10/31/2008

इवॉल्यूशन


ज़मीन पर ठीक अपने पाँव जितने या ज़रा ज्यादा लकड़ी के तिनके से लकीर खींचते सोचती हूँ .. ये है मेरी सरहद , बस इतनी , इससे ज़्यादा और कितनी चाहिये , फिर आहिस्ते से एहतियात से अपने पाँव हटाती हूँ .. बुद्ध के पाँव के निशान जैसे , महायान बौद्ध , इतनी भर भी क्यों चाहिये जब बुद्ध गये फिर क्या बचा ? कमल मुद्रा ? कमल सूत्र ? महाज्ञान ?

फिर हमारा ज्ञान किधर है ? विस्तार पाते पाते , सीमाओं की सीमा तक भी खत्म होते , घर से शहर प्रांत देश पृथ्वी ब्रह्माँड से अचानक किसी रिवर्स गियर में चलते वापस उसी क्रम में घर को लौटते ,उसी नवीन ज्ञान पर खुश होते यूरेका कहते , उलटे पाँव पर पैर रखते फिर से नियनडर्थल मानव बन जाते । यही ईवोल्यूशन है , सामने बैठा चतुर चतुरानन मुझे समझाता है , फिज़िक्स के नियम और आईंस्टाईन की रिलेटेविटी थ्योरी , डीएन ए कोड का लहरदार रिबन जैसे तर्क लहराता है ।

देखो , उसकी मुद्रा गंभीर गुरु है ,
तुम क्या हो ? तुम जो हो उसका वास्ता किससे ? तुमसे ही न , फिर ? तुम्हारा परिवार .. फिर .. ?

मुझे रिटार्डेड बच्चे सा उकसाता है, हाँ बोलो बोलो ...

मैं अपने उसी एक तर्क पर अटकी हूँ ..लेकिन वृहत मनुष्यता का क्या ? सब अलग हैं तो फिर एक कौन है ? हम एक स्पीशीज़ हैं कि नहीं ? हमारे बीच कॉमन क्या है ? अब तुम कहो ? मैं विजयी भाव से पूछती हूँ

लॉस्ट कॉज़ की तरह मुझे देखता कहता है .. हमारी सीमा अब हम तक है , मेरी मुझ तक और तुम्हारी तुम तक । आरपार जाने के लिये , तुम तक भी पहुँचने के लिये पारपत्र बनाना होगा ।

तुम्हें पता है उन दिनों के कम्यूनिस्ट देशों में , पूर्वी जर्मनी और चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड में पत्नी पति के खिलाफ और बच्चे माता पिता के खिलाफ सूचनायें सरकारी तंत्र तक पहुँचाते थे । तुम चाह्ते हो हम वहीं रिग्रेस कर जायें ? अपने तर्क के समर्थन में मैं ऑरवेल को याद करती हूँ , उँगलियों पर सोल्झेनित्सिन के गुलाग को जपती हूँ , ऑशवित्ज़ और सॉबीबोर त्रेब्लिंका बोलती हूँ ..और वहीं मुझे फिर वो पटकनी दे देता है ..

वही वही .. ऑशवित्ज़ और बेर्गेन बेल्सेन रिपीट न हो उसके लिये ज़रूरी है यहाँ काँटों की बाड़ खींच दी जाये , उँगली से एक काल्पनिक बाड़ खींचता है हमारे बीच , फिर अपने माथे पर , और यहाँ ताकि मैं सुरक्षित रहूँ , हम सब सुरक्षित रहें .. एक दूसरे की घृणा , एक दूसरे की नफरत , एक दूसरे से अलगाव ..इन सब से ..द फाईनल सॉल्यूशन ..


तुम्हारे हिसाब से हर आदमी ..

वो बीच में लपक लेता है ..और हर औरत एक देश हो , मुकम्मल अपने आप में

अब मैं लोकती हूँ और हम फिर बार्टर सिस्टम में लौट आयें या अपनी ज़रूरतें खत्म कर लें ?

जो तुम चाहो और मैं दे सकूँ ऐसा एकदम बराबर कर लेनदेन अगर सँभव हो तभी हो वरना न हो

तो जिन ज़रूरतों का देन अगर किसी के पास न हो तो ?

तो उन ज़रूरतों को खत्म कर दो ..ऐसा करते करते एक दिन ज़रूरतें सिकुड़ती सिकुड़ती खत्म हो जायेंगी

मैं बुद्ध पर लौटती हूँ .. सुनो द तिबेतन बुक ऑफ द डेड पढ़ा है ? मार्गदर्शन पुस्तिका है मृत्यु से पुनर्जन्म तक के सफर का..

किसी ऐयार सा फिर वो कमंद फेंक मेरे शब्दों को लपेट अपने तर्क के दायरे में खींच लेता है , उसकी आवाज़ एक लय एक खास स्वरोच्चारण् में उठती डूबती है ..

दुख ..दुख जो उपजा जन्म से , बुढ़ापे से , बीमारी से मृत्यु से , पीड़ा और अवसाद से , लालसा से , अप्रीतीकर के जुड़ाव से , आनन्द के अलगाव से , जो चाहा उसके न मिलने से...

उसने अब दूसरी उँगली गिराई समुदाय .. या दुख का मूल क्या है ? लालसा

अब तीसरी...
और दुख का निवारण ? निरोध और ?

अब चौथी...
उसका मार्ग ?
द नोबल ऐटफोल्ड पाथ

मुझे लगता है वो किसी आईसलैंडिक भाषा में मुझसे बात कर रहा है । उसके स्वर और व्यंजन मेरी समझ के परे की चीज़ है । वो किसी भी भाषा में बात करे , मेरी समझ के हद वाली भी , तो उसके तर्क अजीबोगरीब खिलवाड़ करते हैं , कभी बंदर की तरह कूद कर पेड़ की डाल पर उचक लेते हैं , कभी किसी सील मछली की तरह पानी में डुब्ब डुब्ब बुलबुले छोड़ते हैं ।

मैं सिर्फ ये जनना चाहती हूँ कि आज के समय में मैं क्या हूँ ? इंसान हूँ ? नागरिक हूँ ? देशभक्त हूँ ? मेरी वफादारी किसके प्रति है , मेरे अपने , मेरे राज्य , मेरे प्राँत , मेरे देश के लिये , मेरी एकमात्र जीवों को पालने वाले पृथ्वी के लिये ? मेरे प्रजाति के लिये ? होमो सेपियंस ? सभी जीवों के लिये या किसी के लिये भी नहीं ..

तुम्हारी ज़िम्मेदारी , सुनो ध्यान से , वफादारी नहीं ज़िम्मेदारी , सिर्फ अमूर्त भावों के प्रति हैं ..उन्हें जिन्हें तुम छू न सको , तुम्हारी सरहद ..ये शब्द पंगु हैं भावों को सम्प्रेषित करने के लिये ..हमें नये शब्द ढूँढने होंगे , नये नियम गढ़ने होंगे ..उसकी अवाज़ यांत्रिक होती जा रही है , और जब तुम्हारे मन का विस्तार इतना हो कि छोर खत्म हो जाये तब ये शब्द इतना फैल जायेंगे कि तुम कहोगी तो एक अक्षर को कहा जाना एक सदी जैसा होगा ..

मैं चिढ़कर कहती हूँ , तब तक दुनिया खत्म हो जायेगी ।

उसके चेहरे पर आत्मिक आभा है , हम अब उसी समय में हैं , वो तब ..अब है ।

आईने में मेरा चेहरा कुछ कुछ होंठों के पास टेढ़ा लग रहा है कुछ उस आदमी जैसा जो कल परसों , पिछले दिनों , पिछले महीने मरता रहा , कभी किसी ब्लास्ट में , कभी किसी दंगे में , कभी भगदड़ में , किसी हेट क्राईम में , किसी कॉंसनट्रेशन कैम्प में , किसी और के लिये चलाई गोली में या बस ऐसे ही ..जिसकी तस्वीरें दिखाई जा रही हैं , ब्रेकिंग न्यूज़ के स्ट्रिप पर , गूगल के खोजे गये साईट्स में , अखबार के पिछले और चमकदार पत्रिका के चौथे पन्ने में । वो किसका चेहरा था ? एक उभरते दहशत से देखती हूँ कि वो चेहरा मेरा ही चेहरा था । हमारा चेहरा । और उसको मारने वाले हाथ ? मेरे ही थे , मेरे , हमारे .. मानव जाति के विकास का एक पूरा क्रम । फुल सर्किल ।

10/24/2008

बाजूबन्द खुल खुल जाये...

रही होगी कोई बात जिसका सिरा पकड़ कर तुम बढ़ गये आगे कहीं ..वहाँ जहाँ लाड़ दुलार की गुनगुनी ताप नहाये बैठे थे हम ... बावज़ूद , किसी खालीपन के शून्य में हाथ पसारे मैं खड़ी थी ..तुम्हें खोजती हूँ , तुम्हें खोजती हूँ .. कहती , आँख पर जाने कैसी काली पट्टी बाँधें हाथ बढ़ाये किसी बचकाने खेल को माईम करती ..खोजती थी ..


तुम आँख मून्दे बोलते , जानती हो उस मायन संस्कृति में , मिथ के अनुसार वीत्सीलोपोचत्ली ने घुमंतुओं को निर्देश दिया एक शहर बसाने को , वहाँ जहाँ वो देख सकते थे नोपल कैक्टस के ऊपर पड़े अलसाये साँप को बाज़ का शिकार होते हुये । मिथक के अनुसार मेक्सिका लोगों ने अपना मुख्य शहर बनाया टेनोशटीटलैन में ..


और मैं कहती आदमी के अंदर नैसर्गिक प्रेम नहीं होता ..नैसर्गिक घृणा होती है , प्रेम हम सीखते हैं .. प्रेम सीखने और फिर याद करते रहने की चीज़ है .. न .. जैसे बचपन में झूम झूम कर पहाड़ा रटते थे , है न .. देखो अब तक याद है मुझे पंद्रह का पहाड़ा .. पंन्द्रह का पंद्रह , दूनी तीस , तिया पैंतालिस , चौके साठ ..यहाँ भी मैं शातिर होती हूँ , एकमात्र पहाड़ा जो याद रहा कि क्या मज़े की राईम थी ..ये शातिरपना भी नैसर्गिक है , कितना चाहे छुपाओ , जब तब कंबल से मुँह निकाले शरारती बच्चे सा अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराता रहता है ..


तुम संजीदगी से देखते हो , बिना मेरी चालाकी से विचलित , जैसे बच्चे को शरारत करने की छूट दी गई हो , फिर किसी गुरु गँभीर वाणी में कहते हो , हाँ तो मैं मायन सभ्यता की बाबत तुम्हें बता रहा था ..
मैं देखती हूँ , बाहर हवा से फर्न के पत्ते हिल रहे हैं , एक कबूतर अपने जोड़े को देख रहा है , कहीं बगल से छन्न्न से तरकारी छौंकने की आवाज़ आ रही है , पिछली रात तुम्हारे पीये गये सिगरेट की टोंटी झूले के पास गिरी है , तुम्हारी आवाज़ का खुरदुरापन मेरे हाथों को सहला रहा है , मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर गड़ी हैं , मेरा चेहरा मेरी हथेलियों पर टिका है ...


मैं तुम्हें नहीं बताती कि मायन सभ्यता पर जितनी बातें तुम मुझे कह रह हो , वो सब मैं जानती हूँ , बहुत पहले से..

कहीं दूर से 'बाजूबन्द खुल खुल जाये' हवा में तिरता है मेरे आसपास....

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10/07/2008

सचमुच सचमुच !


भोर के धुँधलाये कुहासे में आशायें उमगती हैं .. उँगलियाँ अकुलाती हैं , पत्तों सी काँपती सिहरती खिलती हैं । दिन मुँह बाये खड़ा हँसता है .. आओ संग संग खेलें , खिलता है खेल किसी सुलगते फूल सा , धधकता है दिन , सर के ऊपर दहकता है कुछ होने को बेचैन ..कहाँ थिरता है मन , रस गँध में क्यों डूबता है मन ?

गुनते गिनते बीतता है , बीत चुके तूफान सा चक्रवात के बीच सा , छूटता है ..छूटता है कोई , मिलता है कोई किसी बेहतरीन संगीत सा ..
सुबह की न्यारी संगतों के बीच सचमुच सचमुच !

(ऐंड्र्रू वाईएथ की पेंटिंग )

10/01/2008

बोतल में बन्द चिट्ठी ..

उन फुदकती चिड़ियाँ
जिनके पैरों में बँधे थे
छोटे छोटे संदेसे
किसी मंदिर के कँगूरे से
बजती घँटियाँ
आवाज़ जो टकरातीं थी
सामने की पहाड़ी से

उन कविताओं को सुनते
गिरते हैं शब्द
किसी तालाब में
सतह पर फैलता है वृत
अर्थ गायब हो जाते हैं
कभी तल पर बालू में
कभी गोल चमकीले पत्थर में
कभी तैरती मछली के पेट में

बात हमेशा अपना सिरा खोजती है
चाहे कितना फेंको उसे
मछुआरे जाल में
बँधेगी आखिर
आखिर
फँसेगी आखिर आखिर

कोई कागज़ की नाव तो नहीं
या कोई बोतल में बन्द
चिट्ठी भी नहीं
जो मिलेगी
सदियों बाद
किसी बच्चे को
समन्दर के किनारे
रेत का घर बनाते
या फिर कौन जाने
किसी टाईमवार्प में
किसी अतीत के समय में
अपने पूरे रहस्य से भरपूर ?और
तुम कहोगे

अरे ! ये तो मेरे ही शब्द हैं जिन्हें कहा था
मैंने सदियों पहले किसी भविष्य में ..