हाथ पसारे
इष्टदेव से
क्या माँगते रहे ?
मुट्ठी भर धूप
चन्द कतरे खुशी
रोटी भर भूख
कुछ घूँट प्यास ?
क्यों न अब
कुछ और माँगा जाये....
माँगा जाये अब
ढेर सारी आस
बहुत सारा विश्वास
जो हर धडकन पर
साँस ले और
जीवित हो जाये
पले बढे
और मजबूत हो जाये
इतना मजबूत
कि
हमने गढा तुम्हें
या तुमने रचा हमें
इसका फासला
सिमट जाये
उस एक पल के
तीव्र आलोक में
अब तुम
ये मत कहना
कि मैने माँग लिया
इसबार
खुली हुई
अँजुरियों से भी
बहुत कहीं ज्यादा
एक पूरा नीला आकाश ?
8/25/2005
8/22/2005
बरसात की दीवानगी
खिडकी के शीशे से
चेहरा सटाये
मैं देखती हूँ
एक एक करके
बून्दों का टपकना,
पत्तों से होकर
शाखों पर
और फिर नीचे
हरी घास में मिल जाना
मेरे अंदर भी
निष्ठुर अकेलापन
बून्द बून्द ट्पकता है
शिराओं से होकर
आँखों से बाहर
निकल जाता है
शीशे पर बून्दे
बजाती हैं मद्धम संगीत
बून्दों की पायल पहने
हवा नाचती है
अलमस्त , बेपरवाह
मेरे अंदर की उदासी भी
सिमट जाती है
मन के किसी वीरान कोने में
न जाने कब
पैर थिरकते हैं
गीली नर्म घास पर
बून्दें सज जाती हैं
बालों पर
किसी अनाम मस्ती
के आलम में, मैं
हवाले कर देती हूँ
अपने आप को
बरसात की दीवानगी के नाम
चेहरा सटाये
मैं देखती हूँ
एक एक करके
बून्दों का टपकना,
पत्तों से होकर
शाखों पर
और फिर नीचे
हरी घास में मिल जाना
मेरे अंदर भी
निष्ठुर अकेलापन
बून्द बून्द ट्पकता है
शिराओं से होकर
आँखों से बाहर
निकल जाता है
शीशे पर बून्दे
बजाती हैं मद्धम संगीत
बून्दों की पायल पहने
हवा नाचती है
अलमस्त , बेपरवाह
मेरे अंदर की उदासी भी
सिमट जाती है
मन के किसी वीरान कोने में
न जाने कब
पैर थिरकते हैं
गीली नर्म घास पर
बून्दें सज जाती हैं
बालों पर
किसी अनाम मस्ती
के आलम में, मैं
हवाले कर देती हूँ
अपने आप को
बरसात की दीवानगी के नाम
8/10/2005
रोज़ मर्रा के जीवन का मौन निमंत्रण
रोज़ मर्रा के जीवन का मौन
निमंत्रण ???
रात को बोलती थी
वनपाखी
तब जब चाँद्
टहनियों से होकर
घुस जाता है
कमरे में
तब मैं याद करती हूँ
उस सुबह को
कई साल पहले
जब भोर उगता ही था
हम निकल पडे थे
खेतों में
टमाटर, हरी मिर्चॅ
दquot;र धनिये की क्यारियों
के बीच
मैंने मेंड पर से एक
जँगली पीला फूल
टाँक दिया था
तुम्हारे सफेद मलमल
के कुर्ते के काज़ में
दquot;र बदले में
तुमने दिया था
फूल नहीं
गिनकर
तीन टमाटर, दस हरी मिर्च
दquot;र एक मुट्ठी हरा धनिया
मेरे साडी के
पसरे आँचल में
उस दिन उसी मिर्च दquot;र
धनिये की चटनी से रोटी
का निवाला तोडते
तुमने हँस कर कहा था
हमारा प्यार
हमेशा ऐसा ही
तीखा, चरपरा, चटक
ज़ुबान से लेकर
शिरादquot;ं तक झनझनाता रहे...
आज मुद्द्त बीते
रसोई में
बेंत के डलिये में
रखा ट्माटर, मिर्च दquot;र धनिया
मुझे ले जाता है
उसी सुबह की दquot;र
मैं सोचती हूँ
क्या आज भी तुम
चटनी खाकर
कहोगे
हमारा प्यार
ऐसा ही
तीखा, चरपरा, चटक ........?
शायद तुम
आज भी
मेरे मन के
इस मौन आग्रह को
पहचान लोगे......!!!
निमंत्रण ???
रात को बोलती थी
वनपाखी
तब जब चाँद्
टहनियों से होकर
घुस जाता है
कमरे में
तब मैं याद करती हूँ
उस सुबह को
कई साल पहले
जब भोर उगता ही था
हम निकल पडे थे
खेतों में
टमाटर, हरी मिर्चॅ
दquot;र धनिये की क्यारियों
के बीच
मैंने मेंड पर से एक
जँगली पीला फूल
टाँक दिया था
तुम्हारे सफेद मलमल
के कुर्ते के काज़ में
दquot;र बदले में
तुमने दिया था
फूल नहीं
गिनकर
तीन टमाटर, दस हरी मिर्च
दquot;र एक मुट्ठी हरा धनिया
मेरे साडी के
पसरे आँचल में
उस दिन उसी मिर्च दquot;र
धनिये की चटनी से रोटी
का निवाला तोडते
तुमने हँस कर कहा था
हमारा प्यार
हमेशा ऐसा ही
तीखा, चरपरा, चटक
ज़ुबान से लेकर
शिरादquot;ं तक झनझनाता रहे...
आज मुद्द्त बीते
रसोई में
बेंत के डलिये में
रखा ट्माटर, मिर्च दquot;र धनिया
मुझे ले जाता है
उसी सुबह की दquot;र
मैं सोचती हूँ
क्या आज भी तुम
चटनी खाकर
कहोगे
हमारा प्यार
ऐसा ही
तीखा, चरपरा, चटक ........?
शायद तुम
आज भी
मेरे मन के
इस मौन आग्रह को
पहचान लोगे......!!!