1/08/2008

यहीं कहीं मेरी स्मृति में

मेरा शहर पहाड़ी रास्तों का शहर था , लाल मिट्टी का शहर था । नीले आसमान और हरे पत्तों का शहर था । कुहासे में डूबे थरथराते रौशनी की पीली फीकी रंगत में भाप उड़ाते लाल गाल वाले बच्चों का शहर था । घरों के टूटे काई लगे बरामदों में निवाड़ की चारपाई पर काली आँखों बिटर बिटर ताकते बूढ़ों का शहर था जिनके चेहरों से सदाशयता टपकती थी बेहिसाब समय की तरह , जो किसी भी राह चलते राहगीर से हाल पूछ सकते थे इस आश्वस्तता के साथ कि कोई जवाबी मुस्कुराहट हुक्के की गर्माहट भर देगी हाथों में , बलगम धँसे छाती में । ढ़ेरों लकीरों में जीवन की अनगिनत सालों की कहानी कौन जाने कोई सुनेगा कि नहीं । और कोई सुन लेगा तो पोपली हँसी की उजियारी चमक अब भी कौंध जायेगी । मेरा शहर सुस्त रफ्तार का शहर था , हर समय लॉंग़ स्लो मोशन में फिलमाया गया सिनेमा , सीपिया रंगों में जैसे बिसरी स्मृति दिखाते हैं बस वैसे । मेरा शहर शहर था जीवन था समय था । मेरे जैसे कितनों का एक हिस्सा समय । मन में बसा ...... स्टिल फोटोज़ के फ्रोज़ेन मोमेंट्स ।

और अब मैं खोजती हूँ शहर को । कहीं भी नहीं वो शहर । जहाँ है वहाँ भी नहीं वो शहर । रेलवे स्टेशन पर फलों की पेटियों से निकले पुआल के गट्ठर और व्हीलर की काठ की बुकस्टॉल में सजे बेस्टसेलर , एकाध इलिया कज़ान और ग्राहम ग्रीन और शायद फटी पुरानी हाईनरीख बोल , कोई एक गुनाहों का देवता की डॉग इयर्ड कॉपी ? काले कनकट्टे कुत्ते की शातिर चालाकी और भूरी बिल्ली का अलस चौकन्नापन ? इनमें भी नहीं मेरा शहर । पसरे रेलवे ट्रैक के रोड़ों पर दूर जाती लाईन का जाल खोता है किसी साल वन में । मोटे धारीदार गिलास में दूध वाली खौलाई चाय को दोनों हाथ से पकड़े सुड़कते हरे बेंच पर ज़रा से धूप के टुकड़े में गरमाते , जान लेती हूँ उसी अजीब निस्पृह उदासी से । अब मेरा शहर कहीं रहा नहीं ।

10 comments:

  1. कुछ शहर खो जाते हैं और कुछ हमेशा बने रहते हैं, मेरे शहर के बारें में यहां पढ़े http://bp2.blogger.com/_bSnsdHqvn5g/R2993vOLWOI/AAAAAAAAAgw/f4K7uQpzhuA/s1600-h/banaras.jpg

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  2. गुमशुदगी का खूबसूरत इश्तेहार । ईनाम का ऐलान हो तो ठिकाना बतायें ।

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  3. प्रत्यक्षा बहुत खूब.

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  4. फिर फिर कर लौटी हैं नजरें
    जो खोया है उसे तलाशें
    लेकिन जो कुछ दिख पाता है
    नहीं कभी उसको स्वीकारें
    जब है पास न मूल्य आंकते
    खो जाता तो पछताते हैं
    ऊठ गया कल, लौट न पाता
    करें चाहे कितनी मनुहारें

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  5. "शिवानी" के उपन्यासों जैसा……आपका भी शहर, मेरे मन भाया……

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  6. मैं ठीक यही बात अपने शहर के बारे में भी कह सकता हूं. हम कुछ पा रहे हैं लेकिन बहुत कुछ खोकर... यह बहुत ही संवेदनशील विषय उठाया आपने. अच्‍छा लगा, शुक्रिया.

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  7. आपका शहर मैं कल्पना की आँखों से देख पा रही हूँ.. चलते जीवन में आने वाले हर शहर को मन के फोटो फ्रेम में जड़ लेती हूँ और
    जब जी चाहा निहार लिया.

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  8. बहुत खूब!

    थम-थम के दौड़ता हुआ सा था मेरा शहर।
    कभी-कभी तो खौलता भी था मेरा शहर।
    सूरज से पिघलता और
    बारिश में बहता है मेरा शहर।
    टूटते मन और जुड़ते लोगों
    को थामे रहता है मेरा शहर
    जिंदा है और रहेगा मेरा शहर

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  9. शहर जो एक हकीक़त था, अब सपना है..
    बेहतरीन शब्दचित्र। ...मेरी ,तेरी,उसकी बात....

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  10. ये जो पहले मेरे नाम से टिप्पणी है , वह वास्तव में रजनी की मानी जाये , गलती से मेरा नाम चला गया था ।
    लेकिन अब मैनें पढा तो लगा कि कहना तो मैं भी वही चाहता हूँ ।
    एक अच्छे ’चित्र’ के लिये बधाई । कभी कभी लगता है , इस सभ्यता की दौड़ और प्रगति की होड़ में कितना कुछ सुन्दर पीछे छोड़ आये हैं ?

    फ़्लैशबैक कचोटता है कभी कभी ....

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