7/31/2006
मुन्नार , मुन्नार , हम आ रहे हैं
जहाँ हमने खाना खाया वो छोटा सा होटल था . चेमीन यानि 'प्रॉन" , करीमीन "मछली" और चावल . मज़ा आ गया . सफर फिर शुरु हुआ . सडक का कुछ हिस्सा खराब था औत अचानक एक धक्के से गाडी रुक गई . एक बडा सा पत्थर नीचे आ गया था . एक्सल की अलाईनमेंट शायद गडबडाई थी . महेश की चिंता शुरु हो गई . कुछ हमारी भी . रास्ते में एक जगह हम रुके. एक वर्कशॉप था जहाँ कंप्यूटर से अलाईनमेंट ठीक की जाती थी . संतोष और महेश वर्क्लशॉप के अंदर , मैं और बच्चे बाहर .गाडी से उतर कर हम यूं ही इधर उधर देखते रहे , सडक पर चल रहे लोगों को , स्कूल से लौटते बच्चों को , आस पास के घरों को . दस कदम दूरी पर लगा कि झाडी में एक बकरी खडी है . कुछ देर बाद फिर देखने पर लगा कि बकरी बको ध्यानम की मुद्रा में है. कोई हलचल नहीं . इंवेस्टिगेट करने हम आगे बढे तो पाया कि बकरी की मूर्ति खडी है एक दुकान के सामने . सडक पर बोर्ड लगा था "स्नूपी गार्डेन पेट शॉप " हमारी जिज्ञासा बलवती हुई . दो पिंजरे रखे थे दुकान के दरवाजे पर . एक में एक टर्की और दूसरे में दो बत्तख . अंदर झाँका , एक छोटा सा तालाब , खूब सारी हरियाली , पेड पौधों के बीच कुछ बेडौल मूर्तियाँ , और उनसब के बीच एक मरियल सा पिल्ला जो हमें देखकर खुशी से कूंकने और पूँछ हिलाने लगा . अब तक हमारी जिज्ञासा तीर पर कमान की तरह हो चली थी , अब छूटी कि तब . अंदर दुकान के , एक आदमी बडे मनोयोग से छाता ठीक कर रहा था , उसकी कमानी से उलझ रहा था . हमारी तरफ एक उडती नज़र डाली फिर मशगूल हो गया .हमने भी उसे नज़रांदाज़ किया और दुकान में दाखिल हो गये . एक तरफ कतार से अक्वेरियम, लगभग दस बारह , जिसमें तरह तरह की मछलियाँ , एकाध कछुआ भी , दूसरी तरफ पिंजरों में रंगीन चहचहाती चिडियों का झुरमुट , कुछ मुर्गियाँ , एकाध बत्तख .. बस मज़ा आ गया . ये भी आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से कस्बे में मछलियाँ कौन खरीदता होगा . मुर्गियाँ और् बत्तख तो समझ में आया .खैर , जितनी देर गाडी बनने में लगी उतनी देर हम स्नूपी गार्डेन पेट शॉप में घूमते रहे . छाता वाला आदमी अपने मूंछों में मुस्कुराता रहा , नो हिन्दी , ओंनली मलयालम , जताने के बाद .
गाडी अंतत ठीक हुई और हम चल पडे .पहाडी रास्ता अब शुरु हो चला था. साथ में बारिश भी . दोनों तरफ घने पेड . बीच बीच में पहाडों से बहती प्रचंड धारा , कुछ तो हाथ बढाकर छू लें , इतनी दूरी भर सिर्फ . पाखी हर छोटे जल प्रपात को देखकर उल्लास से चीखती. महेश ने हमें आश्वासन दिया कि थोडी दूर पर एक ढाबा है जहाँ गर्मागरम चाय मिलेगी . वहाँ रुके तो सडक के पार विशाल हुहुआता हुआ पानी का प्रपात . देखकर एकदम से डर लगा . जैसे पानी का सारा गुस्सा उफन कर बह रहा हो . उसकी प्रचंड शक्ति का वेग दूर से ही महसूस किया जा सकता था . बारिश अब भी हो रही थी . छाता लगाकर हम सडक के दूसरी ओर गये नज़दीक से देखने के लिये . सतोष के हाथ में हैंडी कैम, मेरे हाथ में छाता. प्रकृति का नृत्य इससे सुंदर और क्या हो सकता था . और इससे भयावह भी क्या जब कल्पना की कि अगर इसमें कोई गिर जाये तो उसका क्या हश्र हो . लौट कर ढाबे में बैठे . ढाबा कहना गलत होगा क्योंकि केन की खूबसूरत कुर्सियाँ और शीशे का टेबल , स्नैक्स का विस्तार शीशे की आलमारियों में , इसे ढाबे के स्तर से ऊपर उठा रहा था . हमने चाय पी , बच्चों ने चिप्स और नारियल की मिठाई . कुछ पैक कराया और निकल पडे . बाद में हम कई जगह वैसी ही नारियल की मिठाई खोजते रहे पर हमें निराशा ही मिली .
मुन्नार के करीब हम पहुँच गये थे . चाय की वादियाँ शुरु हो गई थीं . ऐसे ढलवाँ पहाड पहले सिर्फ तस्वीरों में ही देखा था. कच हरी चादर ओढे , अधलेटे ,अलसाये पहाड . " रॉलिंग हिल्स " किसे कहते हैं अब समझ में आया . हर मोड पर लगता अब इससे सुंदर और क्या होगा . महेश को कहा कि अगला जब चाय बगान आये तो गाडी रोक दे, कुछ तस्वीरें हम उतार लें . पर चाय के बगान पर बगान निकलते रहे . महेश हंसता , " सर, अब्बी और सुंदर पहाड आयेगा , पूरी दुनिया में इससे सुंदर आप नहीं देका होगा . फॉरेन टूरिस्ट बी यही बोलता ".
मुन्नार शहर में हम प्रवेश कर गये थे . एक अंतिम तीखा मोड , उससे भी तीखी चढाई और हम "टी काऊंटी रेसोर्ट " पहुंच गये थे . थके हारे सैलानी कमरे में पहुँच कर ढह गये . कमरा बेहद सुंदर . बॉलकनी से पहाडों का नज़ारा , चोटी पर धुंध की चादर. सब कुछ एक रहस्यमय चादर में लिपटा हुआ . थोडी ढंड और गर्म कॉफी , नर्म बिस्तर और आराम . हम अगले दिन की घुमाई के लिये खुद को तैयार करने वाले थे .
7/13/2006
आखिर निकल पडे सैलानी
बोलगट्टी महल
सुबह 9.30 की उडान थी. रात की सूट्केस वाली मगज़मारी के बाद हमारा हौसला पस्त हो चला था.सारी पैकिंग सुबह के भरोसे छोड कर हम निढाल बिस्तर पर गिर पडे थे.
सुबह देर से उठे, बेहद हडबडी में निकले और फायदा ये हुआ कि ऐयरर्पोर्ट वक्त से पहले पहुँच गये. सेक्युरिटी चेक के बाद ही आराम की साँस ले पाये. उडान आधे घंटे देर से उडी पर आखिर सैलानी निकल पडे थे.
3.30 के आस पास कोची पहुँचे. ऐयर पोर्ट से निकलते ही अनगिनत नारियल के पेड . वाह मज़ा आ गया . गुडगाँव के ठिठुरे हुये पेडों के बाद इतनी घनी हरियाली. आँखें ठंडी हो गई . मौसम बेहद खुशगवार . यहाँ से त्रिवेन्द्रम तक हमारी यात्रा इंडिका से होने वाली थी . गाडी चालक महेश पिल्लई अब सात दिन हमारे साथ रहने वाला था . 22 साल तक फौज़ की नौकरी करने के बाद चार साल से टूरिस्ट गाडी चला रहा था .
महेश ने बताया कि हमें रुकना बोलगट्टी पैलेस में है जो कि एक द्वीप पर बना हुआ है. बोलगट्टी एक डच व्यापारी द्वारा बनाया गया महल था . इसे 1744 में बनाया गया . 1909 में अंग्रेज़ों को लीज़ पर दे दिया गया .तब से 1947 तक ये उनका रेसीडेंसी रहा .
भारत के आज़ाद होने के बाद सरकार ने इसे ले लिया और फिर इसे एक हेरिटेज़ होटेल में बदल दिया.
तय ये हुआ कि हम बोलगट्टी पहुँच कर कुछ देर थकान मिटायेंगे फिर निकल पडेंगे घूमने. बोलगट्टी पहुँच कर मन प्रसन्न हो गया. हरियाली से घिरा हुआ बेहद खूबसूरत डच शैली का महल .के टी डी सी ने इसे बहुत ही सुंदर तरीके से रखा है . हमारा कमरा और भी शानदार था . एक बैठक , एक सोने का कमरा और एक विशाल बॉलकनी जहाँ से अरब सागर दिखता था . डच अमीरों की शानशौकत, एक दिन के लिये ही सही , हम राजा या कहें रानी थे.
उस शाम खूब बारिश हुई. कमरों के बीच गलियारे से घिरा एक लंबोदरा आँगन था जहाँ पॉम और अन्य पौधे रखे हुये थे. छत से लंबी मजबूत सिकडी लटकी हुई थी जिसके सहारे पानी हरहराता हुआ नीचे गिर रहा था. चमकते फर्श पर पानी और पौधे की परछाई, टाईल वाली छत पर बारिश का संगीत , नारियल के पेड हवा में मस्त झूमते हुये और रेस्तराँ में गर्मागर्म कॉफी. घूमने न भी निकल पाये तो क्या. शीशे के पार से बरसात का मज़ा क्या कम था . पानी थमा तो बोलगट्टीमहल का अंवेशण किया . जगह जगह विशाल तैलचित्र, अंग्रेज़ों के या फिर डच परिवारों के , पुराने फर्नीचर .सौ साल पहले लोग कैसे रहते होंगे , कौन से लोग होंगे, क्या जीवनशैली रही होगी .
रात का खाना , केरेला पराँठा , करीमीन पोलिचाडु , चिकेन वेरिथ्राचा ( वर्तनी गलत हो सकती है , बडी मुश्किल से नाम याद रखा है ) उम्म्म अभी भी मुँह में पानी आ गया. डट कर खाना खाया और चैन की नींद सोये . सुबह नाश्ते के बाद हम निकल पडे कोची घूमने.
यहाँ देखने लायक कई जगहे हैं कोची शहर बहुत पुराना है और इसका महत्त्व इससे आँका जा सकता है कि इसे अरब सागर की रानी "क्वीन ऑफ अरेबियन सी " कहा जाता है . प्राचीन समय से व्यापार की वजह से यहाँ अरब , ब्रिटिश , चीनी , डच , पोर्तुगीज़ और अन्य कई संस्कृतियों की छाप स्पष्ट देखने को मिलती है . कहा जाता है कि यहाँ एक घर ऐसा भी है जहाँ वास्को दिगामा रहता था .
खैर , सुबह हम हिल पैलेस की ओर निकल गये . रास्ते में कोची पोर्ट देखा . बच्चे जहाज देखकर बेहद उत्साहित हुये .एक और नई चीज देखी , चीनावाला , मतलब चीनी तरीके की मछली पकडने की जाल . हिल पैलेस उन्नीसवीं सदी का बना हुआ कोची के राजा का महल है जो अब म्यूजियम में बदल दिया गया है . कोची राजा का स्वर्ण मुकुट देखा , जो वहाँ के गाईड ने बताया कि पुर्त्गालियों ने इसी मुकुट को दे कर व्यापार के अधिकार पर राजा से अनुमतिपत्र प्राप्त किये थे .
एक जगह जो और देखने लायक है वो संत फ्रांसिस चर्च जहाँ वास्को डि गामा को दफनाया गया था जब वो योरोप से आकर यहाँ बीमार पडा और मृत्यु को प्राप्त हुआ . बाद में अवशेष को पुर्तगाल ले जाया गया . सोलहवीं सदी में पुर्तगालियों द्वारा बनाया गया सांता क्रुज़ बासिलिका भी देखने लायक है .
चूँकि हमें मुन्नार के लिये निकल पडना था इसलिये हम और ज्यादा वक्त चाहते हुये भी कोची में नहीं बिता पाये . हिल पैलेस से हमारी सवारी बढ चली मुन्नार की ओर.
7/06/2006
यूरेका यूरेका
समय सात बजे सायं......प्रयास जारी है. हर्षिल ने अब तक 300 तक के कॉम्बिनेशन आजमाने का महारथ हासिल किया. उसकी उँगलियाँ अब दर्द कर रही हैं . लिमका रिकार्ड हो सकता है क्या ? आशावान जिज्ञासा !
मेरी प्रतिक्रिया.....करते रहो वरना ट्रिप कैंसिल . टिकट भी एहतियातन सूट्केस के अंदर वाले पॉकेट में रखा था .
पाखी..रहरह कर बिसूरने के अलावा उलजलूल सुझाव देकर हमारी चिडचिडाहट को बढा रही है.
अब मैं ने भार लिया पर 400 तक पहुँचते पहुँचते उँगलियाँ जवाब दे गईं . बच्चों की उँगलियाँ ज्यादा लचीली होती हैं क्या ?
ये भी लग रहा है कि इस तरह शायद ही खुले. हो सकता है कि सही कॉम्बिनेशन आ कर जा चुका. शायद लिड को खींचना चाहिये सही नंबर पर , तब ही खुले. हे ईश्वर ! अब क्या. एक घंटा बीत चुका है.
पाखी ने एलान किया, "जब पापा आयेंगे वो खोल देंगे"
हर्षिल ," पापा क्या सुपरमैन हैं ?"
हाँ हैं न , मेरे पापा सब कुछ कर सकते हैं.
चलो यही सही. हताश हम भी पलंग पर लेट गये . अब आयें संतोष.
साढे आठ... संतोष का पदार्पण.
"चाय पिलाओ तो सूटकेस खोलें "
हम उवाचे ," अरे जाओ , तुमसे क्या खुलेगा. हमने सब कोशिश कर देख ली "
संतोष का रिकार्ड सबसे खराब. दस मिनट में ही हार मान लिया.
चाय बकायदा पी गई और हम निकल पडे मय सूटकेस लाम पर . इतनी देर हो गई थी. घर के पास ही नुक्कड पर वर्कशॉप है वहाँ पूछा कोई चाभी ताले वाला है आस पास .
"था अभी पाँच मिनट पहले तक "
आशा ने गोता मारा
"उसका मोबाईल नंबर उसके पोल के साथ लगे पेटी पर लिखा है "
( अरे तो ये पहले बताना था न )
आशा ने एक छोटी सी कुदान मारी
तुरत मोबाईल लगाया गया. उसने बताया पास में ही है और दस मिनट में पहुँचेगा.
हम ने डेरा डाल लिया, गाडी पार्क की गई. इंतज़ार शुरु
बंदा बात का पक्का निकला. दस मिनट में हाज़िर . शुरुआती दरियाफ्त की गई. कैपेबिलिटी अस्सेसमेंट के बाद सूट्केस थमा दिया गया.
पोल की रौशनी में सलीम मियाँ ने काम शुरु किया.
"पाँच मिनट में खुल जायेगा .ऐसे ही काम तो रोज़ किया करते हैं"
संतोष ने मौके और हालात का फायदा उठाते हुये सिगरेट सुलगा लिया . (अब इतने नाज़ुक मौके पर क्या गुस्सा होती मैं)
हम बैठे रहे , हम बैठे रहे , हम बैठे रहे, कुछ इस तरह जैसे कहा गया है न "सुबह हुई शाम हुई , जिंदगी तमाम हुई "
इतनी देर बाद पता चला कि सलीम मियाँ भी तार लेकर हमारा वाला ही तरीका आजमा रहे हैं, यानि एक एक करके नंबर.
इस बीच लोग आते , सिगरेट खरीदते वहीं नुक्कड पर वाली दुकान से , जिज्ञासु होते हमें वहाँ बैठे देखकर, कुछ सुझाव उछालते, अपने एकाध इसी किस्म का अनुभव सुनाते कि किस तरह ऐसा ही सूटकेस खोला ( जैसे सूटकेस न खोला रण जीत लिया, वर्ल्ड कप जीत लिया )
हम कुढते रहे, सुनते रहे, खून उबलता रहा .
संतोष ने तंग आ कर अल्टीमेटम दिया, "अगर दस मिनट में नहीं खुला तो तोड दो"
सलीम मियाँ पर भी सलीम की आत्मा सवार हो चुकी थी. जिद ठन चुकी थी.
"खुलेगी कैसे नहीं साहब "
अब हम गिडगिडा रहे थे, "अरे तोड भी दे यार "
ग्यारह बजने वाले थे. सलीम नें कमर्शियल ब्रेक लिया. अपने साथी को उसके मोबाइइल पर फोन किया ( जियो हिन्दुस्तान, हर किसी की जेब में सेल फोन )
हमें दिलासा दी ,"एजाज़ एक्स्पर्ट है , खोल देगा "
आधे घंटे बाद खुदा खुदा करके एजाज़ का आगमन. तब तक पोल की लाईट मुर्झा कर धीमी हो चुकी थी . एजाज़, सलीम और सूटकेस के साथ हम घर की ओर प्रस्थान कर गये . गार्ड के कमरे में गेट पर उतार उन्हें हिदायत दी कि अगर खुल जाये तो फ्लैट में फोन करे. दो मिनट में पस्तहाल बाँकुडे पलंग पर निढाल पाये गये.
अभी ठीक से लेटे भी नहीं थे कि फोन आ गया.
सूटकेस खुल गया था. आर्कीमीडीज़ को कैसा लगा होगा, आज जाकर समझ आया
(अगला भाग कोची का )
7/05/2006
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
इस साल हम कहीं बाहर नहीं निकले थे. पिछले दो साल में सप्ताहांत दौरे के अलावे हम कहीं दूर भी नहीं गये थे. हाँ ये ज़रूर था कि छोटी छोटी छुट्टियाँ हमने कई मनाई थी. हम जयपुर गये थे, मसूरी, चैल , रानीखेत , नैनीताल, करनाल , हरिद्वार , ऋषिकेश ......लेकिन लंबी छुट्टी ये पुरानी कहानी हो गई थी. हाँ सरकारी दौरे पर हैदराबाद और बंगलौर जरूर गये थे.
इधर ऐसा हुआ कि जिससे भी बात हुई वो केरल यात्रा को निकल रहा था. हम सुनते और हँसते थे. बरसात में क्या घूमना. लेकिन एकदिन ऐसे ही केरल की सुंदरता के बारे में सुन कर एकदम से आनन फानन में तय किया ,निकल पडते हैं बरसात होती हो तो हो .
दो दिन में कार्यक्रम तय किया.अब जो घूमने का पूरा ब्यौरा देखा तो ज़रा घबडाये. ऐसा था कि अब तक हम कोई एक जगह चुनते. वहाँ पहुँच कर डेरा डाल देते और चैन की साँस लेते. मन करता तो निकलते नहीं तो न सही . आराम सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा होता. इसी चक्कर में कई साल पहले स्टर्लिंग की टाईमशेयर छुट्टियों के सदस्य भी बने थे. 'होम अवे फ्रॉम होम" वाला "कैची स्लोगन " बहुत भाया था.
लेकिन केरल यात्रा भारी पडने वाली थी . बाईस को दिल्ली से कोची पहुँचना था. अगले दिन मुन्नार की ओर . एक दिन छोड कर थेकड्डी. फिर अगले दिन कुमाराकोम . और अंत में कोवलम. उनतीस को त्रिवेन्द्रम से 3.10 की उडान थी. कुल मिलाकार काफी भागदौड वाली घुमाई होने वाली थी. जाने के एक दिन पहले ज़रा हौसला पस्त सा लगा . पता नहीं इतनी भागदौड संभाल पायेंगे या नहीं. बच्चे खूब उत्साहित. हमने भी देखा देखी उत्साह का जामा ओढ लिया. निकलना सप्ताह के बीच में था इसलिये तैयारी ,समय की कमी को देखते हुये काफी अफरा तफरी में हो रही थी . छुट्टी जाने के पहले आमतौर पर कार्यालय वाले भी ऐसा पकड्ते हैं जैसे वापस लौट कर हम आयेंगे नहीं. जितना काम करा सकते हैं उससे कहीं ज्यादा निपटवाने की होड लग जाती है . इन्ही व्यस्तता में ,निकलने के एक दिन पहले ,करीब 3 बजे घर से फोन आया कि जिस सूटकेस में समान पैक किया जा रहा था वो लॉक हो गया है .कई नम्बर कॉम्बिनेशन आजमाने के बावजूद खुल नहीं रहा.
शाम को थके हारे घर पहुँचे. इस बीच अपने एक सहयोगी की सलाह पर हर्षिल को शुरुआत से ले कर सारे कॉम्बिंनेशन आजमाते रहने का आदेश दे चुके थे . वरना ट्रिप कैंसल की तलवार उसके सिर पर लटकी हुई थी. वैसे भी अपनी गलती ,सूटकेस से छेड खानी करना मानते हुये , बेचारा जुटा हुआ था . पाखी बेहद रुआँसी . उसने शायद सच में मान लिया था कि घूमना कैंसल हो जायेगा . संतोष तक ये खुश खबरी पहुँचा दी गई थी कि और कई सारे कामों के अलावा एक और काम उसका इंतज़ार कर रहा है.
आगे के किस्तों में ....सूटकेस की कहानी पहले फिर क्रमवार कोची , मुन्नार, थेकड्डी, कुमारोकोम और कोवलम की कहानी आराम आराम से...............