आपके ब्लाग की एनकोडिंग ठीक नहीं है। पहली बार में देवनागरी के दर्शन नहीं होते हैं। उसे ठीक कर लें।

    सुंदर कविता के लिए बधाई।

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  2. प्रत्यक्षा जी, ब्लॉग पर आपका स्वागत है। हिन्दी ब्लॉगियों की धीरे धीरे ही सही किन्तु बढ़ती संख्या देख कर अच्छा लगता है।

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  3. आशीष जी,
    इसमें आपके ब्लाग का काफी योगदान है ,पहले पहल आपक ही ब्लाग देखा था ,फिर देवनागरी लिखना भी आपने ही बताया.....शुक्रिया...

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  4. प्रत्यक्षा जी,

    आपकी इस कविता ने आपके अंतर्मन के भावों को कुछ इस तरह से स्पष्ट किया है जैसे मोगरे की महक अपने पहलू में है और उसकी छुअन का एहसास सिर्फ महसूस किया जा सकता है !
    आपसे मिलने की इक्षा रखता हूँ और अपनी कुछ रचनायें आपके सन्मुख प्रस्तुत करना चाहता हूँ .....

    वैभव दीक्षित
    +91-9810012681

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