5/04/2006

इंतज़ार का सलीका

सोचती हूँ
जब तक तुम
नहीं आते
इस कमरे को
ठीक ही कर लूँ
खिडकियों पर पर्दे
खींच कर बराबर
ही कर दूँ

बिखरे कागज़
समेट दूँ
अपने बालों को
जूडे में कस लूँ
ऐशट्रे में बिखरे
सिगरेट के टुकडों से
आता है
तुम्हारे होठों का स्वाद
हाँ चखा है मैंने

इस कमबख्त
इंतज़ार में
और क्या क्या कर लूँ

डोलती हूँ बेचैन
इस कमरे से उस कमरे
साँस भरती हूँ
एक के बाद एक
साडी के खोंसे पल्ले से
टपक जाती है
मुचडी सी इंतज़ार की
एक और घडी

पर जानती हूँ
जब तुम आओगे
मैं हो जाऊँगी
एक जंगली बिल्ली
झपट जाऊँगी
तुम पर
खरोंच डालूँगी तुम्हारे चेहरे पर
हर लंबे पल का इतिहास

फिर न कहना
दोबारा इंतज़ार करने को
ये नफासत से इंतज़ार
करने के सलीके
मुझे आते नहीं

7 comments:

  1. Anonymous10:36 pm

    इन्तज़ार में इन्तज़ार पर कविता-- सुन्दर ताल-मेल है ।

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  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है
    >साडी के खोंसे पल्ले से
    >टपक जाती है
    >मुचडी सी इंतज़ार की
    >एक और घडी
    वाह !!!!!!

    कुछ समय पहले लिखा था ...

    ऐसा नहीं कि तेरे आनें की आह्ट हमें नहीं
    खोया हुआ था,आप की यादों में दिल कहीं

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  3. क्या बात है,प्रत्यक्षा जी।
    बहुत बढिया लगी आपकी यह कविता।

    समीर लाल

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  4. इंतजार से पहले तो मामला ठीक है। इंतजार के बाद के बाद के हाल भयावह से हैं। ये कैसा सलीका है जो बिल्ली बना देता है।बिल्ली वो भी जंगली! वसीम बरेलवी ने लिखा है सलीके के बारे में :-
    थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिये लौटें,
    सलीकामंद शाखों का लचक जाना जरूरी है।

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  5. वाह प्रत्यक्षा, बहुत अच्छा लगा पढ़ कर, सुनील

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  6. आपने आपका इंतजार का अहसास बहुत खूब कराया है, कविता सुन्दर बन पड़ी है कवि तो वही है न जो अपनी अभिव्यक्ति को अपने शब्द दे, ये हर किसी के बस की बात नहीं, नहीं तो हर कोई कवि होता

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  7. आपकी कविता बढिया लगी

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