चूंकि हमारे घर कोई पूजा , कथा,
रीति रिवाज की परंपरा नहीं रही, हम कई चीज़ों से अनभिज्ञ रहे , गनीमत
सिर्फ एक पूजा ठीक से होती, चित्रगुप्त पूजा जिसमें हम कागज़
कलम दवात किताबें लेकर बैठते , पिता चित्रगुप्त भगवान की कथा बताते जिसमें धार्मिक
से इतर उसका एक सोश्योलॉजिकल संदर्भ रहता। हम हल्दी के लेप से सफेद कागज़ पर एक पुरूष
चित्र बनाते, जिसके एक हाथ में कलम और दूसरे में दवात होती , ऊपर ओम और स्वास्तिक.कुछ
कुछ पुरातन भित्ति चित्र की तरह की रंगकारी होती . और सबकी अलग होती तो सबके इष्ट भी
चित्रकला हुनर के मुताबिक फरक फरक होते , लम्बे आड़े गोल मटोल
तो यही चित्र हमारे इष्ट होते, हर
किसी का अपना चित्र । फिर हम कुछ रिचुअल्स माइम करते , हल्दी कुमकुम चावल का तिलक,
पान सुपाड़ी चढ़ाना , उसी कागज़ पर अपने सबसे प्रिय पांच इष्ट देवों का नाम लिखना (
मैं हमेशा अटकती, शिव और कृष्ण मेरे प्रिय थे और चूंकि खुद को बचपन में तोप
फेमिनिस्ट मानती थी तो देवियों के नाम होने ही चाहिए थे , सरस्वती विद्या की देवी को कलम किताब की पूजा
में कैसे छोड़ा जा सकता था , काली शक्ति मेरे मन के अनुरूप थीं , गणेश जी से तो हर
मंगल की शुरुआत होती, तो ऐसा करके हर बार धन की देवी लक्ष्मी छूट जातीं )
फिर सोमरस , अब ये गुड़ और अदरक का
घोल , तुलसी पत्तों से सजा , का प्रसाद जिसे बाँटते पिता कहते इस बदलते मौसम का
सबसे बढ़िया इलाज
तो ये किताबों की पूजा एक अलग आख्यान ही था , बचपन
से चित्रकारी और इस पूजा के पीछे का मर्म मुझे खींचता , गोकि बाद में पता चला कि
कई घरों में बाकायदा कथा पढ़ी जाती पंडित जी आते
तो हमारे घर में पूजा का स्वरूप
यही था , एक उत्सव उल्लास भरा जिसमें खूब समय के हिसाब से कस्टमाईज़ेशन होता रहा
बिना डरे कि शुचिता और नियमानुसार कर्मकांड न हुये तो ईश्वर नाराज़ हो जायेंगे
ईश्वर की कल्पना हमेशा एक बेनेवोलेंट पैट्रिआर्क या शक्ति दायिनी माँ की रही है न कि कोई प्रतिशोध लेने को उतारू देवता
. वैसे हिंदु धर्म की ये बात भी बहुत फसिनेटिंग और ईंट्रीगींग है कि हमारे देवता वो
सारे भावों से गुज़रते हैं जो आम इंसान के हों , क्रोध, दया , जलन , क्रूरता , ममता , दयालुता , यानि नवरस . तो
इसका समाजशास्त्रीय कोनोटेशन भी दिलचस्प होगा . शुरु में पुरातन मानव प्र्कृति से डरा
, आग्नि , पवन , पहाड़,
समंदर , जानवरों से डरा , हर उस चीज़ से डरा जो उससे ताकतवार थी . और हर उस डरजाने वाली चीज़ को उन्होंने
अराध्य माना और पूजा की . तो शुरुआती भक्ति , भक्ति न हो कर डर
था , प्रोटेक्शन की ज़रूरत थी .
फिर जैसे जैसे चीज़ें समझ में आने लगीं धर्म और भक्ति का स्वरूप
भी बदलता गया .
खैर , तुर्रा ये कि कर्मकांड से इतने
डिटैच्ड थे कि भाई की शादी में जब किसी ज़रूरी रस्म में पंडितजी समय से नहीं आये तो
पिता ने मेरे बहनोई को कहा आप ही रस्म कराइये और इसे कराते आप ही हमारे पंडित
होंगे, कि जो पूजा कराये वही ब्राहमण । तमाम अन्य रिश्तेदारों के नाक भौं सिकोड़ने के
बावजूद ऐसा ही हुआ
तो हमारे रस्म को अपने हिसाब से
ढालने की विशिष्टता देखी
मेरी खुद की शादी एक घण्टे की थी
जिसमें हमने चुना कि क्या रस्म करना है क्या नहीं.
रस्मों का हमेशा एक संदर्भ होता है
, हर धर्म में , चाहे हमारे यहाँ यज्ञ पवीत , छठी या यहूदियों के यहाँ बार मित्ज़वाह
या क्रिस्तानों का बपतिस्मा या मुसलमानों का अक़ीक़ा
इस्लाम शरीर और आत्मा की एकता को
मानता है, जिसमें अनुष्ठान नहीं बल्कि एक मूल निर्दोषता के साथ-साथ कर्मों और व्यक्तिगत जवाबदेही के आधार पर मोक्ष प्राप्ति
होती है , उससे उलट हिंदू और ईसाई दर्शन शरीर और आत्मा को स्वतंत्र इकाई
के रूप में देखता है।
तत त्वम असि का अर्थ जीवात्मा और मरमात्मा का एका नहीं बल्कि जीवात्मा और परमात्मा के इस शरीर-आत्मा संबंध को इंगित करता है।
मेरी माँ बचपन में एक वाक्य हमेशा कोट करतीं , Religion is the opium of the people . बड़े होकर पता चला कि माँ का नहीं कार्ल मार्क्स का कोट है .पूरा उद्धरण ये रहा जो कि बहुत इंसाईट्फुल है ,
Religion is the sigh of the oppressed creature , the
heart of the heartless world,and the soul of the soulless conditions . It is
the opium of the people
घर में एमिल दुर्खाईम की किताब पड़ी होती , मार्गरेट मीड की , मैक्स वीबर , आंद्रे बेतिल , म न श्रीनिवास . माँ सोश्योलजी की प्रोफेसर थीं , तो घर में इस तरह की चर्चा खूब होती , हमारी रूचि भी थी इनमें . डुर्खाईम का ये उद्धरण
The movement is circular. Our whole social environment seems to us to be filled with forces which really exist only in our own minds. If religion has given birth to all that is essential in society, it is because the idea of society is the soul of religion.
और इसी सिलसिले में जॉन लेनन याद आते हैं . जब उन्होंने लिविंग लाईफ इन पीस लिखी थी तो उसकी एक पंक्ति यूँ भी थी
“no heaven … / no hell below us …/ and no
religion too.” उस गोल चश्मे से देखी कोई नज़र
होगी जो ऐसी दुनिया देखती थी .
धर्म हमें सोलेस देता
है , धीरज और धैर्य देता है , जीवन की विषमताओं को सहने की स्वीकृति
देता है . रस्म रिवाज़ एक टूल हैं जिसके रथ पर हम अपनी भक्ति की ध्वजा सजाते लहराते
हैं . मैं कई बार सोचती हूँ religion should be confined to one’s private space .फिर लगता है इतने रिवाज़ों में
जो साहूमिक उत्सव धर्मिता होती उसको क्यों कर तज दें .
जीवन के कर्मकांड के प्रति एक दूरी हमेशा बना कर रखी , चाहे जन्म हो या मृत्यु . हर बार
उतना ही किया जितना जी को रुचा . मुझे कोई रस्म का इल्म नहीं , न पूजा पाठ का , न विवाह छठी का . कभी कभी दुख
होता है न जानने का , हज़ारों बरस की परंपराओं का कड़ी छोड़ते जाने
का . जैसे ये एक खेला था उसे वैसे ही खेलना था , उस खेल को ट्वीक कर देने का , या शायद ट्वीक करना ही अगला इवॉल्यूशन
है ,
रोबर्तो कलासो "का" में कहते हैं ,
“It takes millions of years for the Gods to pass from one aeon to the next,
a few centuries for mankind. The Gods change their names and do the same things
as before with subtle variations. So subtle as to look like pure repetitions”
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