ये वो नहीं, मैं सोचती हूँ । बियाबान चट पहाड़ों के बीच कहीं खो जाती सी , जाने कहाँ जाती सी सड़क पर घँटों चलते शरीर अकड़ जाता है । इतनी ऊँचाई पर साँस की भी दिक्कत । तराई पर अपने कमरे का गर्म सुकून याद आता है । सच पागल हुये थे जो ऐसे जोखिम भरे रास्ते पर चल पड़े । ऐसी कैसी घुमाई । हल्की धीमी उबकाई साँस के साथ चलती है । उस उचाट बियाबान में इस चाय की गुमटी का मिल जाना भगवान का मिलना है । गुमटी के पीछे दो देसी मुर्गियों के बीच एक बाँका मुर्गा कलगी फैलाये शान से देखता है । मुर्गियाँ अच्छी गृहणियों की तरह एक बार हमें देखकर पथरीली चट ज़मीन में फिर कीड़े मकोड़े तलाशने में जुट जाती हैं । टेढ़े बेढ़ंगे दो टाँग पर टिके पटरे पर बैठना खतरे से खाली नहीं पर बूढ़े के इशारे पर हम बैठ जाते हैं , ठंड से सिकुड़ते और लालसा से ओट में जलते चूल्हे की आग की गर्मी और खदबदाते देग से गर्म भाप को आँखों से पीते , हम ताकते हैं .. बाहर की पहाड़ियों की तरफ , फिर भीतर के सफेद गंदलाये अँधेरे की तरफ , फट्टों की दीवार के फाँक से आती हवा से हिलते पिछले साल के कैलेंडर और ताक पर रखे पीतल के बुद्ध भगवान की मूर्ति के सामने लोबान के उठते धूँये की तरफ । बुद्ध अपनी मंगोल आँखों से अनुक्म्पा बरसाते हैं ।
कभी तैमूरलंग इसी रास्ते आया होगा , समरकंद , अमु दरिया से ऐटॉक होते हुये दिल्ली । शहरों और गाँवों को लूटते हुये , बाशिन्दों को मौत के घाट उतारते हुये , औरतों को हवस का शिकार बनाते हुये और फिर नब्बे हाथियों पर सिर्फ बेशकीमती पत्थरों को लाद कर और बाकी लूट का माल लिये लौटा होगा बीबी खानम मस्जिद बनाने के लिये ।
मुझे नक्शे देखना पसंद है । उँगली रखकर मैं तैमूर के रास्ते चलती हूँ , हेरात , इस्फाहन , शीराज़ । क्या ज़मान रहा होगा । तैमूर सुनते हैं लंगड़ा था और घोड़ों पर सवार अपने सैनिकों के साथ , दुर्गम दुर्दांत दर्रों और पहाड़ियों से , बर्फीली हवाओं वाली तराई से , कँपकँपाते ठंड में कैसे जोखिम उठाते निकल पड़ा होगा । कैसी अदम्य जीवनी होगी । धूल उड़ाते , भालो और तलवारों और नेज़ों से लैस, चमड़ों के पट्टों की जीन कसे अरबी घोड़े मुँह से झाग उड़ाते उड़ते होंगे , धूल , पसीने , थकन से पस्त , भूरी दाढ़ियों में कहाँ कहाँ की धूल भरे, अपने अंदर की आग जलाये । जीना , मरना फिर जीना । व्यर्थ नहीं , हमेशा किसी सार्थकता की तलाश में । और बेचारी औरतें ? हमेशा पहला निशाना , आतताईयों के , हमलावरों के , लूटेरों के । वही जीवन का तरीका था । अ वे ऑफ लाईफ । कितना ऐडवेंचर , कितनी तकलीफें ।
मेरी उँगली तैमूर के साम्राज्य की सीमाओं पर फिरती लौट आती हैं । अपने खोल के अंदर दुबक जाती हैं। पोरों से मैंने एक संसार छू लिया । किसी ने कहा था , तुम्हारे अंदर वो आग कहाँ है ?
मैं खोजती हूँ , टटोलती हूँ अपने भीतर । इस आग को लेकर मैं भी तैमूर बन जाऊँगी । सब तज कर किधर अपने सपने खोजती निकल जाऊँगी ? अपने मन की भीतरी सब गुफाओं और खोह की पड़ताल कर लूँ पहले , दुबके अँधेरों को पहचान लूँ , अपनी आत्मा से सब संताप मिटा दूँ तब मेरे पैरों की नीचे ज़मीन होगी न , ठोस ज़मीन । मैं अपने पँख चमकते धूप में फैला कर आसमान देखती हूँ । आसमान आज खुशी का नाम है ।
गाड़ी के बोनट पर थोड़ी धूल जमी है । उसका पिछला चक्का बैठ गया है और स्टेपनी , मालूम पड़ता है कि पिछले पंक्चर के बाद बदला गया था , बनवाया नहीं । दोनों पुरुष गहन बहस में जुटे हैं । चाय गुमटी बूढ़ा अपनी पनियायी आँखों से चुप देखता है । उसकी जवान चिपटे सेब गाल चेहरे वाली बहू बिना कुछ समझे हँसती है । कोई गैराज ? मेकैनिक ? पर भी मुँह पर हाथ धरे फिर हँसती है । रियर व्यू मिरर से लटकती घँटी धीमे से हिलती है , पेंडुलम की तरह , फिर स्थिर हो जाती है । मैं अपने दुखते एड़ियों को जूते की कैद से निकालते सोचती हूँ , तैमूर तुम्हारा घोड़ा किधर है ?
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आपके लिखे को पढ़कर शब्द शक्ति के प्रति आस्था और भी बढ़ जाती है....
ReplyDeleteशब्द आपको आपसे खींचकर चुपके से कैसे अपने में राम लेता है,अपने पीछे चलने को विवश कर देता है,यह पता चलता है....
बस..... वाह वाह वाह !!!
मैं अपने पँख चमकते धूप में फैला कर आसमान देखती हूँ । आसमान आज खुशी का नाम है ।
ReplyDeleteआपको पढ़कर में उसी में पहुँच गया .....सच में .....और फिर कहना कि तैमूर तुम्हारा घोड़ा कहाँ है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
"सब तज कर किधर अपने सपने खोजती निकल जाऊँगी?"
ReplyDeleteसच! में भी यही चाहती हूँ...लेकिन बिना एडियों के जूते पहन कर :-)
काव्यात्मक बोध है. मज़ा आ गया.
ReplyDeleteमधुर संगीत के साथ आपके लिखे गहरें शब्दों को पढकर एक अलग सा आनंद आया।
ReplyDeleteनाम याद करता हूँ .जिसने कहा था .शब्द भी तो आग है....देखो कैसे चमक रहे है सफ़ेद पन्ने पर .....अद्भुत ....खास तौर से जिस अंदाज में ख़त्म किया है......
ReplyDeleteek aise safar ke baare main kya khayal hai, jisme kisi ghode ki jaroorat nahien padati, sahi pakada - bheetri yaatra
ReplyDeleteआपकी अभिव्यक्ति मनमोहक है. आभार
ReplyDeletewaah kya kahu,sunder abhivyakti,jadu hai aapki kalam ya shabd aapke isharo mein rehtr hai na janu..sunder
ReplyDeleteहमेशा की तरह लाजवाब.मझे तो तुम्हारे लिखे पर कोई टिप्पणी डालना निरर्थक सा लगता है.टिप्पणी वह नहीं कह पाती जो हम महसूस करते हैं तुम्हारा लिखा पढ़कर.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लेख....पूर्णत: काव्यात्मक अभिव्यक्ति...आभार
ReplyDeleteआपका लेखन हमेशा से चमत्कृत करता आया है.
ReplyDeleteपोस्ट की ज़मीन पर पड़े हर लफ्ज़ के टुकड़े पर तेज़ चमकीले सूरज की रोशनी जैसे भावों का अक्स दिमाग की आँखों को चुंधिया देता है..
मेरी उँगली तैमूर के साम्राज्य की सीमाओं पर फिरती लौट आती हैं । अपने खोल के अंदर दुबक जाती हैं। पोरों से मैंने एक संसार छू लिया । किसी ने कहा था , तुम्हारे अंदर वो आग कहाँ है ?
ReplyDeleteमैं खोजती हूँ , टटोलती हूँ अपने भीतर । इस आग को लेकर मैं भी तैमूर बन जाऊँगी । सब तज कर किधर अपने सपने खोजती निकल जाऊँगी ?
बहुत सुन्दर ..शब्दों का कोलाज ..हर बार की तरह बेहतर पोस्ट
हेमंत कुमार
pratakshia ko parmaan ki jaroorat nahi sachmuch aap sashakt shabdshilpi hain bahut bahut badhaai
ReplyDeleteamazing....!!!
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