उदास संगतों के बीच कोई सुर तलाशते हैं , खोजते हैं मायने सपनों के । झरते फूलों और गिरते पत्तों के सारंगी सुरबहार तान में , कोई विकल बेचैनी नये पत्ते की तरह फूटती है । काली बिल्ली एक बार घूम जाती है पूँछ उठाये । मैं अँधविश्वासी नहीं फिर भी रुकती हूँ , सोचती हूँ । देखती हूँ लोगों को बोलते बतियाते जीते और हैरान होती हूँ । हर पल हैरान ।
किसी रोज़ बारिश में भीगते देखा था
देखा था मिट्टी में पानी की धार
भीगते शब्द थरथराते काँपते
निचोड़ते थे अर्थ
छोड़ते थे अपनी जगह
कुछ शर्मिन्दगी से
बियाबान मैदान पर
विचरती जैसे कोई अकेली नीलगाय
पुरानी पोथियों में छुपी किसी
गोपन कथा के संकेत चिन्ह
जिनको बाँचते पहुँचेंगे
पकड़ लेंगे तुम्हारे सब अर्थ
तुम समझते थे तुम्हीं चालाक
हम भी सीखते हैं , पकड़ते हैं औज़ार
तलवार की तेज़ी सा, पैनी बुद्धि की कसम
एक दिन सब होगा हमारी पकड़ में
नीलगाय का झुँड तब आराम से विचरेगा , निर्द्वन्द
शब्द लटकेंगे रस भरे , लदी टहनियों से
पहुँच के पास
गप्प से मुँह में धर कर
कर लेंगे अंदर
और बहेगा तब
हमारी मांस मज्जा रक्त में
शब्द अपने पूरे अर्थ में
फिर तुम कैसे बच पाओगे
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था
मार्गरेट ऐटवुड की इन पंक्तियों को पढ़ते हुये
You fit into me
like a hook into an eye
A fish hook
An open eye
प्रत्यक्षा जी इस पोस्ट को पढ़वाने के लिए । सुन्दर प्राकृतिक रचना के बीछ इंसान । धन्यवाद
ReplyDeletekai din baad...lekin sundar post.
ReplyDeleteaur ye kali billi vahan bhee pahunch gai....?
एक लम्बे अरसे बाद आपकी रचना पढने को मिली ....मज़ा आ गया
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
आप की कविता पढ़ना हमेशा सुखी या बैचेन कर जाता ह लेकिन गद्य से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं होती।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteदेखती हूँ लोगों को बोलते बतियाते जीते और हैरान होती हूँ । हर पल हैरान ।
ReplyDeleteमैं भी होता हूं हैरान :)
क्या कहूँ ?जावेद अख्तर की नज़्म याद आती है ...घार में बैठा दरिंदा .....ठीक वैसी ही जैसे आपने बुनी .....
ReplyDeleteआमद अच्छी लगी वैसे .कहाँ गुम थी ?
शब्दों के पेंच और भाव की गहनता ऐसे बांधती है कि पढ़कर बहुत समय तक इनसे निकलना मुश्किल हो जाता है.....
ReplyDeleteलाजवाब !!
क्या बात इतने दिनों के बाद। पर जादू बरकरार है।
ReplyDeleteऔर बहेगा तब
हमारी मांस मज्जा रक्त में
शब्द अपने पूरे अर्थ में
फिर तुम कैसे बच पाओगे
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था
बहुत ही उम्दा।
बहुत बढिया ...
ReplyDeleteThe mind games..:-)
ReplyDeleteकैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था
वाह!
भीगते शब्द थरथराते काँपते
ReplyDeleteनिचोड़ते थे अर्थ
छोड़ते थे अपनी जगह
कुछ शर्मिन्दगी से
बियाबान मैदान पर
विचरती जैसे कोई अकेली नीलगाय
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ ....प्रत्यक्षा जी ,
आपकी कविता के शिल्प ,बिम्बों और शब्दों के कोलाज का कोई जवाब नहीं .बधाई
हेमंत कुमार
ढिंन्चक कविता में अच्छा चित्रण है जी। बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जादुई कविता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
trying to understand the magic of
ReplyDeletea fish hook in open eyes.
वैसे क्या अच्छा लगेगा तब भी जब सब कुछ समझ में आ जायेगा?
क्या मन नहीं करेगा कि सब कुछ समझते हुए भी न समझने सा दिखाना
और मान लेना झट से ?
-देखती हूँ लोगों को बोलते बतियाते जीते और हैरान होती हूँ । हर पल हैरान ।
ReplyDelete-भीगते शब्द थरथराते काँपते
निचोड़ते थे अर्थ
-फिर तुम कैसे बच पाओगे
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था
bahut sundar..