मुझे बचपन से गणित समझ नहीं आता
जब छोटी थी तब भी नहीं
और आज जब बड़ी हो गई हूँ
तब भी नहीं
कक्षा में पढ़ाया जाता गणित
और मैं देखती , ब्लैकबोर्ड के ऊपर
टंगे ईसा मसीह ,सलीब पर
छोटी सी मूर्ति पर बिलकुल सानुपातिक
या फ़िर शीशे के फ़्रेम में मरियम को
दराज़ों के कतार वाले दीवार पर , ऊपर
या कभी कभी बाहर खिड़कियों से
नीला आसमान , रूई के फ़ाहे से बादल
गलियारे के पार , गमलों में छोटे छोटे
बैंगनी फ़ूल ,ट्वेल्व ओ क्लॉक फ़्लावर्स !
स्कूल की आया , गोडलीपा और उर्सुला
लंबे लकड़ी वाले पोछे से
गलियारा चमकाते हुये
गमले और फ़ूलों का प्रतिबिम्ब
चमकते गलियारे के फ़र्श पर
उड़ती हुई तितली ,दोपहर के सन्नाटे में
एक फ़ूल से दूसरे फ़ूल पर
टीचर की आवाज़ अचानक मेरे सन्नाटे को
तोड़ देती है
दो और दो क्या होते हैं ?
मैं घबड़ा जाती , हड़बड़ा कर कहती , बाईस
पूरी कक्षा हँस देती
मेरी हड़बड़ाहट , टीचर के गुस्से और मेरी बेचारगी पर
अब मैं बड़ी हो गई हूँ
घर सँभालती हूँ , ऑफ़िस देखती हूँ
फ़ाईलों को निपटाती हूँ , अंकों से खेलती हूँ
स्वादिष्ट पकवान पकाती हूँ , मेहमाननवाज़ी में
कुशल हूँ
वित्तीय मसलों पर गँभीरता से चर्चा करती हूँ
पर आज भी गणित मेरी समझ में नहीं आता है
किसी चर्चा के बीच कोई अगर पूछ बैठे
दो और दो क्या होते हैं ?
अब मैं आत्मविश्वास से जवाब देती हूँ, चार
पर सब हँस पड़ते हैं
आप भी श्रीमति जी ....?
दो और दो कभी चार हुये हैं
बाईस होते हैं बाईस
मैं हड़बड़ा जाती हूँ
मेरे चेहरे पर वही बेचारगी होती है
मैं बदल गई हूँ या गणित के
नियम बदल गये हैं ?
मुझे आज भी गणित समझ नहीं आता
२ और २ बाइस हों न हों..१ और १, ११ ही होते हैं।
ReplyDeleteअच्छी प्रतुति है :), धन्यवाद!
बहुत दिनों बाद दिखाई पड़ीं वो भी गणित को लेकर :)
ReplyDeleteअच्छी तरह से समझाया है अंतर आपने तब और अब के गणित का !
छोटे-बड़ो का अलग अलग गणित. वाह! री दुनियाँ
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा। वैसे कवितायें मुझे अधिक समझ मे नही आती लेकिन इतनी सरल कविता को तो बिल्कुल छोड न पाया।
ReplyDeleteबढ़ियां गणित सिखाया-ध्यान रखेंगे अबसे २२ ही कहेंगे. :)
ReplyDeleteअच्छी भावपूर्ण कविता है.
बहुत बढिया रचना है, कविता में जीवन का गणित अपनी सत्यता के साथ उपस्थित है|
ReplyDeleteगणित की क्लास में मैं भी कुछ ऐसी ही हरकतें किया करता था
ReplyDeleteबहुत दिन बाद बहुत अच्छी कविता पढ़ी. देश के तमाम बहुत अच्छे माने माने जाने वाले कवियॊं की कविताऒं के टक्कर की है यह है कविता. इसलिये तारीफ करना मजबूरी है. आशा है इस तारीफ़ के पानी पर चढ़कर इसी तरह की और कवितायें लिखीं जायेंगे.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता है , कई बार लगता है :
ReplyDelete> ज़िन्दगी वही है , मायनें बदल गये हैं ...
हुँ म्म्म।।।
ReplyDeleteबहुत खूब।
मैं इस कविता को जिस नज़र से देख रहा हूँ शायद वो जीवन के उन्ही ना समझे व्याकरण की बात करती है। बात बहुत ही गहरी है! फ़िर मैं ना जाने किस सोच में डूब गया हूँ। क्या कहूँ ...बस... "frame of reference" बदलते ही.... अर्थ .. संदर्भ सब बदल जाते हैं।
ReplyDeleteभविष्य में भी आपको पढना पसंद करूँगा।
अरे !!!
ReplyDeleteतब तोहमारी गणित की पढाई भी हो गयी साढ़े बाईस?
you says verry correct becouse today students know & use maths but they don"t know concept of maths.
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