2/28/2010

छत मिलेगी ? और सपना ?

बाहर सन्न हवायें डोलती हैं , उँगलियों पर दिन निकलते हैं , रात ? रात भर बात चलती है ,सपनों की दुनिया दिन के उजाले की खैरात पर नहीं चलती , सफेद पँखों वाले घोड़े की पीठ पर बेखट सरपट बहती हवा के संग किसी और छोर निकल जाती हैं

अँधेरी रात में बाँसुरी की धुन चाँद तक पहुँचती है , बेकल बेचैन फिर धीमे अपने में मगन थकी उतरती है , खिड़की पर रुकती है , कहती है , आओ चलो , साथ मेरे , हमदम मेरे

 ऐसी मोहब्बत का क्या करना , एक उसाँस भरती है , ज़िंदगी , जिसमें दुख ही दुख हों ? सुख का भी दुख ? ऐसी मोहब्बत का क्या करना ,  भला !

बन्द आँखों पर पीले पत्ते झरते हैं , बाँहों पर चलती है तितली , नींद अपनी खोह में छुपाता फुसफुसाता , एक बून्द शहद टपकता ज़बान पर , नींद ही नींद में मुस्कुराता सपना कहता ऐसा है
अपना , सब अपना

किसी और ज़माने में दुनिया से सतायी भगायी औरत पहुँचती है लथपथ बदहवास , भागती साँसों को हथेलियों में थामे , जीवन की गर्मी और आत्मा की ताप को छाती में छुपाये बचाये , पूछती है , अब कहो छत मिलेगी ? और सपना ?

  (ज़ामफीर पिकनिक ऐट हैंगिग रॉक .. पैनपाईप)
Gheorghe Zamfir - Picnic At Hanging Rock .mp3
Found at bee mp3 search engine

2/25/2010

रात के बाद


निर्मल कुहनी पर सर टिकाये दीवार का कोना देखती है । गर्मी है उमस है अँधेरा है। साड़ी का पल्ला फर्श पर फैला है जैसे नदी बहती हो , अँधेरी रात में नीली नदी , शरीर बहता है मन बहता है । कमर पर पसीने की झुलस झाँस है । फिर भी दिल में कैसी हुमस है , ऐसे इस तरह लेट लेना , किसी के पैर के नाखून का खुरदुरापन पन तलवे पर महसूस करना , न छूते हुये भी ।
अँधेरे में उसकी आँखें हँसती हैं , उसकी आँखों के कोये से रौशनी झरती है , चकमक जुगनू हँसी वाली रौशनी । अमिय चित्त लेटा बाँहों पर सर धरे धीमे से कुछ गुनगुनाता है । बिना देखे भी देख लेता है उसका हँसना

निर्मल कहती है , फिर ?

अमिय छत देखता कहता है फिर क्या ? फिर कुछ नहीं ।

कमरा उसकी आवाज़ से अचानक भर जाता है । जैसे कभी खाली नहीं था । जैसे आवाज़ की पीठ पर सवार सुख कमरे में हवा और चाँदनी की तरह पसर गया हो । वो किताबों की आलमारी , वो मेज़ वो कुर्सी वो एक अकेला पौधा । कमरा वो नहीं था अब जो होता था हमेशा। धीरे से हाथ बढ़ाकर निर्मल की बाँह एक बार छू लेता है । इस रात , इस बीच रात , यहाँ इस तरह लेटा आदमी अमिय कहाँ है । अमिय में ऐसी ठहरी हुई , भरी हुई खुशी कहाँ होती थी । इसी समय में ये और कोई समय था , इस कमरे में कोई और कमरा ..

क्यों है न ?

निर्मल सोचती धीरे से कहती है , जानते हो जब मैं गाना सीखती थी , तब लगता था इस आवाज़ की हवा पर सवार मैं चिड़िया हूँ , मेरी आत्मा में पँख लग गये हों । अब लगता है अपनी आत्मा को निचोड़ कर बाहर फैला दूँ सूखने को , मेरी आवाज़ वहाँ से टँगी झर जायेगी । और मैं यहाँ , इस कमरे में तुम्हारे साथ बिना आवाज़ के बिना आत्मा के ऐसे ही चुप बेआवाज़ बेआत्मा दफन हो जाऊँगी ।

अमिय गाने के बीच में उठता है पानी पीता है , फिर उसके पास बैठ जाता है । कहता है , सुबह में अभी बहुत समय है । उसकी आवाज़ में पूरी रात है बाकी , अभी


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निS रS मS लS

कोई पुकार रहा है बहुत दूर से । पतली खिंची तार सी आवाज़ है , जैसे आवाज़ से उसका शरीर अलग हो गया हो । उस आवाज़ में धूँआ है और तकलीफ है । दर्द में कोई मुझे खोजता है । नीन्द में कमज़ोर कुनमुनाहट में अकबका कर देखती है , साड़ी गले पर लिपट गई है । शर्मिन्दगी में उठ बैठती है । शेल्फ पर टिकी किताबें सोलेम्ली देखती हैं उसे । कमरे का अकेलापन गूँजता है । उसकी साँस की आवाज़ में धमक है । तानपुरे का तार टूट गया है , तबलची भाग गया और अंतरंग कथा कहानी में तब्दील हो गई है ।

उसने पलक को पँजो के शिखर पर रख कर फूँका , आँख बन्द की , और उनके बीच जितने भी शब्द थे उन्हें फूँक दिया ।


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अमिय कहता है , तुम बीच बीच में ऐसी उदास क्यों हो जाती हो ?

निर्मल बैठ जाती है , घुटनों को बाँह में समेटे । धीरे धीरे उसका शरीर लय में हिलता है जैसे पहाड़ा रटती लड़की । खूब छलकती हँसी से उमग कर कहती है .. जानते हो

अमिय का चेहरा स्थिर हो जाता है , जैसे चेहरे के भीतर कोई रौशनी जल गई हो भक्क से । उसकी आवाज़ के रेशे में दुलार है , कहता है ..हाँ बताओ न !

तुम्हारे अंदर एक बच्चा है न , उस बच्चे की मैं सौ खून माफ करती हूँ

और मेरे भीतर जो बड़ा है ? उसका क्या ?
उससे बेईंतहा नफरत

ये कहते निर्मल की आवाज़ सपाट हो जाती है

अमिय बेपरवाह गुनगुनाता है , तुम जो मिल गये हो .तो जहाँ मिल गया है

फिर मुस्कुरा कर कहता है .. रात अभी भी ..

निर्मल कहती है , बाकी है ..


गाढ़े अँधेरे में उनकी गाढ़ी हँसी का नृत्य डोलता है

(जेमी वाईयेथ की पेंटिंग़ ..)

2/19/2010

बारिश और बिच्छू


बहुत पुरानी स्मृतियों में , मेरी नहीं , माँ की स्मृति में , जो जाने कितनी बार दोहराई गई हैं , बरसाती दोपहरों में और कुहासे घिरी ठंडी रातों में , चाय की प्यालियों की भाप के बीच और खाने के बाद सौंफ की खुशबूदार जुगालियों के गिर्द , सोचते और फिर याद करते , अटकते उस बीते समय को पकड़ते , कोशिश करते ... और बिच्छू अब भी मिट्टी की दीवार पर रेंगता है , उसकी छाया दसगुनी बढ़ती है , उसका डंक दीवार पर पसरता है


तो , वो समय ऐसा था ,

इसी तरह उनकी कहानी शुरु होती थी ..

तुम्हारे पिता तब किसी देहात में नियुक्त थे । उन्हें एक नियुक्ति वहाँ बितानी थी और दोस्तों ने हमें आगाह किया था कि छोटे बच्चों के साथ वहाँ कितना कठिन समय हमारा बीतने वाला था जहाँ बिजली नहीं थी और अस्पताल नहीं था । एक डॉक्टर तो थे और उनका एक कम्पाउंडर , छोटा सा दुबला सा आदमी जिसकी आँखें मचकती थीं और एक मलयाली नर्स जिसके तेल भीगे कड़े घुँघराले बाल थे । एक तीन कमरे का झँखाड़ उजाड़ सरकारी डिस्पेंसरी था जहाँ कोई दवा का स्टॉक नहीं होता सिवाय कॉटन के बड़े रोल्स के ।

 
माँ फिर टैंजेंट चली जातीं , कहीं और

मैं उन्हें वापस लाने की कोशिश करती , हाँ हाँ ,लेकिन उन बिच्छुओं का क्या ? ओह ! वो ? पर वो तो हर तरफ थे , जूते में , रज़ाई के भीतर , कमीज़ की तह में , पतलून के पैर में , और एक बार तो उस पजामे में भी जो मैंने तुम्हारे पिता को पहनने को दिया था

और फिर ?

फिर क्या ? वो भाग्यशाली रहे , बिच्छू बस फिसल कर नीचे ज़मीन पर गिरा , उलट गया फिर कुछ पल उलटा तड़फड़ाया , सीधा हुआ और तेज़ी से अँधेरे में बिला गया । बेचारा , शायद तुम्हारे पिता से भी ज़्यादा सहमा डरा हुआ होगा .. माँ एक लम्बी गहरी साँस लेती हैं । दीवार पर परछाईं गहराती है फिर ज़रा काँपती है ।

वहाँ बिजली नहीं थी । हर कमरे के लिये एक लालटेन और तुम्हारे पिता के काम करने के लिये एक पेट्रोमैक्स ।

मुझे एक फोटो की याद है जिसमें पिता अपने काम के बीच ऊपर देख रहे हैं , उनके चश्मे का काला फ्रेम उन्हें बहुत गंभीर दर्शा रहा है एक किस्म की संजीदा खूबसूरती के साथ । उनकी भौंहे प्रश्न में उठी हैं और एक पुराना पेट्रोमैक्स बगल की मेज़ पर रखा है ।

शायद ये वही पेट्रोमैक्स था या उस जैसा कोई और ।

मैं तस्वीर हाथ में रखती हूँ , सहेजती हूँ । अब कोई नहीं है ... न माँ , न पिता । मेरे ऊपर छत नहीं है । आसमान खुला है और हर समय बारिश होती है ।

हड़बड़ी में जीना मुझसे कितनी गलतियाँ करा गया .....

कुसुम कुमारी कुँज बेहारी


सपने के भीतर एक और सपना था , पानी पर तैरती मरी मछली के पेट जैसा , पीला फीका और निस्तेज़ । ऐसा नहीं था कि जागी दुनिया कुछ शोख चटक थी लेकिन सपनों से एक दूसरे उड़ान की कल्पना और उम्मीद तो रखी ही जा सकती थी । शहरज़ाद की हज़ार कहानियों वाली अरेबियन टेल्स की तरह हर रात का नया सपना था और हर सपना दूसरे से अलग ।

अब मसलन कल पिता को देखा सपने में , मुस्कुराते हुये । जबकि असल ज़िन्दगी में कभी मुस्कुराये नहीं । रोते बिसुरते पैदा हुये और वैसे ही गये । या फिर तीन दिन पहले किसी स्कूली साथी को देखा जिसका नाम तक याद नहीं । याद तो शकल भी नहीं , सिर्फ सपने में आभास था कि साथी है । हफ्ते भर पहले किसी नवजात शिशु को देखा और महीने भर पहले खुद को मरते । पिछले साल सिर्फ दूसरों के सपने देखे । अच्छे बुरे डरावने दयनीय । उसके पिछले सिर्फ अपने देखे थे । हर सपने में कोई छोटा सा भी रोल सही । वैसे ही जैसे हिचकॉक अपनी फिल्मों में किसी एक सीन में दिख जाता । सपनों की एक आर्काईव बना रखी है । टैग्ड अंड प्रॉपरली फाईल्ड । जैसे उसके लाईब्रेरी में होता है । सब तरतीबवार क्रॉनॉलिजिकल ऑर्डर में । अँख मून्द कर भी वो कैसी भी शेल्फ तक किसी भी किताब तक पहुँच सकता है ।

मसलन अगर कहा जाय सिंक्लेयर , तो उसे पता है कि पहले सीधे जाकर बायें तरफ वाली दूसरी खिड़की के बगल से मुड़ कर फिर दस कदम चलने के बाद बायें मुड़ते ही जो शेल्फ है उसमें सब “स” वाले लेखक हैं । सिंक्लेयर तीसरी रैक पर बीच में है । उसके बगल में एक तरफ डेविड सिल्कॉक्स हैं और दूसरी तरफ रॉस स्कोगॉर्ड , उनके कुछ बाद में सूसन सॉनटॉग हैं । इसी तरह हिंन्दी सेक्शन में उसे किताबें पता हैं । जुलूस कहो तो आँख मून्दे रेणु तक जा पहुँचेंगे और हैदर कहो तो प्यार से मुस्कुराते कारे जहाँ दराज़ छू लेंगे ।

सपने भी उसी तरह फाईल्ड हैं। पत्नी बैठी सेम की फली, रात के खाने के लिये , काटती कहेगी , पता है बच्ची फुआ का पोस्टकार्ड आया था , बेचारी एकदम अकेली पड़ गईं हैं । पत्नी का बोलना चालू रहता और इधर इनके दिमाग में चार साल तीन महीने और आठ दिन पहले देखे सपने में बच्ची फुआ का रंगीन साड़ी और हाथ हाथ भर लहटी में इतराते डोलना याद आता है । अब मज़े की बात है कि फुआ बेचारी बाल विधवा हैं । गौना के समय पति साँप काटे से सिधारे । तो जबसे साड़ी पहनने की उम्र हुई सफेद के सिवा दूसरा कोई रंग बदन को छुलाया नहीं |

सपने भी देखो कैसी करामात दिखाते हैं । जो होगा नहीं वो दुनिया भी दिखती है या वो ही दिखती है । सब अतृप्त इच्छायें , अपनी सबकी । सब नसीब !

किताबें पढ़ने का शौक भी इसी तरह उपजा । सिनेमा देखने का भी और सपने देखने का भी । अब सब गड़मड़ होता है , किताब सिनेमा सपना । सपने में भी कोई बूढ़ा मछली मारने समन्दर में निकल पड़ता है , किताब का अनाम पात्र डोंगी में उतराता है और खुद किसी दरियाई घोड़े से रास्ता पूछते भूलते भटकते पसीने से तरबतर जागते हैं , हाथ आती एक भी मछली नहीं है । पत्नी चाय का कप चेहरे पर ठेलते बुड़बुड़ाती है , रात में सपना ? दिन में सपना? पर उसका क्या बुड़बुड़ाना और क्या हँसना । उसके नसीब में सपने कहाँ ?

लाईब्रेरी के टूटे काँच वाली खिड़की पर फट्टा ठोकते कीलों की गिनती याद रहती है । ये याद रहता है कि “ब” वाली शेल्फ खिड़की के पास है और बारिश के दिनों में झपाटे से पानी हवा के साथ किताबों पर पड़ती है । बटरोही , बालशौरी रेड्डी , बाबू देवकी नंदन खत्री , बिमल मित्र और बंकिम बाबू ..सब भीग कर गलगला गये हैं । ऊँची छत पर शहतीर से टिका लम्बे डैने वाला पँखा घों घों आवाज़ से धीमे धीमे घूमता है । ठीक नीचे मेज़ पर फैलाये भीगे किताबों के पन्ने फड़फड़ाते हैं । उनके भीतर कैद सपना हुलकता है , कहता है देखो मुझे देखो , किताब कहती है पढ़ो पढ़ो । पत्नी आजिज आ कर कहती है , मैं मायके चली , तुम सँभालो अपना राजपाट ।

किताबों के बीच , सपनों के बीच आदमी सोचता है , यही ठाठ हैं अपने , यही सपनों की यारी, यही मेरे अजीज़ मेरे हमनफ़स हमनवां । बड़े प्यार से बड़े जतन से किताबों को पोछता छूता है । ऐसी खुशी ऐसी ! जैसे मीठे शराब के नशे की धीमी दम तोड़ती नब्ज़ उतरती उदासी । नसीब में सपना है , किताब है , सपने का सपना है ..

बाबू देवकी नंदन खत्री “कुसुम कुमारी” के बीच से झाँकते आँख मारते हैं , एक और गया , गुलफाम !

2/14/2010

अँधेरे में अकेले

एक बगीचा था । धूप से भरा । एक कमरा भी था जिसकी दीवारें नहीं थीं । बगीचे की नीली छत थी । कमरे में हरियाली थी । औरत सोचती थी यही जन्नत है , भीतर बाहर । ऐसा सोच कर उसे बेतरह खुशी मिलती थी । और इतना कहते ही एक अकेली चिड़िया आसमान में एक तीखे उड़ान में निकल पड़ती थी ।

***

भागते हुये रेल की खिड़की से टिके उसका बदन हिलता था लय में । दूर देश है जाना , मेरी जान , दूर देश । खुले दरवाज़े से लगे , टोकरी पैरों के पास समेटे उस देहाती औरत का तीखा चेहरा किसी इजिप्शियन रानी जैसा है , वही ठसक भरा लालित्य । लेकिन यहाँ कैसे । औरत बीड़ी सुलगाती , उठते धूँये के पार थिर आँखों से देखती है । फिर आँख से आँख लड़ाये मुस्कुराती है । मुस्कुराती है ? जब तक मुस्कान का सिरा पकड़ में आये , मुस्कान समझ में आये , रेल गायब हो जाता है । तेज़ हवा से आँखों में आँसू भर जाते हैं । बिना छत के बैठना , बिना दीवार के टेक के बैठना , कितना बेसहारा । अँधेरे में अकेले , कितने अकेले ।

***

समूची दुनिया कितनी गलत है ।

या तुम गलत हो ,

उसकी आवाज़ में कितनी हँसी है , हँसी का सुख है । वो ठहर कर अचरज से देखता है , हाथ आगे बढ़ाता है ,

छू लूँ , पकड़ लूँ ?

क्या ?

पूरी गँभीरता से कहता है , वही सुख ! जो तुम्हारे हँसने में है

तुम कुछ कुछ पागल हो

मैं कुछ कुछ होशमन्द हूँ

वो धीमे से आँखें बन्द करती है , कुछ सोचती है , फिर अपना चेहरा आगे बढ़ाती है ,

लो

आदमी उदास हो जाता है , बहुत उदास । सब तरफ अँधेरा छा गया हो जैसे । फिर भी हिम्मत कर औरत को चूमता है , पहले उसके माथे को फिर होंठों को । फिर हकबका कर उसके होंठों को बार बार चूमता है , हँसी का सुख कहीं नहीं मिलता । गाढ़ा काला दुख हरहरा कर भरता है । धीमे से फुसफुसा कर कहता है , ओह ! इतना दुख

औरत कहती है , कितना अँधेरा है और तुम जाने क्या क्या सोचते हो । फिर कहती है , हमसफर ?

***

चिड़िया गोल चक्कर काटती लौटती है , पूछती है , यही है दुनिया ? बस इतनी सी ? कैसे माया जाल में मुझे फँसा रखा था अब तक

क्या बगीचा और कौन कमरा ? किधर को जाती कैसी रेल ?

                                                        ***

(रिचर्ड रे की लवर्स )

15 माईल्स ... अंतिम भाग

‘‘ओ... यू...?’’ जैसे उसकी रूह उसके तन-मन के हाथ पकड़ कर नाच उठी। उठने लगी तो उसने उसके कंधे पर हौले से हाथ रख कर रोक लिया और खुद भी बैठ गया।

वह उसे कंधों पर से भारी-भरकम सैक उतारते देखती रही।

‘‘कैसी हैं आप?’’ वह आवाज उसकी नसों में उतरती चली गई।

‘‘व्हेयर हैव यू बीन सो लौंग? जैसे 15 माइल्स में मेरे पंद्रह जन्म बीत गए...’’ बोलते हुए वह उसकी आंखों में चाह कर भी नहीं देख सकी।

दोनों जानते थे कि सिर्फ पंद्रह दिन पहले वे यहां मिले थे।

वह उसकी पलकों के पीछे की चमक को देखता बोला, ‘‘हां... जैसे पंद्रह युग बीत गए... उस दिन लगा था कि बिछुड़े हुए मिल गए...’’

‘‘और मिलते ही बिछुड़ गए...’’

‘‘आज फिर मिलने को...’’

दोनों हंस पड़े।

‘‘सोचता था, आप जहां से आई हैं, वहां लौट गई होंगी।’’

‘‘तब आप यहां आते ही क्यों?’’ वह शरारत से मुस्कराई।

‘‘पौ फटते ही रोहतांग जाने को निकला था... पीठ पर यह ढेर सामान लेकर... लेकिन मनाली से आगे रास्ता बंद था... लौटते हुए घर तक की टिकट ली, मगर पता नहीं क्यों यहां उतर गया?’’

‘‘नहीं जानते हम... कि कौन उतर आता है हम पर... और कहां उतार दिए जाते हैं हम... अंतिम सांस तक... या पहली सांस तक वापस...’’

‘‘एक्जेक्टेली... नहीं जानता था कि आपके पास जा रहा हूं... आपको आपके बावजूद तलाश करने... इवन इनसाइड मायसेल्फ... उन निशानियों को फिर से देखने जो पिछली बार भीतर रह गई थीं... ’’

‘‘निशानियां आपने छोड़ी थीं, मैं तो अवाक् थी... ’’

‘‘मैं उस वक्त भी बता सकता था कि आप क्या कहना चाहती हैं... और अब भी... लेकिन नहीं बताऊंगा... क्योंकि आप मेरे जानने को तब भी जान गई थीं और अब भी जान रही हैं...’’

‘‘कुछ छोड़ते ही नहीं आप मेरे लिए... क्या कहूं?’’ वह अपने हाथ में पकड़े सैंडविच को देखने लगी।

‘‘यह भी छूटा रह गया है आपसे...’’ उसने उसके हाथ को पकड़ कर सैंडविच उसके मुंह से लगाया और खुद दूसरा सैंडविच उठा लिया।

‘‘थैंक्स... ’’

‘‘किस बात का?’’

‘‘क्योंकि आप जान गए कि मैं भूखी हूं और आप भी...’’

वह जोर से हंसा। फिर संजीदा स्वर में बोला- ‘‘आज मैंने दूसरी बार सुना... आपका थैंक्स...’’

‘‘आह!’’ उसकी जान निकल गई- ‘‘उस रोज सुन लिया था न!’’

‘‘हां...’’

‘‘देन अगेन थैंक्स... सोचती थी आप बहरे हैं।’’

‘‘और मैंने तो गूंगी मान ही लिया था आपको।’’

अब दोनों बहुत हंसे... एक लंबी खामोषी में जाते-जाते...



देर बाद-

‘‘मैं आज तक ‘15 माइल्स’ नाम का रहस्य नहीं समझी...’’

‘‘यह जगह कुल्लू शहर से 15 मील आगे पड़ती है... यहां आबादी होती तो शायद कोई दूसरा नाम होता। अच्छा हुआ यह कुदरत बची रह गई और 15 माइल्स एक कुदरती नाम हो गया... रहस्यमय नाम...’’

‘‘हमारी तरह...’’

‘‘दैट्स व्हाय...’’ वह पेड़ों के झुरमुटों में नजरें घुमाता और उसके गाल पर पड़ते भंवर तक लौटता बोला, ‘‘तभी तो दिस ‘15 माइल्स’ स्माइल्स... एंड दिस इज़ अवर न्यू माइलस्टोन...’’

उसने क्षण भर को उसकी आंखों के पार की लौ को देखना चाहा।

‘‘आपके लिए कुछ लाया हूं... अपने काॅटेज वाले बगीचे से... आप न मिलतीं तो अकेला इन्हें छू भी नहीं सकता था...’’ वह अपने थैले की बाहरी जेब पर झुका और बहुत से अखरोट उसके सामने रख दिए।

दोनों की नजरें देर तक मिलीं... दो जोड़ी पारदर्शी आंखें उन दोनों के अक्स अपनी पुतलियों में लेकर कुछ क्षण के लिए मुंद गईं। जैसे नदी ने अपनी तरलता और जंगल ने अपनी हरियाली भी उन आंखों में रख दी। अस्तित्व ने चुपके से उनकी तस्वीर उतार ली... क्लिक... अपने रिकार्ड के लिए।

वह अखरोट तोड़ने लगी।

‘‘जब आप लेने का आग्रह नहीं रखते तो नेचर आपको आपका हिस्सा देने को मचल उठती है...’’ वह उसकी हथेली पर अखरोट की गिरी रखते हुए बोली।

हवा उनके नवेले रोमांच को अपने पंखों में लेकर पेड़ों पर जाकर गुनगुनाने लगी।

वे सहज भाव से अपने साथ लाई चीजों को खा रहे हैं... मानों कई दिनों से साथ हों... जैसे सदा से... दूर-दूर रह कर बहुत पास...

कभी-कभी समय और उसका बोध गिर जाता है... बहती नदी में जिस पल ‘वह’ मिला, वही पल उसका... सूखे हुए पत्ते हों, तिनके हों, टूटी हुई टहनियां हों या बड़े-बड़े तने... या जंगल घने... या नदी में झिलमिलाते पहाड़ अनमने... मन षोर न मचाए तो हर चीज अपनी जगह ठिकाने से है... चैन से... अपने सही पते पर...

दोनों पास की एक पगडंडी की तरफ उतरे, जो फूलों से भरी कंटीली झाड़ियों से घिरी थी। एक जगह हाथ बढ़ा कर वह झाड़ी को हटाने लगी तो उसने कहा, ‘‘इन्हें छुइए मत... बस सिर को झुका कर निकल जाइए।’’ उसने वैसा ही किया और आगे निकल गई।

चलने के सलीके आ जाएं तो कांटे भी रास्ता देते हैं।

एक खुली जगह पहुंच कर वे ढलान की तरफ पैर लटका कर बैठ गए। सामने नदी नए रूप में थी।

‘‘यहां धूप गुलाबी है... और जोगिया भी... आपके गालों की तरह...’’

ये शब्द उसके भीतर कुछ जोर से पड़े... वह एक टंकार से भर गई और मुड़ कर उसकी आंखों में देखा... शरारत नहीं, एक सच था वहां... अविचलित!

‘‘मुझे नदी के बहाव के निकट बैठना बहुत अच्छा लगता है... पल-पल बदलने वाले जीवन जैसा बहाव... जो बीत जाता है, वह वापस नहीं आता... आप क्या सोचते हैं?’’

‘‘आप यह भी जानती हैं कि कुछ ऐसा भी है जो नहीं बदलता... रूप चाहे कितने भी बदले... जैसे आकाश... जैसे धरती... जैसे...’’

‘‘जैसे?’’

‘‘जैसे आप... यह देखिए, अपना एक रूप...’’ उसने उसके सामने अपने मोबाइल कैमरे की स्क्रीन कर दी, ‘‘आप चट्टान पर बैठी जब झुक कर पानी पी रही थीं, मैंने छिप कर आपकी तस्वीर उतार ली थी... लगा था कि कोई परी उतरी है आकाश से नदी पर... कितनी अनोखी हैं आप इस तस्वीर में... लेकिन घूमफिर कर हैं तो आप ही!’’

वह चकित थी... मैं इस तस्वीर में हूं या इस तस्वीर से बाहर? या दोनों से पार... कि दोनों में?’ वह एक आब्जर्वर हो गई... वह कौन है जो देह और छवियों के न रहने पर भी रूप धरने आता-जाता रहता है और हमसे ‘हमारा’ मिला कर ही मानता है?

लेकिन एक शाश्वत अजनबी भी तो बैठा है भीतर।

‘‘क्या सोच रही हैं?’’

‘‘आप बताइए... या अपनी रची किसी ग़ज़ल से बुलवाइए!’’

‘‘जब भी खुद को हूबहू देखा, एक पराया शख्स रूबरू देखा...’’

‘‘हां... यही... हूबहू...’’



वे लौट आए हैं...

वह बैग में से पानी की बोतल निकाल रही है, जिसमें पानी बहुत कम रह गया है...

‘‘अभी जाकर पानी लाता हूं...’’ वह बोतल लेकर नदी की ओर चला गया... वह उसे देखती रही... कैसे मिल गया है यह मुझे इस तरह? किसकी साजिश है यह? इसने मेरी प्रतीक्षा को हवाओं में... अपनी शिराओं में महसूस किया होगा... अपनी खोज की पगडंडियों पर मेरी आहट सुनता आया होगा... कैसे मिल गई मैं इसे? यह किसकी प्लान है?

वह पानी लेकर लौट रहा है... पेड़ों में से छनती धूप में लंबे डग भरता चला आ रहा है... उसे इस तरह अपनी तरफ आते देखना कितना आह्लादकारी है... अपनी ही रहस्यमय आत्मीयता से सहसा साक्षात्कार!

उसके भीतर एक नृत्य उठा... उसके लहू में नानी का प्रिय सूफियाना गीत ठाठें मारने लगा:

‘यार पाया सैंयो... मैं तां अपणा आप गंवा के नी...’

वह कुछ और नजदीक चला आया है... वह देख रही है...

‘मैं ता हर इक जाप भुला के नी... यार पाया सैंयो...’

हर जोग या संजोग उसी के लिए है, जिसमें हम समूचे उद्घाटित होते हैं।



उसने पानी उसके हाथ में दे दिया है...

वह बावरी सी हो गई है... ‘हां...इस अमृत की तलाश में थी मैं... बस, यही एक... पढ़ लिया हमने इक-दूजे को... एक हुए हम... जिसमें हम हो सकते हैं, उस एक को अपने में ले लो... इक अलफ पढ़ो, छुटकारा है! अब क्या चाहिए? हम एक-दूसरे में से सारे वसंत उगा लेंगे... देहरियां और नेहरियां बना-बना कर... अपना एक घर... एक नगरी... और वो सारे रंग, जो हमसे बनने हैं...’

उसे अपने वजूद से फूटती कोंपलें महसूस हो रही हैं... पता नहीं कितने तप से मिली है यह दुर्लभ देह? कितने निराकार तरसे होंगे इस आकार के साकार को?

‘एहि नगरी में होरि खेलो, री!’ उसने पानी का घूंट ऐसे भरा, जैसे पानी समेत पानी लाने वाले को घूंट-घूंट पी रही हो... ‘अस्तित्व ने मुझे जो सबसे बड़ी नेमत दी है... मेरी काया... आज पहली बार उस पर सही-सही दस्तक सुनाई दी है...’ वह नानी के सारे गीतों का मर्म जानने लगी है... वे जब बहुत सुकून में होती हैं तो गाती हैं-

‘धन! मोरी आज सुहागन घड़ियां...

निहुरि-निहुरि मैं अंगना बुहारूं...’

वह उसे पानी पीते देख तृप्त हो रहा है...

उसे पानी पकड़ा कर अब वह उसे देख रही है... पिछली बार उसने काली जैकेट पहन रखी थी, आज काले कोट में है...

‘तुम्हें काला रंग बहुत पसंद है क्या?’ वह मन ही मन उससे पूछती है और खुद ही उत्तर देती है-

‘नहीं, तुम्हारी खोज में सारे रंग एक रंग में छिप गए थे... विछोह के रंग में! अब देखना कितने रंग निकलेंगे, इस राज़ भरी रजनी में से...’

‘‘बहुत ठंडा है न पानी... भीतर तक जमा देता है...’’ वह उसके अंतिम घूंट के बाद बोली।

‘‘नहीं, भीतर तक पिघला देता है... बर्फ के भीतर एक खास तरह की गर्मी होती है... कभी स्नोफाल के तले देर तक घूम कर देखना... हवा ठहर जाती है... पसीने पड़ते हैं...’’

‘सब जानती हूं... बर्फ में जन्मी हूं मैं... लेकिन अभी नहीं बताऊंगी... छकाऊंगी बाद तक... देखना... सिर्फ हिंदी भर जानने वाली परदेशन समझ लिया है तुमने मुझे...’ वह मन ही मन बोली। फिर जाने कैसे हंसती-हंसती कह गई, ‘‘तुम्हें पड़ते हैं पसीने?’’

उसने उसकी हंसी को सलज्ज और रक्तिम कर दिया, ‘‘जितने इस वक्त पड़ रहे हैं, उतने नहीं! कहां से आ गई हो तुम... अकस्मात्? कैसे सहेजूं... कैसे संभालूं? मेरा पात्र छोटा पड़ गया है... कहां से लाऊं ऐसी बांहें, जिनमें यह नूर भरपूर समा सके...’’

वह आंखें झुकाए हंसी और मन ही मन बोली, ‘कुछ उपाय करो न!’ फिर चेहरा घुमा कर सामने चट्टानों से फिसलते झरने को देखती रही।

जब तक वह उसकी ओर मुड़ती, वह अपने लंबे बैग में से अपना नन्हा तंबू निकाल पर उसे बगल में तान रहा था। वह हैरत से देखती रही... उसे याद आया कि उसकी मां के पास भी ऐसा ही नन्हा तंबू हमेशा रहता है।

देखते ही देखते तंबू तन गया... वह उठी और उसमें घुस गई।

‘‘मेरा घर...’’

‘‘हां... सिर्फ तुम्हारा...’’

‘‘हमारा...’’

वह उसकी गोद के तकिये पर आंखें बंद किए पड़ी है।

‘‘तुम हो तो सब कुछ है...’’ वह उसके भूरे बालों से खेल रहा है।

वक्त ठहर गया है।

‘‘क्या सोच रहे हो?’’

‘‘आय विल स्टे हियर टुनाइट...’’

‘‘अलोन?’’

‘‘विथ माय ऑल इन वन! नाउ आय’म नॉट अलोन...’’

‘‘यह तंबू कहां-कहां जा चुका है तुम्हारे साथ?’’ उसने बात बदली।

‘‘हिमालय के कितने ही सीमांतों तक... लद्दाख में फौजियों के बीच... मस्त घुमक्कड़ों के रैनबसेरों में... कितनी ही कहानियां हैं... कुछ लिखी भी हैं...’’

‘‘हम जैसे लोग रचे बिना कहां रह सकते हैं?’’

‘‘हां... ओव्हरफ्लो होता है... इमेजिनेशन के पार... हकीकत के द्वार पर... दुनिया के बनाए सच से अलग... वहां तक, जहां हम नहीं रह जाते... कोई और चला आता है हम में हमारी कहानियां रचने...’’

वह उसे देखते-देखते सहसा धीमे से कह उठी-

‘‘तुमसे नया जन्म लूँगी मैं... एक नाम मिलेगा मुझे! अभी तक तुमने मेरा नाम भी नहीं पूछा...’’

‘‘तुम में पनाह मिलेगी मुझे... मेरे द्वार को पार करोगी तो हमारे नाम हमारे होंठों पर आ जाएंगे...’’ वह उसके देखने को देखता रहा।

‘‘हम सिर्फ साक्षी हैं इस होने के... है न?’’ वह कहीं डूब गई।

‘‘हम इस कायनात के प्रति खुले रहें तो हमें पंख लग जाते हैं... क्योंकि हम स्वयं सृष्टि हैं... इसके स्वभाव का हिस्सा... एक ऐसी नथिंगनेस, जो अपने स्वभाव में ही एवरीथिंग है।’’

‘‘असंभव का चिंतन सारे लॉजिक तोड़ देता है... ओ, मेरे ‘नथिंग’... नाचीज... मेरे षून्य...’’ उसके अंतिम शब्द पर वह चैंका। वह कहती रही-

‘‘कुछ और कहो... कहते रहो...’’ उसने उसके माथे पर अपने दहकते होंठ रख दिए और अपनी गर्दन पर गर्माते उसके होंठों और सांसों को पीती रही।

‘‘वर्ड्सवर्थ अपनी रचना से जहां पहुंच जाते हैं, वहां आइंस्टीन हक्केबक्के हैं... जहां पहंुचते हैं, वहां भी उन्हें कहना पड़ता है कि कहीं नहीं पहुंचे... यात्रा भी बाहर ही होती रही... जो खोजा, वह हिरोशिमा और नागासाकी हो गया। तुम देखो... राधा या मीरा अपने चांद इसी धरती पर पा लेती हैं और टैगोर अपनी रचना में समूचे प्रेम को...’’

‘‘मैं इसके अलावा कुछ नहीं जानती कि हमने एक-दूसरे को जाना है...’’ उसने उसके सीने से लग कर उसके गले पर अपने होंठों को तड़पता-मचलता छोड़ दिया।

‘‘हां... यही! मेरी प्रकृति... मेरी वनपाखी... वन्या!’’

अब वह चैंकी उसके अंतिम शब्द पर।

‘‘यहीं से हम हर कहीं पहुंचते हैं अप्रयास... तुम्हें भूख लग रही होगी...’’ वह उसका हाथ पकड़ कर बाहर आ गया और आसपास पड़ी सूखी लकड़ियां बीनने लगा। वह देखती रही... उसने दो पत्थरों से चूल्हा बना कर सुलगाया और थैले में से एक बहुत छोटा पतीला निकाला। उसमें पानी डाल कर चढ़ाया, फिर एक लिफाफे में भरा हुआ चाय का सामान निकाल लिया। चुटकियों में चाय बन गई और दो गिलासों में छन भी गई।

वह अपने थैले से बिस्कुट निकालते हुए सहसा जोर से हंसी- ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘जब तुमने कहा कि मुझे भूख लग रही होगी... तब खयाल आया था कि शायद मेरी भूख के तले तुम्हें अपनी गर्दन खतरे में दिखाई दे रही है। उस घड़ी हंसना असंभव था मेरे लिए...’’

‘‘भयंकर हो तुम!’’

‘‘प्रलयंकर!’’ वह नजरें नीची किए रही।

‘‘बुरा फंसा! चलो, इक बार फिर से...अजनबी बन जाएं हम दोनों...’’

‘‘जरूरत नहीं है... वह हम सदा से हैं-स्त्री-पुरुष... असाध्य अजनबी! एंड दिस इज़ द ब्यूटी ऑव अवर एनकाउंटर... इसी में यात्रा है... नवनीत! बहुत तड़पेंगे हम मिलन और विछोह में... देखना! मुझे जैसे यह अहसास मां के गर्भ में हो गया था... मिलते ही नए रहस्य और नए दर्द हाथ लगते हैं... षायद भीतरी जगत में अभिन्न होने तक!’’



‘‘कहां से आई हो तुम?’’ वे फिर से तंबू में हैं।

वह उसके सीने की टेक लिए सामने थिरकते झरने को देख रही है चुप... बंद आखों में उसके गर्म ष्वासों की आंच से तपती... सिहरती...

‘‘बताओ न...’’

‘‘यहीं पास से... पर्वत की बुलंदी वाले एक बाग से... अपनी ग्रेनी...नानी के यहां से... और मां बाप... ’’

‘‘मां-बाप...?’’

‘‘वे जब एक-दूसरे से अलग होकर अपनी दिशाओं में निकल गए तो मैंने नानी को चुना। मेरे अधिकांश फलसफे नानी से विकसित हुए हैं... जैसे मेरी सखी हों... उनके भीतर एक ठेठ पहाड़न, एक पुरानी पंजाबन और अंततः एक एवरग्रीन लड़की हमेषा रहती है... मेरी भाशाओं... मेरे गीतों... मेरी सारी भीतरी यात्राओं की हमराज हैं वे...’’

तभी बगल में पड़ा उसका फोन बजने लगा-

‘‘कहां है मेरी हवा-हवाई?’’

‘‘एक जन्नत की आगोश में! आपका ही जिक्र था जुबान पर... कुछ और उम्रदराज हो गईं आप! नानी... आज रात यदि मैं इस जन्नत में रुक जाऊं तो?’’

‘‘अगर वह जन्नत तुम्हें गहरा सुकून और पनाह देती लगती हो... और तुमसे खुद को धन्य पाती हो तो रुक जाओ... यू कैन चूज योर हर इक चीज़... एंड चीज़ी... जस्ट बिकम मोर ईज़ी...’’

‘‘लव यू, ग्रेनी... सुबह के सूरज के साथ आपको फोन करूंगी।’’

‘‘खुश रहो... आय’म नाॅकिंग हैवन’स डोर... आज तक के तमाम रूहानी रिश्तों और फरिश्तों से कहती हूं कि तुम्हारी और तुम्हारी जन्नत की हिफाजत और परवरिश करें... द एवर अननोन विल टेक केयर ऑव यू... ऑव योर यूनिवर्सल अवेरनेस... योर दिव्य दीवानगी...’’

वह ठगा सुनता रह गया, फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हारी नानी के कदमों में झुक गया हूं... ऐसा क्या करूं कि उनकी यह अमानत उनके पास लौटने तक उनके लिए और भी बेशकीमती हो जाए... और उस अमानत के पहलू में मैं भी...?’’

‘‘... ... ...’’

‘‘कुछ सोच रही हो?’’

‘‘नहीं... सुन रही हूं...’’

‘‘कहीं और भी पहुंच गई हो...’’

‘‘अपनी अनोखी मां की डायरी का एक प्रेम-पन्ना याद आ रहा है... सुनो... डायरी के उस पन्ने पर उनकी रची ये पंक्तियां भी हैं...

‘मन ने जो माना, किया हमने...

तन ने जो जाना, जिया हमने...

छण ने जो छाना, पिया हमने...’ ’’

‘‘ओह!’’ वह ठगा रह गया- ‘‘तुमने कभी उन्हें गाते सुना है?’’

‘‘अब तो भीतर ही भीतर गाती होंगी... नानी बताती हैं कि जब मां मेरी उम्र की थी तो अकसर बाहर बाग में तंबू लगा कर सोतीं... देर रात नानी अचानक बाहर आतीं तो मां को गाती सुनतीं...’’

‘‘जैसे?’’

‘‘लता के गाए हुए गीत... जैसे ‘शम्मा हो जाएगी जल-जल के धुआं आज की रात... आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे...’ अकेलापन... आउटसाइडर होने का अहसास... मिट जाने के क्षण की रचना...’’

‘‘उन्हें क्या अच्छा लगता है?’’

‘‘घूमना, पढ़ना... और लिखना... मगर वे न सिर्फ दूसरों का लिखा, बल्कि अपना लिखा भी इन्वर्टेड काॅमाज़ में ही रखती हैं... इसके लिए कोई सफाई नहीं देतीं...’’

‘‘सफाई तो उथलेपन को चाहिए। जो सचमुच रचा जाता है, वह हमारे बावजूद आता है... हम तो बीच में होते हैं माध्यम भर... या इन्वर्टेड काॅमाज़ से बाहर... हम जितना भी अनावश्यक रचते हैं, उसमें ही रचनाकार होने का दावा और छलावा कर सकते हैं।’’

‘‘कितने अपने निकले तुम!’’ वह देर तक आंखें मूंदे उसकी बांहों में पड़ी रही। फिर उसके होंठों से सिहरती... अपने तन, मन और क्षण को एक साथ लेकर उसके सीने में चेहरा छुपाए बोली- ‘‘पता नहीं कहां से आए हो... और क्या नाम है तुम्हारा? मगर इतना जानती हूं, मेरे लिए आए हो... हमारी आंखें अगर निर्मल हैं तो हम जो कर गुजरें वो कम... कयामत से कम न रह जाएं हम!’’

वह उसके होने में अनहोना सा हो गया।

‘‘अनकंडीशनल सरेंडर का शिकार हैं हम...’’ वह उसके हाथों में मचलती बिजली से तड़पी, ‘‘हम थे ही नहीं कहीं और के! यहीं जान जानी थी... नहीं रह गए हम कहीं के...’’

‘‘आंधी हो तुम! अब बस करो...’’ जैसे उसने उसके कंपनों में छिपे पागलपन को सुन लिया।

‘‘अब तो यह आंधी तुम्हारा हर टैंट उखाड़ कर जाएगी... बहुत षिद्दत से... इंपाॅसिबल सी इंटेसिटी से पुकार पहुंचती रही है मुझ तक तुम्हारी... तुम्हीं ने पुकारा था न? अब डूबेंगे समंदर में... उड़ेंगे बवंडर में... और सुनो...’’

सहसा वह शाँत हो गई। उसने उसके छिपे हुए चेहरे को हाथों में लेकर उठाया, फिर उसकी बंद आंखों से फूटती धार को देखता रहा...

निश्शब्द का सितार बजता रहा... उसने उसके आंसुओं को होंठों से छुआ... वह सिहर कर उसमें समा गई... उनके जिस्म और रूह एक होकर अपने सफर पर निकल गए... वहां... जहां सारे दुनियावी हवास ठगे रह जाते हैं... जहां कॉस्मिक मिलन से नक्षत्र थिरकते हैं। एक-दूसरे में समाने को विकसित होती हैं जिनकी अदृष्य बांहें, उन्हीं के नाजुक पांवों तले जमाने के दस्तूर चूर हो जाते हैं...इससे पहले कहीं कुछ अगर रचा जाता है तो वह सिर्फ ढोंग है या खुद को और दूसरों को दी जाने वाली खोखली तसल्लियां।



रात का चैथा पहर...

‘‘कितनी अब्सेंट हो गई हो... कहां हो तुम... वन्या?’’

‘‘शून्य में... तुम्हारे होने में विसर्जित... लव इज़ देयर... एवरीव्हेयर...’’

‘‘अनगिनत शब्दकोषों में छानता फिरा मैं... तुम्हारा नाम...’’

‘‘और तुम्हारा नाम... कि जब मैं पुकारूं तुम्हें... तो सुनूं सिर्फ मैं ही!’’

‘‘व्हाट डू यू फील... माय लावन्या?’’

‘‘द ज़ीरो एक्सपीरिएंस... मैं अपने नहीं होने को प्यार करती हूं, जो तुम्हारे होने से संभव है।’’



सुबह...

‘‘मेरी बहुत प्यारी और बहुत सारी नानी... सुन रही हैं आप?’’

‘‘मेरी आवारा छोकरी... स्तब्ध हूं... आज तुम्हारी आवाज में एक नया ही साज़ है... एक म्यूजिकल और मदहोश सुर! चाहो तो षाम तक अपनी जन्नत में और रह लो... जी भर...’’

वह उनकी बातें सुन रहा है... उसने फोन के करीब मुंह लाकर कह ही तो दिया-

‘‘नानी... हमारी जन्नत आप हैं... मुझे अभी मिलना है आपसे... आपके कदम चूमने हैं... हम आ रहे हैं...’’

‘‘अरे! मुझे तो पता ही नहीं था कि इस छोकरी ने किस जन्नत की बात कही है... यह तो और भी करिश्मा हुआ! तो मेरी अरण्या ने ढूँढ ही लिया तुम्हें!’’

‘‘अरण्या? क्या यह इस वन्या का नाम है? सच?’’ वह चहक कर बोला- ‘‘और... नानी... मैं शून्यम्...’’

अब अरण्या चैंकी। उधर से नानी बोली-

‘‘बेड़ा गर्क... मेरे खानदान का! अब तक तुम लोगों को एक-दूसरे का नाम तक मालूम नहीं था? सिरफिरो.... कुछ होश करो!’’

अरण्या आशु कविता करने लगी- ‘‘होश वालों को अगर होश होते, तो सारे शादीशुदा ख़ानाबदोश होते...’’

देर तक रक्स करते तीन ठहाके गूंजते रहे।



‘‘शून्यम्...मैं पांच दिन और यहां हूं...फिर अपने काम पर लौटूंगी... परदेस...’’

‘‘ये पांच दिन और पांच रातें मुझे मिल जाएं...’’

‘‘बस? मेरे सारे क्षण... तमाम दिनरैन तुम्हारे हैं... हम इसी तरह मिला करेंगे... अचानक... और भरपूर...’’

‘‘बहुत अद्भुत और अकस्मात् हो तुम!’’

एक सन्नाटे में आने के बाद भी दोनों मुस्कराए।

‘‘शून्यम्... कैसे मानूं कि ‘मैं’ ही अंतिम सत्य है... कि हर कहीं से लौट कर हम अपने ही पास चले आते हैं... अलोन! मैं नहीं मानती...’’

‘‘कहो, क्या कहना चाहती हो? मेरा ही अनकहा कहोगी तुम...’’

‘‘मैं नहीं तो तुम भी नहीं... शून्य है सब कुछ! अपने पास लौट आना और अपने पास बने रहना कितना आसान है... कहीं कोई चैलेंज नहीं...जुनून नहीं दूसरे में घर कर जाने का- अपने अज्ञात से छिटके होने के मस्त ऐलान का साहस! अहसास एक हो तो यहां सब अखंड है... शून्य में सबको समाना है और उसी में से रह-रह कर नवरूपों में लौट आना है... मैं ही तुम हूं... तुम ही मैं हूं... मेरे लौटने तक इस अलख को जगाए रखना...’’ उसकी आंखें बरसने लगीं।

‘‘अरण्या... यह अलख हमारी गहरी नींदों के बावजूद जगता रहता है... अलख ही हो जाना है हमें... अलक्ष्य... अनदेखा... क्योंकि हम दोनों एक सी समरसता तक एक हैं... अदेखे से... एकोहम्!... विकास का सहवास हैं हम... रेयर एंड अवेयर...’’

‘‘अपने पास मैं तब लौटूंगी जब तुम्हारा पुरुष मेरी स्त्री को पूरा कर देगा... और मेरी स्त्री तुम्हारे पुरुष को! जब हम एक घर में घर कर जाएंगे... बेघर होकर...’’

शब्द उनके अहसास को बयान करने में लाचार हो रहे थे।

देर तक वे लिपटे खड़े रहे... खामोश।



बस स्टॉप पर पहुंचे ही थे कि मनाली से आने वाली बस उनके निकट आ कर ठिठकी और उन्हें लेकर चली...

‘‘कहां का टिकट दूं, मैडम?’’ कंडक्टर ने उसे पहचान लिया।

‘‘जेमी जॉनसन गेट... राफ्टिंग पाइंट के पास... ’’

‘‘साढ़े सात रुपए... मैडम...’’

‘‘एक नहीं... दो टिकट...’’

‘‘पंद्रह...’’ कंडक्टर मुस्कराया।

पंद्रह मिनट भी नहीं बीते थे कि स्तब्ध कर देने वाला फोन-

‘‘ऐरन... हाउ आर यू?’’

‘‘प...अ...’’ उसका गला रुंध गया।

‘‘आर यू ओ. के. ?’’

‘‘हं...अ...ह... ’’ जैसे उसकी आवाज चली गई।

‘‘प्लीज़... ऐरन... अरण्या... माय चाइल्ड... प्लीज़...’’

‘‘प...आ...पा...’’ वह संभली, ‘‘आय’म सो हैप्पी... ब्लैस्ड आय’म...’’

‘‘इज़ इट?’’

‘‘आज का दिन आबेहयात है, पापा... आय’म फ्लाइंग हायर...’’

‘‘वेट-वेट... लिसन एंड गो टु द हाइएस्ट...’’

‘‘सरप्राइज़...?’’

‘‘नेक्स्ट टु द नोबल एंड ग्लोबल प्राइज़... द कॉस्मिक वन! लिसन...योर मदर इज़ विद मी...’’

‘‘मां...? ओह... रियली?’’

उधर से मां- ‘‘हां, अरण्या... हम साथ हैं... कैसी हो तुम?’’

वह रो ही पड़ी- ‘‘तुम थे... कि थी कोई उजली किरण... तुम थे... कि कोई कली मुस्काई थी...और फिर चल दिए...तुम कहां... हम कहां...’’

‘‘संभलो, बेटा... वी चूज़ अवरसेल्व्स... बियोंड चॉइस... क्या करें?’’

‘‘... ...’’ अरण्या के आवेग का बांध टूट गया है।

‘‘मैं जानती हूं, बेटा... बहुत नाराज हो तुम... फोन नंबर तक बदल लिया है तुमने...’’

‘‘पता नहीं आपको कैसे हिचकी लग गई? मुझे तो आपकी जरा भी याद नहीं आती...’’ उसकी हिचकियां बंध गईं।

‘‘कुछ भी कहो... पर कहो... तरस गई थी तुम्हारी आवाज को...’’

‘‘मुझे चांद सितारे नहीं चाहिए... बस... मिसिंग यू... बोथ... टैरिबली... कहां से लाऊं तुम्हें?’’

‘‘बेटा... हम दोनों कुछ रोज पहले अचानक मिले... अकेले-अकेले तो बुझ ही चले थे... तुम्हारे पापा की हालत आजकल ठीक नहीं है... पता चला चार महीने से बीमार थे... यह तो अच्छा हुआ मैं अचानक इनसे मिल गई... थोड़ा स्वस्थ हुए तो सोचा इस बार की बर्फ तुम्हारी घाटी में देखें... तुम्हारे साथ... मां के साथ... अपने उन दिनों के साथ...’’

‘‘सच?’’

‘‘तुम जैसा सच! तुम जितना खरा सच! बेटा... कुछ दिन देना हमें... अभी-अभी शिमला पहुंचे हैं... उड़ने ही वाले हैं... एक घंटे में कुल्लू के भूंतर एयरपोर्ट पर होंगे... है न अजूबा?’’

‘‘वाकई... आप दोनों जितना! ... और मैं आपको एयरपोर्ट पर सामने खड़ी मिलूंगी... आप जैसे एक और अजूबे के साथ...’’

‘‘अभी कुछ देर पहले मां से तुम्हारा नंबर लिया तो उन्होंने भी इशारा किया कि हमारी पगली की मन्नत को कोई जन्नत मिली है... तुम्हारी आवाज भी उसी राज़ से महक रही है... आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे... मेरी बच्ची... सारे आकाश तुम्हारे...’’

वह आंसुओं का सैलाब लेकर षून्यम् के सीने में छिप गई है... सुन्न!

कंडक्टर पास ही खड़ा टिकट काट रहा है...

‘‘राफ्टिंग पांइट से भंूतर कितना है?’’ शून्यम् ने कंडक्टर से पूछा।

‘‘उतना ही...’’ कंडक्टर सहमा सा मुस्कराया-

‘‘15 माइल्स...’’



बस अगले मोड़ की तरफ घूम रही है... 