कभी कभी कोई भूली बिसरी पुरानी धुन सुनते ही वक्त आपको पीछे ले जाता है, बहुत पीछे. ऐसा ही हुआ मेरे साथ. फिर एक एक करके याद आने लगे पुराने गाने , पुरानी धुन.
जब हमारे घर पहली बार टेप रिकार्डर आया तो पापा ने हमें खूब छकाया था. हमारी बातें रिकार्ड कर लीं और जैसे ही हम चुप हुये उन्होंने टेप चला दिया था. हम भौंचक्के, कहाँ से आई ये आवाज़.
उन दिनों टेप रिक़ार्डर आसानी से उपलब्ध चीज़ नहीं थी. हमें पता नहीं था कि ऐसी भी कोई मशीन होती होगी. तब बहुत छोटे भी थे. ज्यादा कुछ मालूम नहीं होता था. खैर, टेप आने के बाद कुछ दिन रिकार्डिंग का जोश रहा. ये जोश कुछ कुछ ऐसा ही था जो बाद में कोई 4-5 साल पहले विडियो कैमरा आने पर हुआ था. हम लोग कभी गाने गाते, कभी नाट्क पढा जाता. बहुत मज़ा आता रहा कई दिनों तक.
कुछ गाने के कैसेट्स जो याद रह गये वो थे , " दमादम मस्त कलंदर " शायद रूना लैला का गाया हुआ और उन्हीं का गाया हुआ "बोलो कान्हा , बोलो छलिया.....मन के वृन्दावन में किसने आज बजाई मधुर मुरलिया....."
एक वाकया जो याद आता है, एक बार बंजारों की टोली आई थी. घर घर पैसे माँग रहे थी गाना गाते हुये. उनमें से एक की अवाज़ खूब बुलन्द थी, करताल बजाते गा रही थी , " सिया जी से मिलने मन्दोदरी आई " आज तक वो आवाज़ और धुन याद हैं. हाँ जी वो गाना रिकार्ड किया था हमने. बडे दिनों तक सुनते रहे थे .
एक गाना और जो याद आता है अब भी, "भरत चले चित्रकूट हो रामा , राम को मनाने"
इन गानों के अलावा घर में थोडा बहुत शास्त्रीय संगीत और गज़लों का भी महौल था. तब पापा सासाराम में पोस्टेड थे. हमारे घर के गेट से सीधा शेरशाह का मकबरा दिखता. उन दिनों की याद आती है . सुबह सुबह कुहासे में डूबी पेडों से छन कर आती हल्की रौशनी और हमारे सोने के कमरे से हॉल का विस्तार दिखता. नींद खुलती थी और मेंहदी हसन की " पत्ता पत्ता बूटा बूटा " लगता किसी सपने की सुरीली दुनिया में सोये हैं . अब भी जब कभी मेंहदी हसन को सुनते हैं तो अधखुली आँखे , हॉल के दूर वाले कोने से आती सुरीली आवाज़ और सुबह की चाय का ट्रे टीकोज़ी सहित फर्श पर और कुहासे में लिपटा सुबह, बस यही याद आता है. गानों से जगहों की और माहौल का असोशियेशन कैसे हो जाता है, आश्चर्य होता है
उन्ही दिनों जगजीत सिंह की पहली रिकार्ड आई थी , : अनफॉरगेटेबल्स " ( शायद यही नाम था ) उनकी " बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी " बेहद पसंद थी. मेरे ख्याल से इससे बेहतर उन्होंने और नहीं गाया , मिर्ज़ा गालिब को छोड करके.
और गज़लों के साथ साथ जो एक और क्रेज़ था ,"कुंगफू फाईटिंग और डांस द कुंगफू" वाले गाने .तभी बीट्लस भी सुनना शुरु किया था और "आई वान्ना होल्ड योर हैंड" या फिर "ईमैजिन " या :” लूसी इन द स्काई विद डायमंड्स '
फिर कुछ दिनों बाद कुमार गंधर्व के निर्गुण भजन सुने , “ उड जायेगा हंस अकेला " " भोला मन जाने अमर मेरी काया " और "हिरणा समझ बूझ पग धरना , हिरणा " हर भजन अद्वितीय .पंडित सियाराम तिवारी को किसी ' लाईव कंसर्ट ' में रिकार्ड किया था . उनकी ठुमरी भी कई साल हम सुनते रहे.
इन सब का असर तो आज तक है
हर गाने के साथ कोई न कोई याद जुडी हुई है और अभी भी इनके बारे में लिखते लिखते चेहरे पर मुस्कान आ गई है
आजकल लेकिन पहले दिनों की तरह गाने सुनने का समय नहीं रहा . घर और ऑफिस पास होने से सबसे बडा जो नुकसान हुआ, कई कई फायदों के बावजूद, कि अब एक गाना खत्म होते न होते ऑफिस पहुँच जाते हैं वरना ड्राइव करने का सबसे बडा सुख था अपने पसंदीदा गानों को सुनते जाना.
4/18/2006
तस्वीर की लडकी बोलती है
जिस रात
अँधेरा गहराता है
चाँदनी पिघलती है
मैं हौले कदमों से
कैनवस की कैद से
बाहर निकलती हूँ
बालों को झटक कर खोलती हूँ
और उन घनेरी ज़ुल्फों में
टाँकती हूँ जगमगाते सितारे
मेरे बदन से फूटती है खुश्बू
हज़ारों चँपई फूल खिलते हैं
आँखों के कोरों से कोई
सहेजा हुआ सपना
टपक जाता है
मदहोश हवा में
अनजानी धुन पर
अनजानी लय से
पैर थिरक जाते हैं
रात भर मैं झूमती हूँ
पौ फटते ही
बालों को समेट्ती हूँ
जूडे में...
बदन की खुशबू को ढंकती हूँ
चादर से
पलकों को झपकाती हूँ
और कोई अधूरा सपना
फिर कैद हो जाता है
आँखों में
एक कदम आगे बढाती हूँ
और कैनवस की तस्वीर वाली
लडकी बन जाती हूँ
तुम आते हो
तस्वीर के आगे ठिठकते हो
दो पल
फिर दूसरी तस्वीर की ओर
बढ जाते हो..
मेरे होंठ बेबस, कैद हैं
कैनवस में
बोलना चाहती हूँ..पर..
क्या तुम नहीं देख पाते
तस्वीर की लडकी के
होंठों की ज़रा सी टेढी
मुस्कुराहट
और नीचे सफेद फर्श पर
गिरे दो चँपई फूल ??
4/12/2006
भाई
आज एक अरसे बाद
हम बैठे हैं
एक छत के नीचे
हम बातें करते हैं
हम हँसते हैं
मैं खोजती हूँ
तुम्हारे चेहरे में
एक पुराना चेहरा
एक बीता हुआ समय
जहाँ मुट्ठी भर कँचे थे
पतंग की लटाई थी
छिले हुये घुटने थे
फटी हुई कमीज़ थी
मुचडी हुई फ्रॉक थी
जेब में मुसा हुआ
टॉफी का सीला हुआ टुकडा था
जिसे इंच इंच बराबर
हर झगडे के बावजूद
बाँट कर खाया था
आज
इतना अरसा बीता
कितने पतझड बीते
कितने वसंत आये
हम फिर बैठे हैं
न कोई लडाई है
न पतंग की होड है
न कोई छिला हुआ घुटना है
न फटी हुई कमीज़ है
फिर भी
आज भी ताज़ा है
मुसा हुआ टॉफी का
सीला हुआ टुकडा
हम बैठे हैं
एक छत के नीचे
हम बातें करते हैं
हम हँसते हैं
मैं खोजती हूँ
तुम्हारे चेहरे में
एक पुराना चेहरा
एक बीता हुआ समय
जहाँ मुट्ठी भर कँचे थे
पतंग की लटाई थी
छिले हुये घुटने थे
फटी हुई कमीज़ थी
मुचडी हुई फ्रॉक थी
जेब में मुसा हुआ
टॉफी का सीला हुआ टुकडा था
जिसे इंच इंच बराबर
हर झगडे के बावजूद
बाँट कर खाया था
आज
इतना अरसा बीता
कितने पतझड बीते
कितने वसंत आये
हम फिर बैठे हैं
न कोई लडाई है
न पतंग की होड है
न कोई छिला हुआ घुटना है
न फटी हुई कमीज़ है
फिर भी
आज भी ताज़ा है
मुसा हुआ टॉफी का
सीला हुआ टुकडा