4/18/2006

तस्वीर की लडकी बोलती है


जिस रात
अँधेरा गहराता है
चाँदनी पिघलती है
मैं हौले कदमों से
कैनवस की कैद से
बाहर निकलती हूँ

बालों को झटक कर खोलती हूँ
और उन घनेरी ज़ुल्फों में
टाँकती हूँ जगमगाते सितारे

मेरे बदन से फूटती है खुश्बू
हज़ारों चँपई फूल खिलते हैं
आँखों के कोरों से कोई
सहेजा हुआ सपना
टपक जाता है

मदहोश हवा में
अनजानी धुन पर
अनजानी लय से
पैर थिरक जाते हैं
रात भर मैं झूमती हूँ

पौ फटते ही
बालों को समेट्ती हूँ
जूडे में...
बदन की खुशबू को ढंकती हूँ
चादर से
पलकों को झपकाती हूँ
और कोई अधूरा सपना
फिर कैद हो जाता है
आँखों में
एक कदम आगे बढाती हूँ
और कैनवस की तस्वीर वाली
लडकी बन जाती हूँ

तुम आते हो
तस्वीर के आगे ठिठकते हो
दो पल
फिर दूसरी तस्वीर की ओर
बढ जाते हो..

मेरे होंठ बेबस, कैद हैं
कैनवस में
बोलना चाहती हूँ..पर..

क्या तुम नहीं देख पाते
तस्वीर की लडकी के
होंठों की ज़रा सी टेढी
मुस्कुराहट
और नीचे सफेद फर्श पर
गिरे दो चँपई फूल ??

3 comments:

  1. १.जिस रात चांदनी पिघलती होगी उस रात अंधरा कैसा गहराता है?
    २.बाल झटककर खुल जायें तो बंधे कैसे होंगे? ऐसे में तो बाल खोल के झटके जाये तो बेहतर होगा।

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  2. सुन्दर कविता है, आप फ़ुरसतिया की बातों को गम्भीरता से मत लेना। आपकी कविता पढते हुए, एक गीत याद आ गया, वो कैनवास वाली लड़की को सुना देगा :

    कभी शाम ढले तो मेरे दिल मे आ जाने
    कभी चाँद खिले तो मेरे दिल मे आ जाना
    मगर आना इस तरह से, कि यहाँ से फिर ना जाना....

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  3. ये कविता मुझे बहुत अच्छी लगती है !! आपकी कई रचनाएँ पढ़ीं, रचना और भाव की दृष्टी से बहुत पसंद आयीं, आपको इस उत्कृष्ट लेखन पे बधाई देता हूँ !!

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