7/13/2006
आखिर निकल पडे सैलानी
बोलगट्टी महल
सुबह 9.30 की उडान थी. रात की सूट्केस वाली मगज़मारी के बाद हमारा हौसला पस्त हो चला था.सारी पैकिंग सुबह के भरोसे छोड कर हम निढाल बिस्तर पर गिर पडे थे.
सुबह देर से उठे, बेहद हडबडी में निकले और फायदा ये हुआ कि ऐयरर्पोर्ट वक्त से पहले पहुँच गये. सेक्युरिटी चेक के बाद ही आराम की साँस ले पाये. उडान आधे घंटे देर से उडी पर आखिर सैलानी निकल पडे थे.
3.30 के आस पास कोची पहुँचे. ऐयर पोर्ट से निकलते ही अनगिनत नारियल के पेड . वाह मज़ा आ गया . गुडगाँव के ठिठुरे हुये पेडों के बाद इतनी घनी हरियाली. आँखें ठंडी हो गई . मौसम बेहद खुशगवार . यहाँ से त्रिवेन्द्रम तक हमारी यात्रा इंडिका से होने वाली थी . गाडी चालक महेश पिल्लई अब सात दिन हमारे साथ रहने वाला था . 22 साल तक फौज़ की नौकरी करने के बाद चार साल से टूरिस्ट गाडी चला रहा था .
महेश ने बताया कि हमें रुकना बोलगट्टी पैलेस में है जो कि एक द्वीप पर बना हुआ है. बोलगट्टी एक डच व्यापारी द्वारा बनाया गया महल था . इसे 1744 में बनाया गया . 1909 में अंग्रेज़ों को लीज़ पर दे दिया गया .तब से 1947 तक ये उनका रेसीडेंसी रहा .
भारत के आज़ाद होने के बाद सरकार ने इसे ले लिया और फिर इसे एक हेरिटेज़ होटेल में बदल दिया.
तय ये हुआ कि हम बोलगट्टी पहुँच कर कुछ देर थकान मिटायेंगे फिर निकल पडेंगे घूमने. बोलगट्टी पहुँच कर मन प्रसन्न हो गया. हरियाली से घिरा हुआ बेहद खूबसूरत डच शैली का महल .के टी डी सी ने इसे बहुत ही सुंदर तरीके से रखा है . हमारा कमरा और भी शानदार था . एक बैठक , एक सोने का कमरा और एक विशाल बॉलकनी जहाँ से अरब सागर दिखता था . डच अमीरों की शानशौकत, एक दिन के लिये ही सही , हम राजा या कहें रानी थे.
उस शाम खूब बारिश हुई. कमरों के बीच गलियारे से घिरा एक लंबोदरा आँगन था जहाँ पॉम और अन्य पौधे रखे हुये थे. छत से लंबी मजबूत सिकडी लटकी हुई थी जिसके सहारे पानी हरहराता हुआ नीचे गिर रहा था. चमकते फर्श पर पानी और पौधे की परछाई, टाईल वाली छत पर बारिश का संगीत , नारियल के पेड हवा में मस्त झूमते हुये और रेस्तराँ में गर्मागर्म कॉफी. घूमने न भी निकल पाये तो क्या. शीशे के पार से बरसात का मज़ा क्या कम था . पानी थमा तो बोलगट्टीमहल का अंवेशण किया . जगह जगह विशाल तैलचित्र, अंग्रेज़ों के या फिर डच परिवारों के , पुराने फर्नीचर .सौ साल पहले लोग कैसे रहते होंगे , कौन से लोग होंगे, क्या जीवनशैली रही होगी .
रात का खाना , केरेला पराँठा , करीमीन पोलिचाडु , चिकेन वेरिथ्राचा ( वर्तनी गलत हो सकती है , बडी मुश्किल से नाम याद रखा है ) उम्म्म अभी भी मुँह में पानी आ गया. डट कर खाना खाया और चैन की नींद सोये . सुबह नाश्ते के बाद हम निकल पडे कोची घूमने.
यहाँ देखने लायक कई जगहे हैं कोची शहर बहुत पुराना है और इसका महत्त्व इससे आँका जा सकता है कि इसे अरब सागर की रानी "क्वीन ऑफ अरेबियन सी " कहा जाता है . प्राचीन समय से व्यापार की वजह से यहाँ अरब , ब्रिटिश , चीनी , डच , पोर्तुगीज़ और अन्य कई संस्कृतियों की छाप स्पष्ट देखने को मिलती है . कहा जाता है कि यहाँ एक घर ऐसा भी है जहाँ वास्को दिगामा रहता था .
खैर , सुबह हम हिल पैलेस की ओर निकल गये . रास्ते में कोची पोर्ट देखा . बच्चे जहाज देखकर बेहद उत्साहित हुये .एक और नई चीज देखी , चीनावाला , मतलब चीनी तरीके की मछली पकडने की जाल . हिल पैलेस उन्नीसवीं सदी का बना हुआ कोची के राजा का महल है जो अब म्यूजियम में बदल दिया गया है . कोची राजा का स्वर्ण मुकुट देखा , जो वहाँ के गाईड ने बताया कि पुर्त्गालियों ने इसी मुकुट को दे कर व्यापार के अधिकार पर राजा से अनुमतिपत्र प्राप्त किये थे .
एक जगह जो और देखने लायक है वो संत फ्रांसिस चर्च जहाँ वास्को डि गामा को दफनाया गया था जब वो योरोप से आकर यहाँ बीमार पडा और मृत्यु को प्राप्त हुआ . बाद में अवशेष को पुर्तगाल ले जाया गया . सोलहवीं सदी में पुर्तगालियों द्वारा बनाया गया सांता क्रुज़ बासिलिका भी देखने लायक है .
चूँकि हमें मुन्नार के लिये निकल पडना था इसलिये हम और ज्यादा वक्त चाहते हुये भी कोची में नहीं बिता पाये . हिल पैलेस से हमारी सवारी बढ चली मुन्नार की ओर.
प्रत्यक्षाजी
ReplyDeleteआपको केरला का खाना पसंद आया ? मुझे तो कभी नही आया। नारीयल के तेल का खाना :( मुझे तो खुशबु से ही मितली होने लगती है !
वाह! क्या सुन्दर वर्णन किया है आपने| पढकर वहाँ जाने कि प्रबल इच्छा हो रही है|
ReplyDeleteहम भी साथ ही घूम रहे हैं। अच्छा लग रहा है । हम भी कोची गये थे साइकिल से। बंदरगाह की रेलिंग के पास खड़े हुये फोटो भी है हमारे पास । आपके पास यह दिखाने के लिये क्या है कि आप सच में वहां गईं थीं जहाँ के ये वर्णन लिखे हैं,जो कि कहना ही पडे़गा,खूबसूरत लिखे हैं। सूटकेस का ताला तो खुल गया,अब कैमेरा का भी यूरेका हो जाय जरा!
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