किसी दिन
अपनी समस्त बुराईयों के साथ देखोगे तुम , मुझे , चकित होगे कि क्या
जाना था अब तक मुझे ?
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सहलाती थी जैसे जब पिता का हाथ , जानती थी अब नहीं देखेंगे कभी हँस कर मेरी तरफ
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समय का स्वाद टूट गया विक्षिप्तता में , सब किताबें , सब संगीत , सब सब कहते हैं मेरा निजी कुछ था कहाँ , तुम तक नहीं
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किसी भीड़ में खड़े हम सब खोजते थोड़ी सी जगह जहाँ सबसे छुपाकर साँस ले सकें , भदेस तरीके से मुँह खोले ज़ोर ज़ोर की साँस , बिना तमीज़ की परवाह किये बगैर और उसी तरह से खा सकें
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कहते हैं अमिश लोगों में मृत्यु को कहते हैं कॉल्ड होम , घर से बुलावा , सोचते ही लगता है कितना सुकून , मौत भयानक शून्य नहीं कोई नर्म घोंसला है जहाँ दुबक कर सोया जा सकता है आखिरी नीन्द
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सपने में देखे जा सकते हैं नीले हाथी और सफेद फूल , सीखी जा सकती है एक नई ज़ुबान , कोई संगीत , हुआ जा सकता है उदार और महान
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ऐसा क्या सुन लिया मैंने कि कान अब तक दुखते हैं ?
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मेरी चीज़ें सब मेरी नहीं थी , कुछ कुछ सबकी थीं , और सबकी चीज़ बहुत मेरी । फिर किसी भी चीज़ पर अपना नाम न देखना दुखदायी था
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अपने भीतर आत्मा की तलाश ? कहते हैं तलाश शब्द गलत है और आत्मा भी । कहते तो ये भी कि सब माया ही है अंतत: गोकि माया तक आखिर एक शब्द ही है जिसका पूरा अर्थ हम अब तक नहीं जानते
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लोगों की चलती भीड़ के ऊपर चलता है आसमान और कभी कभी एक मंडराती चील , भीड़ से अलग जिस चीज़ का स्वाद है उसे अब तक तय नहीं किया कि अच्छा है या बुरा है । अकेला होना भी एक स्वाद है , जीभ पर बेमज़ा होते च्यूइंग गम जैसा , थका देने वाला
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गाल की हड्डी के पास साँप पूँछ फटकारता है , बाहर आसमान जो दिखता नहीं , ज़रूर नीला होगा , ऐसा विश्वास है , शायद चाँद भी निकला होगा । विश्वास के आसपास दर्द की लक्ष्मण रेखा है , बार बार लाँघती कुछ वैसे जैसे बचपन में पढ़ी निसिम एज़ेकियेल की नाईट ऑफ स्कॉरपियन
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किसी की किताब पढ़ी अच्छा लगा , कुछ लिखा अच्छा लगा , अच्छा लगना अच्छा लगा , किसी दिन कोई गाता था अल्हैया बिलावल , मैं देखती थी खुद को , लिखते किसी दिन
( विंसेंट वॉन ग़ॉग )
* अच्छा लगा ,
ReplyDeleteलिखा हुआ अच्छा लगा,
अच्छा लगा अच्छा पढ़ना!
बहुत अच्छा लगा प्रत्यक्षा जी.
ReplyDeleteबहुत अच्छा ! बहुत-बहुत अच्छा !!
ReplyDeleteआपकी भाषा प्रशंसनीय है. लिखते रहें...
ReplyDeleteऐसा क्या सुन लिया मैंने कि कान अब तक दुखते हैं ? :)
ReplyDeletelaut laut padhte hain
मेरी चीज़ें सब मेरी नहीं थी , कुछ कुछ सबकी थीं , और सबकी चीज़ बहुत मेरी । फिर किसी भी चीज़ पर अपना नाम न देखना दुखदायी था
ReplyDeleteसचमुच बहुत दुखदायी होता है ...
समय का स्वाद टूट गया विक्षिप्तता में , सब किताबें , सब संगीत , सब सब कहते हैं मेरा निजी कुछ था कहाँ , तुम तक नहीं
ReplyDeleteमौत भयानक शून्य नहीं कोई नर्म घोंसला है जहाँ दुबक कर सोया जा सकता है आखिरी नीन्द
मेरी चीज़ें सब मेरी नहीं थी , कुछ कुछ सबकी थीं , और सबकी चीज़ बहुत मेरी ।
खुबसूरत चित्र, वाक्य विन्यास और गहन दार्शनिकता
क्या बात है.......दिल खुश भी हो गया और कहीं गहरे उदास भी हो गया.....धन्यवाद।
ReplyDeleteक्या बात है.......दिल खुश भी हो गया और कहीं गहरे उदास भी हो गया.....धन्यवाद।
ReplyDeleteपढ़ना प्रारम्भ किया तो आपके हृदय की गहराई देखकर दंग रह गया। पर उद्धृत होने पर भी आपके वैचारिक स्तर को बखान जाते हैं।
ReplyDeleteबहुत अच्छा
ReplyDeleteबहुत अच्छा
ReplyDeleteओर वो रोज टटोलता है खुद को .तसल्ली के लिए के भीतर सब कुछ साबुत है के नहीं...क्या इसे ही आत्मा कहता है ..ज़माना...
ReplyDeletei like the experiment.....
and first few line is the soul of this post...
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ReplyDeleteमॉडरेशन के प्रतीकात्मक विरोध के पश्चात
आपके ही शब्दों को यहाँ कॉपी-पेस्ट न करते हुये मैं इस पोस्ट में निहित भावों की भरपूर तारीफ़ करता हूँ, जबकि पिछले कुछ दिनों की आपकी कथाओं ने निराश किया ।