9/30/2005

मेरे अंदर का जंगल

सुना था
कुछ ऐसे वृक्ष
होते हैं,जो
निगल जाते हैं
मनुष्य को समूचा

मेरे अंदर भी
उग आया है
एक पूरा जंगल
ऐसे वृक्षों का
सोख रहा है जो
धूप का हर एक कतरा

आँखों से जब कभी
खून के आँसू
ट्पकते हैं
तब पता चलता है
काँटों से बिंधा शरीर
और क्या उगल सकता है ?

एक कँटीली बाड
ओढ ली है मैने
कहीं ये जंगल
जो मेरे अंदर
पनप रहा है,
बाहर निकल कर
समेट न ले
मेरे आसपास की
दुनिया को भी
अपनी पुख्ता शाखों में

ये कँटीली बाड
इस जंगल को तो
रोक लेगी
बाहर अगने से
पर मैं ये भूल गई थी
कि बाहर की धूप भी तो
बहिष्कृत हो गई है
अंदर आने से

5 comments:

  1. आज तो फ़ज़ा कुछ गमगीन लग रही है। फिर भी
    गम का ये रूप भी खूबसूरत है।

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  2. शुक्रिया ,सारिका.
    गम और खुशी दो पहलू हैं. अगर गम न हो तो खुशी का महत्व फीका न पड जाये?
    वैसे, तुम्हारी प्रतिक्रिया पढते ही ,मुस्कुराहट आ गई. :-))
    प्रत्यक्षा

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  3. प्रत्यक्षा जी बहुत अच्छी कविता है आपकी बधाई। लेकिन यह कविता लिखने के बाद आपने कुछ सुखद अनुभूति की होगी। क्योंकि घोर निराशा का आवेग जब कविता कै अक्षरों में बह कर निकल जाता है तो शान्ति मिलती है।
    -डॉ॰ व्योम

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  4. Anonymous4:45 am

    सुंदर

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  5. ओह् कतो दारुण, हृदय टा, जेनो, सुदु भेंगे दियेछे केमोन!

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