6/29/2007

लेट नाईट शो

थियेटर के अंदर ठंडक थी , अंधेरा था , घुप्प अंधेरा नहीं , नीली पीली लाल रौशनी वाला गाढा अंधेरा । पॉप कॉर्न नहीं था , कोक नहीं था , नचोस और कॉफी नहीं था । लेट नाईट शो का थकन भरा आलस था, गुप चुप जंभाई थी , नींद भरी आँखें थी और इन सबके चारों ओर “आईसबर्ग” की खुशबू थी , पसीने और दिन भर की थकन के साथ घुली बसी और अंत में नहीं इन सबके ऊपर सिहरता सिमटता सा एहसास था

शुक्रवार था । सप्ताह का अंत था । छिटपुट भीड के रेले थे । शो शुरु होने के पहले की अलस चहचहाह्ट थी , थोडी मद्धिम थोडी शाँत , बहुत कुछ उबासी से भरा , हर दो शब्द के बाद एक लंबी जम्भाई का दीर्घ आलाप था । जोडे थे , हाथ में हाथ डाले , कंधों पर सर टिकाये , मशगूल , महफूज़ । कुछ एक बच्चे भी थे , नींद में ढलकते । एक्ज़िट और एंट्रैंस के लाल नियान लाईटस भक्क जल रहे थे । और स्क्रीन पर नो स्मोकिंग की बुझी हुई सिगरेट की टोंटी थी लाल घेरे में कैद । बावज़ूद इसके तलब वाले शौकीन निकलेंगे बाहर कुछ कसैला धुँआ छाती में और भरने , शायद इंटरमिशन पर , जब सोते बच्चे कुनमुना कर जग जायेंगे , इस देर रात की उनकी एकमात्र हाईलाईट , स्वीट कॉर्न कप और कोला की गिलास , के लिये । औरतें भागेंगी वॉशरूम तक , निंदाई आँखों से आईने में दुरुस्त करेंगी बालों को , सिकोडेंगी होंठों को , मिलायेंगी अपनी शक्ल उस फिल्म की हिरोईन से , फिर साँस भर लौट जायेंगी अपने सीट पर । मर्द फूँकेंगे एकाध कश , तत्परता से लौटेंगे हाथ में स्नैक्स लिये ।

लौट पडेंगे सब एक बार फिर उस रहस्मय दुनिया में , उस मेक बिलीव वर्ल्ड में । अंधेरा लील लेगा दिन की सारी मशक्कतें और नीले ,गाढे आँधेरे में सब बदल जायेंगे सिर्फ दो जोडी आँखों में । स्क्रीन पर हमारा हीरो गायेगा गीत पेडों के इर्दगिर्द , किसी चहकती , चुहलती हिरोईन को ,दिखायेगा अदायें और पूरी दर्शक दीर्घा नाचेगी उनके साथ उसी मस्ती में , भूलकर सारी जद्दोज़हद दिनभर की , उस लेट नाईट शो में ।

6/24/2007

समानांतर दुनिया

किसी पुराने गाने को सुनते ऐसा नहीं लगता कि कहीं किसी तार पर किसी नट की कला कुशलता से पाँव जमा जमा , जरा डगमगाते हिचकिचाते , हाथों को फैला ,संतुलन असंतुलन के बीच , पंछी की तरह डैने फैला आप चल पडते हैं चाहे अनचाहे उस समय स्थान में , जो अब सिर्फ स्मृति भर में ही एक्ज़िस्ट करता है , या क्या पता कितने मल्टीपल युनिवर्स हों , कैसी समांनातर दुनिया जहाँ जीया हुआ हर पल बार बार दोहरा रहा हो अपने आप को ।

कोई साइंस फिक्शन पढी थी , ऐसे ही किसी सुदूर समय में जहाँ ऐसी ही हर घटना अपने हर पल के ढेरों निर्णायक क्षणों के भूलभुलैया में अलग अलग रास्तों पर अनवरत चलती रहती है। आप लौट कर उस समय में पीछे जाते हैं , देखते हैं कि अगर आपने उस पल का कोई और निर्णय लिया होता तो जीवन किस आसान या दुर्गम रास्तों की चढाई आपको चढाता ।

खैर , गानों की बात कर रहे थे । मेंहदी हसन की पत्ता पत्ता बूटा बूटा या फिर आगे बढे न किस्साये इश्के बुतां से हम , सुन कर मन पता नहीं कितना पीछे भाग जाता है , जाडों की कुहासे वाली सर्द सुबह , छुट्टियाँ , शुरुआत वाली जब मुट्ठी भरी हो , खज़ाना भारी हो , आधी नींद में आवाज़ तिरती हुई आये बहुत दूर से , बाहोश बेहोश से परे किसी तीसरी दुनिया में चेतना डूबती उतराती हो । अब भी मेंहदी हसन सुनते हुये चेतना उसी तीसरी दुनिया की स्मृति खींच बटोर लाती है , कोई भूला भटका अवशेष , काई के अंदर छिपी हरियाली सा आभास मात्र । बेगम अख्तर की , हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब , किसी झमझम बारिश में खिडकी के सिल पर सर टिका शीशे के अंदर के महफूज़पने से बरसात के दिल तोड देने जैसी कैसी तो टीस से भरा अवसाद का कसाईन स्वाद अब भी जीभ पर , नोक पर छलछला देता है । स्कूल कॉलेज के ज़माने में दिनकट्टन करते बीटल्स के ऐईट डेज़ अ वीक , या वाईल माई गिटर जेंटली वीप्स , नीम दोपहरी की अलमस्त फक्कडपने की याद दिलाता है ।

सिर्फ गाने ही क्यों , जार्जिया ओ कीफ के फूल देखकर अपना पहला बनाया कैनवस ,तेल और रंगों की महक ,सब की याद ऐसे झूम के मन में लहर जाती है । कोई देखे तो कहे क्यों मुस्कुरा रही हैं । करेले के कडवे भुजिये को देखकर बचपन की उस सख्ती की याद आती है जिसकी वजह से दवाई की तरह पानी के सहारे से उसे घोंटा जाता था । और कडवेपन की याद से ... बडे टैबलेट्स , बीमारी में दस दफे पानी से निगलने की कोशिश करना और नौ दफे उगल कर कहीं ज़मीन में गिरा देना , रोते रोते हिचकियाँ बँध जाना और दसवें दफे बीमारी के बावज़ूद डाँट सुनकर आँसू , थूक से चेहरा सना , अंतत टैबलेट निगलना । अब बडे बडे टैबलेट्स देखकर बचपन का ज़मीन पे गिरा ,उगला टैबलेट याद आता है ।

तो ऐसी कितनी छोटी बडी स्मृतियाँ हमारे अंदर कुंडली मारे बैठे रहती हैं । किस महक , किस रंग , किस अवाज़ की लहक पर कुछ भरभरा कर भसकने लगता है , किस स्वाद की बिसराई हुई स्मृति ,लहसुन हींग से छौंका हुआ दाल , किसी आँवले का कसा तीखा तेज़ आचार , कब कहाँ ले जाये , शायद हम इसी इंतज़ार में रहते हैं । मन से भले ही न माने लेकिन सेरीब्रम सेरीब्रेल्लम के किस कोने में ग्रे सेल्स के अंदर घात लगाये , चुपके बैठे ये हैं कौन आखिर जिसके हम ऐसे गुलाम हैं ? आप भले कह लें न , हम इतने भावुक नहीं लेकिन पडने दीजिये कोई मौका , सुनने दीजिये कोई आवाज़ की खनक , आने दीजिये कोई दाल भात चोखे की खुश्बू , फिर देखियेगा कौन दबोच लेता है आपको , किस पुराने समय के तार पर आप हो जाते हैं एक कुशल नट , कौन सा बीता हुआ समय , कैसा देज़ावू , क्या क्या समय । सब चल रहा है आपके ही अंदर ,कितनी तो सामानांतर दुनिया ।

6/22/2007

आखिर गर्मी को कैसे मारा जाय

कुछ नंगधडंग बच्चे ,कमर पर सिर्फ एक काला धागा पहने , पानी में छपाक से कूदने के बस पल भर पहले के आश्चर्य मिश्रित आहलाद से कैसा तो चमकता चेहरा , पानी की अनगिनत बून्दें , कुछ कैमरे के शीशे पर चपटे होकर अस्तित्व खोते हुये , कुछ कुछ ज़मीन से कितने तो फीट ऊपर से कूदते पैराट्रूपर्स की सी बहादुरी और थोडा सा वो भाव कि अब तो ये हमारे बायें हाथ का खेल है , गर्मी को एक झटके से मात दे देने का विजय भाव , क्या क्या नहीं दिखा इस तस्वीर में । अखबार के पीले कागज़ पर चमकते चेहरों की ऐसी तस्वीर ।

बीटिंग द हीट जैसा कुछ कैप्शन वाली ऐसी तस्वीरें हर गर्मी में छप जाती हैं और आप याद कर लेते हैं बचपन की , गाँव घर में , किसी तालाब पोखर में ऐसे ही झपाटे से कूद कर डुबकी मार लेने की कहानी , अपनी नहीं तो किसी और की भी चलेगी ।पर अब गर्मी को कैसे तो मारा जाय । किस तालाब पोखर की तलाश की जाय ,किस वाटर किंगडम की झूठी लहरों में लहराया जाय । गोआ और कोवलम , पुरी और दीघा , किस तट पर रेत और सागर के खारे पानी में बदन टैन किया जाय । आखिर कैसे गर्मी को मारा जाय ।

पुराना किला के पास रंगबिरंगे पैडल बोट्स पर जोडे , परिवार, बच्चों की किलकिल खिलखिल , किनारे सडक की गुमटी पर मूंग की बडियाँ और प्याज़ की पकौडी , आह ! कैसी तेज़ तीखी मिर्च की बहती हुई चटनी के साथ , जीभ पर सिसकारी और पसीने की बहती धार , कनपटी से होकर । घमौरियों की चुभन पीठ पर ,पसीने के धार में बही पॉंडस ड्रीमफ्लावर टॉल्क की मीठी खुशबू ।

मॉल में विचरते ,एसी की कूल हवा , ट्रिपल सनडे और आईस्ड सोडा , स्पैगेटी टॉप और बरमूडास , पापा , माँ और बच्चा , सब एक समान । काले चश्मे के पीछे किसी विदेशी परफ्यूम की महक से इतराते इठलाते स्ट्रीक्ड बालों वाली , सुडौल बाँहों वाली , सुबुक टखनों वाली लडकियाँ , बरिस्ता में मोका और लाते और अईरिश कॉफी अदा से सिप करते सफेद पोनीटेल और दाढी वाले बुज़ुर्ग ,साथ में लडकों से कटे छोटे सफेद बालों वाली , ओह कैसी ग्रेसफुल महिला ।और वो छोटी सी लडकी , कमर तक लम्बे बाल , बालों में तितलियाँ , छोटे से शॉर्ट्स और पतले से नाज़ुक पैर , गालों पर कैंडी के निशान , हाथ में कस के पकडा , आईसक्रीम कोन ,आधे से ज़्यादा बहता पिघलता हुआ , कलाई से लेकर कुहनी तक धार बनाता हुआ ।

और आखिर में बचपन के किसी सुदूर जगह और समय में किसी अमराई में , इतनी घनी छाँह कि धूप भी छुप जाये । किसी तालाब के टूटे फूटे किनारे से दूर , सूखी हरी घास पर बिछाई चादर पर पिकनिक के बाद की , कतार में चलते चीटों की बारात , सूखी मुरमुरी पत्तों की चरमराहट के बीच थोडी सी जतन से चुराई मीठी अलस्त झपकी । आखिर गर्मी को कैसे मारा जाय ।

6/19/2007

आखिर है किस चीज़ की तलाश आपको ?

बचपन से लेकर बडे होते होते हम कितने लोगों से मिलते हैं , बातें करते हैं , कुछ स्नेह सौहाद्र के दायरे खींचते हैं , कुछ घृणा और नफरत के चौखुटे में भी बँधते हैं , कहीं कहीं बिलकुल निस्पृह भी हो जाते हैं । घर में , दोस्तों के बीच , दफ्तर में , रिश्तेदारियों की भीड में , परिचितों के झुँड में और अब इस आभासी दुनिया के अनहोनेपने में भी हम कहाँ कहाँ क्या क्या तलाशते हैं ये कई बार हमसे भी छूट छूट जाता है । सही पकड में कहाँ आता है ।


किसी की कोई बात ऐसे छू जाती है , गज़ब ! ऐसा ही कुछ मुँह से निकल जाता है ।कोई और ठीक आप जो सोच रहे थे उसको आप से भी बेहतर , और आप ये मन ही मन मान भी जाते हैं , कह डालता है और आप चकित हो जाते हैं । किसी और ने आपकी बरसों पहले पढी किताब की कोई पंक्ति ऐसे याद दिलाई होती है कि आपकी आँखों के आगे पुराने फीके बदरंग सीपिया रंगों के ,बक्से में बन्द तस्वीरों की , कतार की कतार , कौंध जाती है । ऐसे कि पल भर को साँस हक्का बक्का रह जाती है । कोई ऑरकेस्ट्रा का ऐसा टुकडा , किसी गीत का भूला हुआ मुखडा , कोई राग शिवमत भैरव , कहाँ किस चीज़ की तलाश है आपको ?


कौन सा रेज़ोनेंस खोजते हैं आप ? कौन सी सिम्फनी , कौन सा छूटा हुआ तार सितार , कौन से बुलबुले की मीठी झाग ? कैसे राग ,कैसे रंग ? आखिर है किस चीज़ की तलाश आपको ?

6/17/2007

नारद का ये कैसा बेटर टुमौरो है ?

मैंने असगर वज़ाहत की किताब "मैं हिन्दू हूँ" पढी है । शाह आलम कैम्प की रूहें भी पढी हैं और मैं हिन्दू हूँ भी पढी हैं । मैं हिन्दू हूँ की कहानी में सैफू जो अधपागल है इसलिये हिन्दू हो जाना चाहता है ताकि दंगों के समय मारे जाने से बच जाये । सैफू को जब पी ए सी वाले मार रहे होते हैं तब वह लगातार मार खाते हुये यही कहता रहता है, कि तुमने मुझे क्यों मारा मैं हिन्दू हूँ ।

इन सब कहानियों में क्या है, एक दहशत है, खौफ है, एक समझ है कि, " न हिन्दू लडते हैं न मुसलमान, गुंडे लडते हैं"

असगर वज़ाहत अगर हिन्दू होते तो हिन्दू समाज के डर को लिखते । मुसलमान हैं तो मुस्लिम समाज की दहशत उन्हें दिखाई देती है । पर उसके पीछे की राजनीति भी दिखाई देती है । जिन्होंने नहीं पढी ये किताब, कृपया पढें ।

मामला सारा शायद इसी सब से शुरु हुआ था । बहुत पोस्ट्स लिखे गये, तर्क और भावुकता, नियम और कानून, ये खेमा वो खेमा, हम सही तुम गलत, बहुत सारा आक्रोश, ढेर सारी गलत फहमियाँ, कुछ बचकानापन, अपने को हर कोई सही ठहरा रहा है । और इन सब पोस्ट्स को पढते न पढते हम यही सोच रहे हैं कि शायद भाग एक का पटाक्षेप हुआ ।

जब ब्लॉग लिखना शुरु किया था तब छोटी सी बिरादरी थी । नारद का अपना एक स्थान था । चिठेरों का एक कुनबा था । धीरे धीरे आकार स्वरूप बदलता गया । आज पाँच सौ चिट्ठेकार हैं, अलग अलग सिद्धांत और वैचारिक अभिव्यक्ति को मानने और समझने वाले लोग । तो ऐसे में नारद का स्वरूप क्या हो, जैसी बातें सामने आने लगीं । शायद सबको एक लूज़ कवरिंग देने वाली एक विशाल छतरी जैसा हो । नारद एक एग्रीगेटर है कहना गलत है । नारद एक प्रतीक है । एग्रीगेटर्स कई और हैं और होंगे भी पर हमारे ज़ेहन में नारद का एक खास स्थान है और शायद इसी खास वज़ह की बात है कि आज इस बात से तकलीफ हो रही है कि नारद का स्वरूप विस्तृत होने की बजाय कहीं से छोटा हो रहा है ।

बाज़ार वाले राहुल ने गलत भाषा का प्रयोग किया । बिलकुल सही है ।

माफी माँगी और दूसरे अपने ब्लॉग पर नारद को , बकौल अनूप जी मुँह बिराया । सही है । ये बचकानापन है, थोडी सी बेवकूफी है । जैसे बच्चों की लडाई हो । पर इस मुँह बिराने वाली बात पर नारद ने क्या किया ? एक पत्थर उठा कर फेंक दिया ? इसमें बडप्पन वाली कोई बात न दिखी ।

कई वरिष्ठ चिट्ठाकारों ने पोस्ट लिखी- अभय, अफलातून, प्रियंकर, मसिजीवी, धुरविरोधी

शायद इनके कहे का कुछ लिहाज़ तो करना था । नारद के नियम साफ हैं । लेकिन कभी कभी बडे हित में थोडी बहुत फ्लेक्सिबिलिटी की ज़रूरत पडती रहती है ।

कल अगर कुछ चिट्ठे नारद से बाहर चले जायें, किसको फर्क पडेगा ? न नारद को पडेगा, न उन चिट्ठों को पडेगा । जिनको पढना है वो उन चिट्ठों को बुकमार्क करके रखेंगे । कल कोई नया बेहतर एग्रीगेटर आ जायेगा । शायद कुछ अभी भी हैं ।

मैं न इस खेमे में हूँ, न उस खेमे में । मुझे असगर वज़ाहत साम्प्रदायिक नहीं लगते । बाज़ार वाले की भाषा मुझे अभद्र लगी । उसके गिरहबान पकड कर माफी माँगने की अदा मुझे बचकाना लगी । मुझे अविनाश और गिरिराज का टिप्पणी कीर्तन बचपने का खेल लगी । मुझे नारद के नियमों के उल्लंघन ने परेशान किया । मैंने खुद को संजय बेंगानी की जगह रख कर देखा और खुद को परेशान पाया और मैंने संजय की दूसरे ब्लॉग पर टिप्पणियों के बंदूक के सामने भी अपने को खडा रख देखा और पाया कि मेरी परेशानी और भी बढ गयी ।

लेकिन...

लेकिन इन सब के बावज़ूद मुझे नारद का कहीं से छोटा साबित होना और भी ज़्यादा तकलीफदेह लगा । कल एक, दो या शायद दस बारह या शायद और भी ज़्यादा लोग नारद छोड दें । कल शायद नारद के लिंक की अहमियत अपने ब्लॉग पर गैर ज़रूरी हो जाये । और ये मुझे कोई बेटर टुमौरो जैसा कुछ नहीं लग रहा । शायद मैं तर्क और विवेक के परे भावुकता की भाषा बोल रही हूँ । पर ऐसा एहसास हो रहा है कि ये शायद एक समय के खत्म होने की शुरुआत है और इससे मुझे बेहद परेशानी हो रही है ।

6/16/2007

खुश होने का एक बहाना भी चलेगा

गर्मी का आख्यान लिखा ही था कि बस बारिश शुरु हो गई । पहले गुमस ,एकदम महौल गुम फिर अंधड , तेज़ हवा , धूल । आसमान काला मटमैला ।यूँ भी एकदम नीला आसमान कहाँ दिखता है । मकान और मल्टी स्टोरीज़ , हाई राईज़ और ऑफिस कॉम्प्लेक्स की लगातार चकर मकर , बालू सीमेंट , ईट गारा ,रॉलर ,मिक्सर , रोड , हाईवे , फ्लाईओवर की घिचिर पिचिर , और अब इन सबके ऊपर मेट्रो की खटर पटर ।

जहाँ तहाँ काम चल रहा है । लाल और पीले नियान जैकेटस में , सेफ्टी हेलमेट लगाये कर्मचारी , हाईवे बनाने वाले ठेकेदार , डीएमआरसी के कर्मचारी , इधर उधर, ट्रफिक तक चलाते हुये । क्रेंस और ट्रक , पाईलिंग और बोरिंग । मेट्रो के चौखुटे साईनबोर्डस आधी आधी रोड को घेरे । और इन सब हंगामे और शोर में मिली जुली हॉर्न और गाडियों का शोरगुल । रात रात भर काम , रोड डाईवर्शन के चक्करों में लम्बे चौडे डीटुअर्स । और अब इस बात की दहशत कि बरसात हुई नहीं कि सडकों पर पानी का जमाव शुरु । और हम इन सब के बावज़ूद सब्र और शाँति से बिना किचकिचाये , बिना हडबडाये , बिना एक भी फालतू हॉर्न बजाये झेल रहे हैं इन सारे घँटगोल को । झेल ही नहीं रहे बल्कि मन ही मन खुश होने की सूरत भी खोज रहे हैं कि चलो दो गाने और सुनने भर ही तो रास्ता बढा है ।तो, हम ध्यान मग्न हो सूफी संगीत में रमें हैं । अली मौला मौला , जप रहे हैं । सिर्फ इसलिये कि कहीं बोर्ड पर किसी बनते हुये हाईवे , फ्लाईओवर के धूल धूसरित उपेक्षित कोने पर गर्द और गुबार से ढंका ,बीयर विथ अस फॉर अ बेटर टुमारो देख लिया था ।

6/11/2007

गर्मी नीम दोपहरी की

बेतरह गर्मी है । बचपन में खिडकी दरवाज़ों पर खस की टट्टी लटकाई जाती थी । बीच बीच में पानी से तरबतर करने का काम होता था । कमरे में खस की खुशबू और ठंडक । अल्ल दोपहरी में पूरा घर सोया रहता । छत पर , खूब ऊँची छत पर से लंबी बल्ली से लटका पँखा घिर्र घिर्र घूमता और नंगे फर्श पर पसीने की नमी से चिपचिपचाये बदन ,लोगबाग बेचैन करवटें बदलते । शाम का इंतज़ार रहता । आँगन में या सामने के बरामदे में पानी बाल्टी बाल्टी फेंका जाता और पहली बौछार ज़मीन की गर्मी को उडा देती जैसे जलते तवे पर अंतिम रोटी के बाद फेंके गये पानी की हिसहिसाती बून्दें गरम सतह पर बेचैन नृत्य करतीं ।

कच्चे आम को पका कर अमझोरा बनता । भुने जीरे की खुश्बू और पुदीने के पत्ते की ठंडी तासीर । रसोई वाले बरामदे में बालू की महीन परत पर बैठे सुस्ताते मोटे घडे और एकाध लम्बी पतली सुराही । ग्लास के ग्लास पानी , मुँह ऊपर किये , बिना होंठों से लगाये गटागट एक साँस में , बिना खाँसे ,हिचके पी लेने का आहलाद । और इनसब से भी ज्यादा , नीम दोपहरी में माँ की सख्त हिदायतों को अन देखा करते चुपके अंधेरे ठंडे कमरों का शीतल सुकून त्याग कर किसी पीछे की कोठरी में , तेज़ , चटक , तीखी धूप से नहाया कोई टूटी कुर्सी पर पैर मोडे चन्द्रकांता संतति का रहस्यमय जादू , आज भी इस तेज़ भारी गर्मी में कौंध जाता है ।दिन के किसी वक्त ठेले वाले के पास बच्चों की भीड जुटती । बर्फ की चुस्की पत्ते के दोनों में , ऊपर से टपकाई गयी उदारता से कोई रंगीन सिरप और उटंग फ्रॉकों और नेकरों में , बहते गले की कमीज़ों में रंगे हुये होठों की पीछे से टूटे दाँतों की खिडकीमय हँसी झिलमिल करती ।

गर्मी तब भी पडती थी । लू वाली गर्मी । चेहरे को झुलसा देने वाली गर्मी । पसीने से नहा देनेवाली गर्मी । फिर , तब की गर्मी आज इतनी ठंडी क्यों लग रही है ?