2/23/2007

इरफान यहाँ मेरे पास है

उनसे हमारी दोस्ती पुरानी है । दोस्ती भी ऐसी कि खूब मान मनौव्वल । कभी पैसे माँगे तो ऐसे हक , अधिकार से माँगे कि दिया और खुद फिर कहीं से उधारी की । मना अगर कर दिया तो जिद्द पर अड गये, दोगे कैसे नहीं । हमें ज़रूरत है तो फिर तुम्हीं से लेंगे । हमें कुछ नहीं सुनना । फोन पर बात की तो शुरु लडाई से हुई । रुठ गये । फिर फोन किया कि भई अब मना भी लो । खाने पर बुलाया ,वो भी सुबह सवेरे नाश्ते पर और टरका दिया पावरोटी ऑमलेट पर । जाओ फिर कभी फुरसत से बिरयानी कबाब खिलायेंगे ।


उम्र हो गई पर लडाई बच्चों वाली । बच्चे हमारे देख देख हँसे , पापा लोग ऐसे लडते हैं । हम बीवियाँ गीले गीले । ऐसी दोस्ती । इकतीस दिसंबर को रात पीते रहे दोनों । बच्चे सो गये इधर उधर लुढक कर । मैं और ..... सुकून से बैठे सुनते रहे दोनों को । वो बीवी को कहें , तुम्हें लाईफ में जब कभी कोई परेशानी हो , किसी के पास नहीं सिर्फ इनके पास जाना । दसियों बार दोहराया , दोनों ने। पीकर याराना गाढा होता है । पर यहाँ तो वैसे भी था । हम हँसते रहे चुपके चुपके । बाद में मिलकर खूब ब्लैकमेल किया , उस रात क्या क्या बोले । हम ज़रूर खूब उल्लुपना किये होंगे , दोनों झेंपें ।

एक वक्त वो लोग गया में थे । हम घूमने गये उस शहर । बोध गया गये । उनका परिवार , हमारा परिवार । उनकी पाँच छ साल की बेटी बौध भिक्षुओं को देखकर बोली , अरे देखो ये मुसलमान हैं । हम खूब हँसे । तब उसे मालूम नहीं था कि हिन्दू क्या हैं , मुस्लिम क्या हैं । बच्चे के भोलेपन पर हमारी सम्मिलित हँसी ।

जिस दिन बाबरी मस्जिद गिरा हम शाम उनके घर । खूब गर्मागरम बहस ,बिना इस बात से डरे हुये कि हम हिन्दू , वो मुस्लिम । ये धर्म का फर्क भी बहुत बाद में इस सारी घटना के परिपेक्ष्य में ध्यान आया । वरना उस दिन हम बेखबर , हम गाफिल । चाय और पकौडियों पर बहस चलती रही देर रात तक । कौन किसके पक्ष में बोल रहा है इससे कोई सरोकार नहीं । हम दो खेमे में ज़रूर थे अपनी तार्किकता पर मुग्ध , पैशन से हमारे शब्द जल रहे थे पर ये दो खेमा हिन्दू और मुसलमान खेमा नहीं था । हम वक्त रहते इस गुट से उस गुट में अदलाबदली कर रहे थे ,शब्दों और भावनाओं पर सवारी कर रहे थे और अंत में थककर चूर हो गये । देर रात लौटे थे । तब दरवाज़े पर दोनों छोडने आये थे ।


उनका छोटा भाई एयर फोर्स में था । मिग उडाता था । मिग क्रैश में मारा गया कहीं आसाम के पास । उनके पिता का झुका कँधा याद आता है । कई दिनों तक उसका यान मिला नहीं था । ढूँढ चलती रही । रक्षा मंत्री से मिले । आशा और निराशा के बीच झूलता हुआ मन ।यान तक नहीं मिला । आज तक भी नहीं । उनका दुख । हम साक्षी हैं उन पलों के । देश पर बेटा कुर्बान । हम सोचें शायद एकबार ,कोई अपना नज़दीकी आर्मी में । उन्होंने भी सोचा होगा ।


अब आप बतायें ये और हम , हिन्दू हैं या मुसलमान , या सिर्फ इंसान । दोस्ती , भाईचारा ,देशप्रेम . किसमें एक दूसरे से ज्यादा और कम । और क्यों साबित करना पडे । जैसे एक नदी बहती है शांत स्थिर वैसे ही कुछ अनजाना सा है जो बहता है ,इस सब के बावज़ूद , कई दिन नहीं मिलने के बावज़ूद , हिन्दू मुस्लिम दंगो और सांप्रदायिकता के बावज़ूद । बडी बडी बातों से क्या लेना देना । हमारा सच तो बस इतना ही है । आपका सच कुछ और हो सकता है । सच सिक्के के दो पहलू ही तो हैं । एक पहलू आपका एक हमारा । नज़रिये का फर्क है बस वरना हर तरह के लोग हैं और जैसा मसिजीवी जी ने कहा
"आक्रोश है और इसे ही अपने देश की उपलब्धि मानता हूँ मैं।"


ऐसे कई इरफान हम सब के पास हैं । क्या आप भी ऐसे किसी इरफान को सामने लायेंगे ?

(कुछ दिन पहले "आधागाँव " पढकर एक पोस्ट लिखा था । शायद वो भी प्रासंगिक हो यहाँ , "आधा गाँव के पूरे बाशिंदे" )

2/20/2007

चिट्ठा जगत में ये कैसी महामारी प्रभु

तो आखिर ये मौका मिल ही गया । मेरा शिकार कौन ? तीन दिन से जुगाली चल रही है, किसे पकडूँ , किसे छोडूँ ।

अरे ओ साँभा , कितने आदमी थे ,

तीन कि पाँच ?

पाँच सरदार

सिर्फ पाँच ? बहुत नाईंसाफी है ।

पाँच से ज्यादा होने चाहिये थे। पाँच बात और पाँच शिकार । बहुत नाईंसाफी है ।

रशियन रूले कैसे खेला जाय भई अमित ? पर चलो गंभीर बात पहले । लेकिन उससे पहले ...

पता चला है कि चिट्ठा जगत में छूत की बीमारी फैली है । बडी तेज़ी से फैल रही है ये बीमारी, एक से पाँच , पाँच से पचीस ,पचीस से ,अरे भाई पहले ही बताया था न मेरी गणित कमज़ोर है । जिसे छू दो (माउस के चटके से ) वही महामारी से ग्रसित । तो हम भी इस पुण्य कार्य को आगे बढाते हैं ,शुद्ध भारतीय परंपरा में ,कीटाणु फैलाने के पावन कार्य का श्री ओम गणेशाय नम:

अमित ने टैग किया है । मुझे अपने बारे में पाँच ऐसी बातें बतानी है जो कि लोग नहीं जानते । मतलब कि इतने मेहनत से जो सच आजतक छुपाया था उसे खुद ही जगज़ाहिर कर दूँ ? अब बात तो मेरे हाथ में है कि क्या बताऊँ क्या न बताऊँ । मुझे तो लगता है कि चिट्ठे पर मैंने आप बीती ही ज्यादा लिखी है, लोग सब जानते हैं मेरे बारे में पर फिर भी अब अमित ने एक मौका और दे ही दिया कुछ और आप बीती का तो बिस्मिल्लाह !,

(खुदा को हाज़िर नाज़िर जान कर जो कहूँगी सच ही कहूँगी सच के सिवा और कुछ न कहूँगी )


पहली बात ...जब मैं छोटी थी ( अब बहुत बडी हो गई हूँ ) तो बेहद अंतरमुखी थी ।लोगों से बात करने में हिचकती थी । दस बार सोचना पडता था कुछ बोलने के पहले । किसी से बात करते वक्त लगता था कि वार्तालाप चलता रहे इसका सारा दारोमदार मेरे ही कँधों पर है । तो बात चलती थी और मेरे दिमाग में , आगे क्या टॉपिक हो इसकी घुडदौड चलती थी ।
अब लोगों से बात करना , लोगों को जानना अच्छा लगता है । पुराने दिनों की याद में अब भी दोस्तों को सुनती हूँ , कई कई घँटे । आगे क्या बात चले इसकी टेंशन अब नहीं , चुपचाप सुन सकती हूँ और वक्त पडे तो खूब बोलती हूँ । मेरा दायरा खासा बडा है पर सन्नाटे का सुख अब भी मुट्ठी भर है ।

दूसरी बात ...मैं खूब गुस्सा होती हूँ ,इस पर ,उसपर, सब पर । कई कई दिन गुस्सा रहती हूँ पर अंदर से संतोष की एक नदी बहती रहती है । कई बार सिर्फ जिद्द में गुस्सा रहती हूँ , अपने आप पर हँसी भी आती है बेतरह ।

तीसरी बात ....बहुत बहुत आलसी हूँ । सारा दिन बिस्तर पर किताब पढते बिताई जा सकती है । दिल ढूँढता है फिर वही फुरसत के रात दिन ।

चौथी बात ..... कभी नहीं सोचा था कि चिट्ठा लिखूँगी । मैं अपने को एक बहुत प्रायवेट पर्सन समझती थी । आसानी से नहीं खुलने वाली । चिट्ठाकारी ने ये मुगालता अपने बारे में खत्म कर दिया ।

पाँचवी बात ..मैं बहुत बेसुरा गाती हूँ । गाती ज़रूर हूँ । ऑफिस जाते हुये और शाम को घर लौटते हुये मलिका पुखराज या आबिदा परवीन के साथ सुर मिलाना बहुत अच्छा लगता है । किसी रेडलाईट पर खिडकी के शीशे के पार लोगों को अजीब निगाहों से घूरते हुये पाया है ।(मेरे होंठ उन्हें बेआवाज़ हिलते दिखाई देते होंगे ,सिर किसी अनजानी ताल में हिलता । क्या दृश्य होगा ,आप कल्पना कर सकते हैं ।)


अब आता है जिसे कहते हैं ‘नाइस पार्ट ‘ मतलब शिकार खोजो अभियान । कुछ लोगों को रचना और उन्मुक्त ने पकड लिया । कोई गम नहीं ,इतने चिट्ठाकार हैं ।आँख बन्द कर के भी चूहेराम को चटकाऊँगी तो कोई न कोई शिकार मिल ही जायेगा :-)
गलत मत समझिये , बडी मशक्कत के बाद नाम फाइनल किया है । इंडीब्लॉगीज़ की सूची में आये न आये ,टैग सूची में आये तो सही :-)
( हम तो टैग होने में ही अपनी सफलता मानते हैं , बाकी आप पर है आप क्या मानते हैं )

शिकार नम्बर 1 ई-पंडित ( हो जाये कुछ हरियाणवी स्टाइल )
शिकार नम्बर 2 आशीष (कुछ खाली पीली लिख डालो )
शिकार नम्बर 3 अनुराग श्रीवास्तव (पानी में कितने बताशे ?)
शिकार नम्बर 4 पंकज बेंगाणी ( डॉन को पकडना तो...)

शिकार नम्बर 5 नीलिमा (ये भी रिसर्च टॉपिक हो सकता है क्या ?)

और अंत में ,जब रचना ने खेल ज़रा सा बदल दिया तो मैं भी क्यों नहीं । तो मेरे पाँच सवाल ;-

पहला ; अपने जीवन की सबसे धमाकेदार ,सनसनीखेज वारदात बतायें ( अगर ऐसा कुछ नहीं हुआ है तो कपोल कल्पना भी चलेगी ,सिर्फ ऐसी कल्पना के अंत में एक स्माईली अनिवार्य )

दूसरा ; चिट्ठा जगत में भाईचारा , बहनापा सच है या माया है ?

तीसरा ; किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे ?

चौथा ; ईश्वर को हाज़िर नाज़िर जान कर बतायें (गीता/कुरान पर भी हाथ रख कर बता सकते हैं ) टिप्पणी का आपके जीवन में क्या और कितना महत्त्व

पाँचवा ;चिट्ठा लिखना सिर्फ छपास पीडा शांत करना है क्या ? आप अपने सुख के लिये लिखते हैं कि दूसरों के (दुख के लिये ;-)

2/14/2007

सिर्फ एक प्रेम कथा

गीली मिट्टी ,गेहूँ की बाली, तुम और मैं....

तुम्हें याद है
गर्मी की दोपहरी
खेलते रहे ताश
पीते रहे नींबू पानी
सिगरेट के उठते धूँए
के पार
उडाते रहे दिन
खर्चते रहे पल
और फिर किया हिसाब
गिना उँगलियों पर
और हँस पडे बेफिक्री से
तब , हमारे पास
समय बहुत था
...........................................................




सिगरेट के टुकडे
कश पर कश
तुम्हारा , ज़रा सा झुक कर
तल्लीनता से
हथेलियों की ओट लेकर
सिगरेट सुलगाना
मैं भी देखती रहती हूँ
शायद खुद भी ज़रा सा
सुलग जाती हूँ
फिर कैसे कहूँ
तुमसे
धूम्रपान निषेध है
……………………………………………………………..

तुम्हारी उँगलियों से आती है
एक अजीब सी खुशबू
थोडा सा धूँआ
थोडी सी बारिश
थोडी सी गीली मिट्टी
मैं बनाती हूँ
एक कच्चा घडा उनसे
क्या तुम उसमें
रोपोगे गेहूँ की बाली ?
..................................................................



सुनो ! आज कुछ
फूल उग आये हैं
खर पतवार को बेधकर
हरे कच फूल
क्या तुम उनमें
खुशबू भरोगे
भरोगे उनमें
थोडी सी बारिश
थोडा सा धूँआ
थोडी सी गीली मिट्टी

...............................................................
अब , हमारे पास
समय कम है
कितने उतावले हो
कितने बेकल
पर रुको न
धूँए की खुशबू
तुम्हें भी आती है न
गीली मिट्टी की सुगंध
तुमतक पहुँचती है न
कोई फूल तुम तक भी
खिला है न
............................................................
जाने भी दो
आज का ये फूल
सिर्फ मेरा है
आज की ये गेहूँ की बाली
सिर्फ मेरी है
इनकी खुशबू मेरी है
इनका हरैंधा स्वाद भी
मेरा ही है
आज का ये दिन मेरा है
तुम अब भी
झुककर
पूरी तल्लीनता से
सिगरेट सुलगा रहे हो
मैं फिर थोडी सी
सुलग जाती हूँ.



(ये कविता आज संतोष के जन्मदिन पर उसके लिये )

2/12/2007

ओले ओले

बचपन में , राँची में कभी कभार ओले पडते थे । हम बच्चे छाता लेकर निकल पडते , किसी शीशी बोतल में ओले जमा करने । वापस आते आते ज्यादातर पिघल जाता । उस समय का आह्लाद अब भी रोमाँचित करता है । घर के पिछवाडे की पूरी ज़मीन सफेद हो जाती थी ।ये और बात थी कि सफेदी ज्यादातर टिकती नहीं थी । तभी से किताबों ,पत्रिकाओं में पढी देखी बर्फीली जगहें आकर्षित करतीं रहीं।

कल दोपहर अचानक तेज़ बारिश शुरु हो गई । किसी ने कहा ,ओले पड रहे हैं । हम हँस पडे । यहाँ कहाँ ओले । पर ये देखिये तस्वीर

ओले ओले

बैलकनी से लिया गया ये फोटो । खूब मज़ा आया । बचपन की तरह फर्श पर गिरे ओलों को चुनकर खाया , खूब हल्ला मचाया । बस ,बच्चे बन गये ।


मैंने नहीं देखा
कभी बर्फ
तमन्ना रह गई
बनाऊँ एक स्नोमैन
पहनाऊँ उसे
अपनी कोई पुरानी टोपी
शायद वही हरे रंग वाली
जिसमें फुदना था
और होंठों पर टिका दूँ
कोई सिगार

पर कहाँ से लाऊँ सिगार
मेरी दुनिया में कोई पीता नहीं सिगार
मेरी दुनिया में तो गिरती नहीं
कोई बर्फ भी
पर अपनी तमन्ना का क्या करूँ
पलट लेती हूँ फिर कोई तस्वीर
बदल लेती हूँ कोई टीवी चैनेल
न्यूयॉर्क में गिरी है बर्फ ग्यारह फीट से ज्यादा
शिमला सफेदी के चादर के नीचे
नैशनल ज्याग्राफिक पर देख लेती हूँ
पोलर बीयर का मछली पकडना

कैसी होती होगी
इतनी बर्फ
रिमोट मेरे हाथ में है
मैं जब चाहे निकल सकती हूँ
उस शीतल हिम ठंडे प्रदेश से
वापस आ सकती हूँ
अपने कमरे की गुनगुनाहट में
और बैठे बैठे सोच सकती हूँ

बनाऊँ मैं भी क्या एक स्नोमैन ?


(ग्लोबल वार्मिंग के बारे में कितने लेख पढे । द डे आफ्टर टुमौरो ( शायद यही नाम था फिल्म का ) याद आया । क्या यही 'अर्मागेडोन है या फिर मायन कैलेन्डर के हिसाब से 2012 का पृथ्वी का अंत ऐसा ही कुछ होने वाला है ।)

2/08/2007

कुछ दिन पहले , बेतरतीब यादें

अस्पताल में बैठे थे । पापा सत्त्ताईस जनवरी को कमरे में गिर गये । मेजर सर्जरी । टोटल हिप रिप्लेसमेंट । मैं बीच में घर आई थी कि अस्पताल से संतोष का फोन आया ,कमलेश्वर नहीं रहे , टीवी खोलो । ऐसे ही बदहवासी का आलम था । कौन अस्पताल , कौन सर्जन , सर्जरी जरूरी या फिर सिर्फ अस्पताल का चोंचला पैसे कमाने का । क्या तय करें क्या न करें । ऐसी भागदौड और पापा की तकलीफ । दाढी से बढा चेहरा ,कमज़ोर सा पर हिम्मत गज़ब की । लगातार हँसी मज़ाक करते रहे । पूछने पर भी कभी दर्द या तकलीफ की शिकायत नहीं की ।

अब अचानक कमलेश्वर जी की मौत की खबर । अजीब से बुरे संयोग का भास हुआ । अभी महीने भर पहले उनसे बात हुई थी । आलोक भाई घर आये थे । इन्हें एक पत्रिका ‘परिकथा’ दिखाई थी । एकाध महीने पहले उसके पहले छ: अंक डाक से आये थे । कमलेश्वर जी शुरु में उस पत्रिका से जुडे थे । आलोक भाई ने पत्रिका पलटी फिर तुरत उनको फोन लगाया । बात की और बातों बातों में मेरा ज़िक्र किया , मेरी कहानियों के बारे में बताया फिर अचक्के फोन मुझे पकडा दिया । मैं अभिभूत । कमलेश्वर जी से क्या बात करूँ । उनकी किताबें , उनकी कहानियाँ पढते रहे ,उन्हें टीवी पर देखते रहे । अब अचानक क्या बात करूँ । कुछ सूझा ही नहीं । उन्होंने कहा, अपनी कहानियाँ मुझे भेजो ।

दिन बीत गये । इतने बडे साहित्यकार , मेरी कहानी पढने को माँगें । लगा , उन्होंने औपचारिकतावश कहा होगा । बडा संकोच हुआ । क्या भेजें । बस ऐसे ही फिर नहीं भेजा । छब्बीस जनवरी को आलोक भाई का फोन आया । छूटते ही पूछा , तुमने कमलेशवर को अपनी कहानियाँ क्यों नहीं भेजी । मैं संकोच में । क्या जवाब देती । चुप रह गई । उन्होंने बताया कि ‘नया ज्ञानोदय’ का फरवरी अंक कमलेशवर पर है । ऐडवांस कॉपी मिलने पर उन्होंने कमलेश्वर को फोन किया था । उन्होंने कहा कि प्रत्यक्षा ने अपनी कहानी नहीं भेजी ।
हम रास्ते में थे । मैंने कहा ,मैं सोमवार को उन्हें कहानियाँ भेजती हूँ । उस दिन बहुत अच्छा लगता रहा । इतने बडे साहित्यकार । मुझे याद रखा । मेरे लिये बहुत बडी बात थी । बहुत बहुत बडी बात । आलोक भाई ने ही बताया कि जब वे ‘सारिका’ के सम्पादक थे तब उन्होंने नये लेखकों को खूब प्रोत्साहित किया ।

अगले दिन पापा कमरे में गिर गये । अस्पताल का चक्कर शुरु । और अब कमलेश्वर जी के निधन की खबर । मन बहुत खराब हो गया । बार बार उनकी टनक भरी आवाज़ जो फोन पर सुनी थी , याद आती रही ।

अस्पताल में ही थे कि ज्ञानोदय का फरवरी अंक घर पर आया । अस्पताल और घर के चक्कर के बीच कभी उसे उठा लाई कि कमरे में पापा की देखभाल करते उलट पलट लूँगी । पर मौका नहीं मिला । अब पापा बेहतर हैं । घर आ गये हैं पर ठीक होने में लंबा वक्त लगेगा । पर उनमें गज़ब की ‘विलपॉवर ‘ है । चार घँटे की सर्जरी के बाद जब उन्हें कमरे में लाया जा रहा था तब मैंने कहा , पापा ,मुस्कुराईये ,सब ठीक से हो गया । उन्होंने तुरत जवाब दिया , अच्छा , तब रसगुल्ला खिलाओ । डॉक्टर हँस पडा , कहा ,अब तो इन्हें रसगुल्ला खिलाना ही पडेगा , थोडा सा खिला दें ।

अब घर में हैं । अगले हफ्ते से फिज़ियोथेरापी । कल ज्ञानोदय का फरवरी अंक फुरसत से पढा । कमलेश्वर जी पर लेख पढे । राजा निरबंसिया खोजनी है , पढनी है ।