माँ की आवाज़ भारी चमकदार थी । उसमें खनक और वज़न था । पानी की गहराईयों से गिरता फिर अचानक अनायास किसी पंछी के परों सा हल्का होता आसमान तक उठ सकता था । मेरी आवाज़ जबकि पानी के तल पर डूबा पत्थर थी । लहरों के थपेड़े से ज़रा सा उतराता हिलता फिर थरथरा कर अपनी जगह बैठ जाता स्वर था । माँ जब बोलतीं उनकी आवाज़ दस कमरों के पार तक घूम आती । जाड़े की सर्द तेज़ी से लेकर गर्मी के ताप की धमक वो लेकर चलती । मेरी आवाज़ तेज़ बारिश में नहाया झमाया नन्हा पौधा थी । धीमे अँधेरे में खुद को सुनता चुपाता ।
माँ कहानियाँ कहतीं और बहुत हँसती । लेकिन तब कोई और ज़माना था । माँ अब कहानियाँ नहीं कहतीं । माँ अब अपने दुख गुनती हैं । मैं चुप सुनती हूँ । कई बार थक जाती हूँ फिर ग्लानि होती है । मेरी कहानियाँ माँ की कहानियों की प्रतिध्वनि होती हैं , कई बार । मेरी स्मृतियाँ माँ की विलुप्त स्मृतियाँ हैं । माँ जो भूल गई हैं , वो सब मैंने सहेज रखा है । माँ बाज़ दफा सिरे से मेरी स्मृति को खारिज़ करती हैं । मेरे ज़ोर देने पर नाराज़ हो जाती हैं , कहती हैं , तुम्हें क्या लगता है तुम ऐसे मुझे झुठला दोगी । फिर घड़ी दो घड़ी बाद बच्चे से भोलेपन से कहती हैं , मुझे सब याद है , मैं कुछ भी नहीं भूली । और अपनी बात को साबित करने ऐसी बहुत सी बातें कहतीं हैं जिन्हें सुनना मेरे लिये एम्बैरेसिंग होता है , मसलन बचपन की मेरी बहुत सारी बेवकूफियाँ |
लेकिन माँ जब गुनगुनाती हैं ,किसी गुज़रे समय की चाप अब भी सुनाई देती है । उनके गले में सुर झाँकता भागता दिखता है । उनकी आवाज़ थरथराते काँपते रस्सी पर सँभल सँभल कर पाँव जमाना होता है । पानी के विशाल कुँड में पँजे की पहली उँगली डुबाने जैसा । मैं सबसे कहती हूँ , माँ बहुत सुंदर गाती थीं । माँ बहुत सुंदर गाती हैं । माँ की आवाज़ पतली सुरीली नहीं है । माँ की आवाज़ गमकदार पाटदार है । उसके तान में बहुत लोच और पेंचदार मुरकियाँ हैं । उनके गुनगुनाने में झीसी में खड़े भीगने का सुख है और जब वो अपनी आवाज़ को खोल देंगी जैसा तब किया करती थीं , तब किसी प्रपात की तेज़ी के नीचे खड़े उसकी तेज़ी और प्रचंडता को महसूस करने का अनुभव है ।
माँ अब भूली सी गाती , चुप हो जाती हैं । मैं अकेले कमरे मे अपनी आवाज़ को खोलती हूँ , एक एक गाँठ , एक एक बन्द और एक एक रेशा । उसमें एक तत्व उनकी आवाज़ का है , एक शायद पिता का जो कहते थे , मेरी आवाज़ में पिच नहीं है , बेस नहीं है । और एक मेरा खुद का । मैं गाना चाहती हूँ , माँ की तरह नहीं , अपनी तरह , उल्लास में , दर्द में , तकलीफ में । पीछे से मेरी बेटी गाती है , राग ख़माज ।
माँ कहानियाँ कहतीं और बहुत हँसती । लेकिन तब कोई और ज़माना था । माँ अब कहानियाँ नहीं कहतीं । माँ अब अपने दुख गुनती हैं । मैं चुप सुनती हूँ । कई बार थक जाती हूँ फिर ग्लानि होती है । मेरी कहानियाँ माँ की कहानियों की प्रतिध्वनि होती हैं , कई बार । मेरी स्मृतियाँ माँ की विलुप्त स्मृतियाँ हैं । माँ जो भूल गई हैं , वो सब मैंने सहेज रखा है । माँ बाज़ दफा सिरे से मेरी स्मृति को खारिज़ करती हैं । मेरे ज़ोर देने पर नाराज़ हो जाती हैं , कहती हैं , तुम्हें क्या लगता है तुम ऐसे मुझे झुठला दोगी । फिर घड़ी दो घड़ी बाद बच्चे से भोलेपन से कहती हैं , मुझे सब याद है , मैं कुछ भी नहीं भूली । और अपनी बात को साबित करने ऐसी बहुत सी बातें कहतीं हैं जिन्हें सुनना मेरे लिये एम्बैरेसिंग होता है , मसलन बचपन की मेरी बहुत सारी बेवकूफियाँ |
लेकिन माँ जब गुनगुनाती हैं ,किसी गुज़रे समय की चाप अब भी सुनाई देती है । उनके गले में सुर झाँकता भागता दिखता है । उनकी आवाज़ थरथराते काँपते रस्सी पर सँभल सँभल कर पाँव जमाना होता है । पानी के विशाल कुँड में पँजे की पहली उँगली डुबाने जैसा । मैं सबसे कहती हूँ , माँ बहुत सुंदर गाती थीं । माँ बहुत सुंदर गाती हैं । माँ की आवाज़ पतली सुरीली नहीं है । माँ की आवाज़ गमकदार पाटदार है । उसके तान में बहुत लोच और पेंचदार मुरकियाँ हैं । उनके गुनगुनाने में झीसी में खड़े भीगने का सुख है और जब वो अपनी आवाज़ को खोल देंगी जैसा तब किया करती थीं , तब किसी प्रपात की तेज़ी के नीचे खड़े उसकी तेज़ी और प्रचंडता को महसूस करने का अनुभव है ।
माँ अब भूली सी गाती , चुप हो जाती हैं । मैं अकेले कमरे मे अपनी आवाज़ को खोलती हूँ , एक एक गाँठ , एक एक बन्द और एक एक रेशा । उसमें एक तत्व उनकी आवाज़ का है , एक शायद पिता का जो कहते थे , मेरी आवाज़ में पिच नहीं है , बेस नहीं है । और एक मेरा खुद का । मैं गाना चाहती हूँ , माँ की तरह नहीं , अपनी तरह , उल्लास में , दर्द में , तकलीफ में । पीछे से मेरी बेटी गाती है , राग ख़माज ।
Mesmerizing..
ReplyDeleteरोमांचक ! आभार ।
ReplyDeleteवीणा के तार सी न ज्यादा कसी न ज्यादा ढीली पोस्ट...बस सुरीली..
ReplyDeleteबेहद सुरीली पोस्ट... कल आपकी यह पोस्ट चर्चामंच पर होगी... आप वहाँ आ क अपने विचारों से अनुग्रहित कीजियेगा ...
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
गा लेने के बाद अब आपकी बेटी भी आपके बारे में यही लिखे... फिर आप उसे उसकी बेवकूफियां बताएं.. वो शर्मिंदा हो... वो लिखे कि आपके गाने में भी किसी गुज़रे समय कि चाप थी.
ReplyDeleteफागुन का नया रंग लिए यह पोस्ट.. उसकी प्रतिभा, आभा, ममता और वात्सल्य को सींचती बेटी ....
ReplyDeleteसंगीत के सुर और परिवार का परिवेश।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लिखा है प्रत्यक्षा!
ReplyDeleteप्रभावशाली रचना.तुम कुछ नहीं जानती..और..तुम कुछ नहीं समझतीं-- यह दो पीढियों के बीच सम्वाद का पुल है.
ReplyDeleteपढ़ते पढ़ते मेरी माँ का गाना और हम बच्चों का मुँह बिचकाना याद आ गया. सोचते थे कि माँ क्या गायेंगी, पुराने गाने, पुरानी धुने, जिसमें कभी सुर मिलते कभी खो जाते. बच्चे कभी कभी कितने क्रूर होते हैं!
ReplyDeleteसुंदर.
ReplyDeleteप्रत्यक्षा मा की आवाज़ संसार भर मे बेजोड़ होती है न ?
ReplyDeleteकितना सुन्दर लिखा है ..अम्मा की यादें घिर आयीं -
- लावण्या
बहुत अच्छी रचना। गद्य-कविता का भरपूर आनन्द मिलता है।
ReplyDeleteअद्भुत
ReplyDeleteSundar!
ReplyDeleteबार-बार..पढ़ जाऊं
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने । मां की आवाज़ कैसी भी हो दिल को सुकून देती है और किसी भी प्रकार के आकलन से परे होती है । आप ने मां की झलक एक बार फ़िर से दिखा दी । आभार !!!
ReplyDeleteऐसी भावकता हमारे संगीत की कहाँ से पाई प्रत्यक्षा ?
ReplyDeleteसंगीत के चाप का ग्रास्पिंग ऐसा कि माँ की
स्वर-ध्वनि की खनक की त्वरित पहचान बने जो हम
तक पहुंचे, सुनाई दे...जीवंत प्रस्तुति...
गाना चाहती हूँ, अपनी तरह, उल्लास में, दर्द में, तकलीफ़ में...
जिसकी अनुगूँज बेटी में सुनाई दे...हमारी मिट्टी की पहचान से
राग 'खमाज' में...
प्रत्यक्षा कहानी लिखे या संगीत की क़रीबी पहचान करे,
सबकुछ उल्लासपूर्ण...
प्रत्यक्षा प्रभावित करे, आत्मीय भी बनी रहे. साहित्य-संगीत-रंगों की
नई-नई पहचान प्रत्यक्षा...उनके यहाँ हमारे प्रचलित शब्द मंजकर
नई आभा पाए...
शिद्दत....is not everyone's cup of tea..but surely seems to be urs.
ReplyDeleteMAARMIK... अनुपम अभिव्यक्ति!!
ReplyDeleteVery expressive..nice
ReplyDeleteethereal! sublime...divine.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ब्लॉग . पहले भी आ चुका हूँ . पोस्ट फीड से आ जाती है . पर अन्य ब्लॉग लिंक्स अच्छे हैं . उन्हें भी देखा . ज्यादा तर घूम फिर कर वही लिंक यहाँ वहां मिल जाते हैं , कोई गोष्ठी है क्या ? लिखने का अंदाज़ बहुत अच्छा है . प्रवाह की तरह , पर बहुत बंधा हुआ , किनारे नहीं तोड़ता .
ReplyDeleteआप सबों को बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteब्लाग के हिसाब से छोटी सी उम्दा कहानी। आपकी कहानियां पत्रिकाओं और समाचार पत्र अब कौन सा समाचार पत्र नाम याद नहीं पढी है। 2008 के नया ज्ञानोदय में इस ब्लाग का पता दिया गया था उस आधार पर बहुत ब्लाग देखे किसी ने कुछ नहीं लिखा था और यहां भी चार माह पूर्व की लिखी कहानी मिली ।धन्यवाद
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