बेतरह गर्मी है । बचपन में खिडकी दरवाज़ों पर खस की टट्टी लटकाई जाती थी । बीच बीच में पानी से तरबतर करने का काम होता था । कमरे में खस की खुशबू और ठंडक । अल्ल दोपहरी में पूरा घर सोया रहता । छत पर , खूब ऊँची छत पर से लंबी बल्ली से लटका पँखा घिर्र घिर्र घूमता और नंगे फर्श पर पसीने की नमी से चिपचिपचाये बदन ,लोगबाग बेचैन करवटें बदलते । शाम का इंतज़ार रहता । आँगन में या सामने के बरामदे में पानी बाल्टी बाल्टी फेंका जाता और पहली बौछार ज़मीन की गर्मी को उडा देती जैसे जलते तवे पर अंतिम रोटी के बाद फेंके गये पानी की हिसहिसाती बून्दें गरम सतह पर बेचैन नृत्य करतीं ।
कच्चे आम को पका कर अमझोरा बनता । भुने जीरे की खुश्बू और पुदीने के पत्ते की ठंडी तासीर । रसोई वाले बरामदे में बालू की महीन परत पर बैठे सुस्ताते मोटे घडे और एकाध लम्बी पतली सुराही । ग्लास के ग्लास पानी , मुँह ऊपर किये , बिना होंठों से लगाये गटागट एक साँस में , बिना खाँसे ,हिचके पी लेने का आहलाद । और इनसब से भी ज्यादा , नीम दोपहरी में माँ की सख्त हिदायतों को अन देखा करते चुपके अंधेरे ठंडे कमरों का शीतल सुकून त्याग कर किसी पीछे की कोठरी में , तेज़ , चटक , तीखी धूप से नहाया कोई टूटी कुर्सी पर पैर मोडे चन्द्रकांता संतति का रहस्यमय जादू , आज भी इस तेज़ भारी गर्मी में कौंध जाता है ।दिन के किसी वक्त ठेले वाले के पास बच्चों की भीड जुटती । बर्फ की चुस्की पत्ते के दोनों में , ऊपर से टपकाई गयी उदारता से कोई रंगीन सिरप और उटंग फ्रॉकों और नेकरों में , बहते गले की कमीज़ों में रंगे हुये होठों की पीछे से टूटे दाँतों की खिडकीमय हँसी झिलमिल करती ।
गर्मी तब भी पडती थी । लू वाली गर्मी । चेहरे को झुलसा देने वाली गर्मी । पसीने से नहा देनेवाली गर्मी । फिर , तब की गर्मी आज इतनी ठंडी क्यों लग रही है ?
अच्छा है। स्मृतियां सुहानी लगती हैं। स्व.सुमन सरीन जी एक कविता थी-
ReplyDeleteनंगे पांव सघन अमराई
बूंदा-बांदी वाले दिन
रिबन लगाने उड़ने फिरने
झिलमिल सपनों वाले दिन।
बहुत तरह की स्मृतियां जगाने वाली रचना। और भी बहुत कुछ याद आता है, झटके से स्मृति जैसे फ्लैशबैक में चली जाती है। कालेज के कारीडोर में सूने फड़फड़ाते पत्ते, इतना सूनापन कि यकीन करना मुश्किल कि यहां कुछ समय बाद जिंदगी चहकेगी। गरमी में ऐतिहासिक इमारतों -पुराने किले, लाल किले को देखने का अनुभव एकदम अलग तरह का है, सूनापन,विकट वीरानी,वीरान घर गरमी की दुपहर में कैसे हो उठते हैं-कैसी वीरानी सी वीरानी है, दश्त को देखकर घर याद आया, गालिब ने यह शेर निश्चय ही गरमी की किसी दोपहर में लिखा होगा। बढ़िया।
ReplyDeleteगर्मी की तपती दोपहरी को भी आपने अपने साहित्यिक कौशल से अतीत की यादों से रोमांचक बना दिया है।
ReplyDeleteगर्मी जिसमें तन और मन दोनों झुलस जायें, क्या इस तरह की गर्मी की भी याद आ सकती है किसी को? समाचार पत्रों में जब पढ़ता हूँ कि दिल्ली ४६ डिग्री में झुलस रही है तो आप के शब्दों जैसी यादें मन में आती हैं और वही प्रश्न उठता है कि बचपन की गर्मी इतनी ठँडी कैसे होती थी? यही तो फायदा है यादों का कि अमझोरा, तासीर, चंद्रकाँता संतति तो याद रखती है, रात को बिस्तर पर पानी के जग डालना भुला देती है! :-)
ReplyDeleteबहुत सुंदरता से लिखा है. मेरी उम्र का शायद ही कोई हो जो खुद अपने आपको अतीत की यादों में न ले जाये इसे पढ़ते हुये.
ReplyDeleteबहुत खूब याद दिलाई अपने। समीर लाल जी ही नही, मुझ जैसे छोटी उम्र के लोगों के लिये भी अभी कई यादें ताजा हैं ।
ReplyDeleteएक रुपया या आठ आने लेता था मम्मी से चिरौरी करके, चुस्की खाने के लिये ।
"जल्दी से दे दो ना, नही तो आइस्क्रीम वाला दूसरी गली में चला जायेगा"
:)
अच्छा लिखा आपने, कुछ देर के लिये हम भी अपने बचपन की ओर चले गये।
ReplyDeleteदेसीपंडित पर
ReplyDeleteबिल्कुल सही प्रश्न किया है आपने "तब की गर्मी आज इतनी शीतल क्यों लग रही है?" इसका कारण वनों/वृक्षों का व्यापक नाश, प्रकृति/प्राकृति संसाधनों का दुरुपयोग, विद्युतयन्त्रों के गुलाम बन चुके हम, ग्रीनहाउस गैसें आदि... किन्तु ग्लोबल वार्मिंग कम करने भी कुछ उपाय हैं? परन्तु यदि लोग करना चाहें तो?
ReplyDeleteसंस्मरण लिखने मे प्रत्यक्षा का कोई सानी नही। ये अलग बात है कि पोस्ट लिखने मे ही बरसों लगा देती है। एक और बात, पोस्ट लिखने के तुरन्त बाद, तगादा शुरु कर देती है, "मेरी पोस्ट नारद पर काहे नही आयी?"
ReplyDeleteप्रत्यक्षा टिप्पणी करने मे थोड़ी देर हो गयी, वो क्या है ना, गर्मी बहुत है ना।
बहुत सुंदर संस्मरण। ग्रेट ऑब्ज़रवेशन।
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है..आप की कहता है और हमें अपनी भी फिर याद दिलाता है..
ReplyDeleteचिलचिलाती हुई धूप तपती रही
ReplyDeleteऔर सूरज से शोले बरसते रहे
स्वेद के झरने बहते रहे हर घड़ी
वस्त्र भीगे बदन से चिपकते रहे
भावनायें पिघल बिछ गईं पंथ पर
और बेसुध पड़े शब्द, कोने कहीं
लेखनी लिख न पाई कोई लेख भी
और हम बस प्रतीक्षित सुलगते रहे
कैसे लिखती हैं आप?.. आई मीन माथे को हाथों में लिए किसी को डिक्टेट करवाती हैं.. या आंखें मूंदकर एकाग्रचित्त खुद टाइप करती हैं?.. सबसे ज्यादा ध्यान खींचनेवाली बात है कि फिर भी हिज्जों की गलती नहीं है!.. मेरे और निर्मल वर्मा के सिवा औरि किन लेखकों का आप पर असर है?.; या सिर्फ़ लेखिकाओं का है? मगर जो भी असर है बड़ा ही सूक्ष्म है.. लगता यही है जैसे आप अपने ही असर में लिख रही हैं!.. अनूप शुक्ला की तरह मुझे भी किसी कवि.. या अपनी ही लिखी पंक्तियों का स्मरण होता तो यहां उन्हें ज़रूर याद करके अपने कमेंट का समापन करता.. लेकिन दुर्भाग्य से याद पड़ नहीं रही हैं.. आप कल्पनाशील हैं, खुद अंदाज़ कर लीजिएगा.. बाकी फिर हमारे लिखे के असर में रहिए.. अच्छा ही लिखिएगा!
ReplyDeleteआज तो जीवन की तपीस इतनी तेज हो रही है की बाहरी तेज का असर भी कम दिखने लगा है… मगर अच्छा लिखा है…।
ReplyDeleteप्रत्यक्षा,
ReplyDeleteक्या खूब लिखती हो ...बडा सुँदर लिखती हो !!
पढ कर दिल्ली की लू भरी दोपहरी याद हो आई -- एक बार हम सब कुलर लगे कमरे मेँ थे तो अम्मा ने कहा, "बाहर कोई सारा घर चोरी कर के चला जायेगा पर तुम लोगोँ को पता भी नहीँ चलेगा !
कुछ देरी के बाद , मेरा छोटा भाई परितोष खुशी खुशी बोला, " अम्मा, अब चिँता न करो ! मैँने महरी से कह दिया है कि, चोरी नहीँ करना ! "
;-)))
स -स्नेह,
-- लावण्या
बहुत अच्छा लिखा है ...आपका लेख अतीत में सहजता से ले जाता है......बधाई
ReplyDeleteओह्.. केतना मार्मिक है! असल गरमी का फीलिन हो रहा है! बाहर तो गरमी हइये है मगर आपका लेखनवाला गरमी से- गरमी जो है कि रंगदार हो गया है! भेरी ट्रू टू हाट-हाट डेज़ एंड नाइट्स ऑफ डेज़ एंड नाइट्स घोन बाई. थैंक्यू.
ReplyDeleteतब की गर्मी आज इतनी ठंडी क्यों लग रही है ?
ReplyDeleteआसान सा उत्तर है- आज के बच्चों को भी नहीं लगती। हमारा लाड़ला इस समय न ऊपर के कमरे में एसी में है न यहॉं कूलर में- आंखें बचाकर एक तपती सी जगह में अपने मन का खेल कर रहा है।
गरमी वही है उम्र बदल गई है।
जादू है तुम्हारी कलम में , अतीत की सुनहरी यादों में ले गया ये लेख । हम बड़े क्यों हो जाते हैं ?
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