1/30/2010

द माईलस्टोन ... भाग 2

( अब आगे ... )

अगर किसी फिल्म की शूटिंग चल रही होती तो भीड़ होती और वह लौट जाती चुपचाप...लेकिन उसकी नजरें अभी जंगल और नदी तट को छान रही थीं... कहीं ‘कोई’ तो हो...

नहीं... कोई नहीं है।

तो कोई नहीं आएगा अब?

उसने अपनी आंखें भीतर को मोड़ीं और जैसे जन्मों से जमी हुई प्रतीक्षा की ठंडी चट्टान को छुआ... जो बिना हिलेडुले पड़ी रहती है भीतर। वह पुल की ओर बढ़ी। दोनों तरफ से लोहे के रस्सों पर कंपता हुआ पुल... रस्सों के साथ बंधी बौद्ध मंत्रों से भरी कपड़े की झंडियां... दैवी शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए रंगे हुए मंत्रचीर... अब इनसे कुछ नहीं ढांका जा सकता- ये झंडियां हवा में कांपती रहती हैं, आत्मा भीतर ठिठुरती रहती है।

पुल के बाद सीधी-सपाट पक्की सड़क... दोनों तरफ देवदार और कैल के लंबे-घने पेड़... उनसे छन कर आती गुनगुनी घूप, जो कुछ देर पहले नीचे उतरती ठिठुर रही थी। पांवों के नीचे रात की ओस से सने नुकीले पत्ते, जो नए हरे पत्तों के लिए जगह छोड़ कर धरती की बिछावन हो जाते हैं। देवदार से झड़े गुलाबनुमा भूरे फूल... और उसके सखा... यानी चीड़ के अग्रज कैल से झड़े लंबे-भूरे लक्कड़फूल...

धूप के टुकड़े के तले आकर उसने एक लंबा फूल उठा लिया और उसे नाक के करीब लाकर उसकी महक लेने लगी। सहसा उसे किसी की संकोच भरी चेतावनी सुनाई दी-

‘‘हेलो... फूल को संभल कर पकड़िए... इन फूलों का गोंद हाथों और कपड़ों से बुरी तरह चिपक जाता है और आसानी से नहीं छूटता...’’

नहीं... किसी ने नहीं कहा... कहीं कोई नहीं था... यह तो ‘उस’ ने तब कहा था जब पहली बार मिला था... अचानक पास आकर... उसी के जैसा भटकता परिंदा... उसी के जिस्मोजान की पहचान सा... उसी की देहभाषा को गाता... कितना कंगाल, फटेहाल... और कितना मालामाल...

उस वनैले क्षण की काश्ठ-गंध में समा कर एक नई और आत्मीय गंध उसके भीतर चली गई थी... पुरुषगंध... लेकिन सबसे अलग... पहले दिन से विकसित... आदिम और अदम्य...

‘‘मैंने जो कहा, उसका पता यदि आपको पहले से है... और अगर आप पता होते या पता न होते हुए भी परवाह नहीं करतीं तो मेरी बात पर ध्यान न दीजिएगा... ’’

वह अपने भीतर हिली... ध्यान क्यों न दूं? उसी होश पर तो निश्चिंत हैं मेरी बेपरवाहियां... सुनती सब हूं... छूता वही है जो छू सके...

‘‘ओ. के. ...’’ प्रकट में वह इतना भी ठीक से नहीं कह पाई थी कि-

‘‘कुछ खुशबुएं इतनी प्यारी होती हैं कि आप उनकी कैसी भी संभावित छुअन से नहीं डरते... किसी भी हद तक! एवरी मोमेंट इटसेल्फ... टेक्स इट्स केयर... तो भी... प्लीज़ बी अवेयर... ’’

कह कर वह अपने रास्ते पर जाने के लिए मुड़ने लगा तो वह उससे आंखें मिला कर होंठों पर कुछ लाते-लाते चुप रह गई... और अपने चुप रह जाने के रहस्य को पकड़ लिए जाने को देखती रह गई... अपने उस सपने को पकड़ लिए जाने को... जो समझ में आ भी जाए, पर हाथ में नहीं आता...

उसके होंठों पर जम गए शब्दों को पिघला गया वह- उस घड़ी के अपने इन शब्दों से- ‘‘आय केन लिसन द सौंग ऑव योर साइलेंस इन माय मोमेंट... इस क्षण में बन रही एक ग़ज़ल में... ’’

‘‘ग़ज़ल?’’ वह बिना बोले होंठ हिला कर रह गई।

‘‘तेरे बियाबां से मेरे याराने हैं... ये जंगल मेरे जाने-पहचाने हैं...’’

‘‘ओह...’’ वह जहां की तहां ठहर गई... अपनी आंखों में उसके कहे का जवाब लेकर... उसे समूचा सुनते हुए-

‘‘मैं जब अपने होने पर हैरान होता हूं तो सहसा कोई आवाज सुनता हूं कि यहां तो अस्तित्व तक नहीं जानता कि वह क्यों है? उसे ‘क्यों’ का नहीं, ‘है’ का शायद अबोध सा कुछ बोध हो। कहकशाओं या नक्षत्रों की ज्वलंत हैरानियों को... और मेरे या आपके होने की परेशानियों को यहां कौन पूछता है? बस, अटको मत... सतत भटको... चरैवेति... ’’

‘‘आह!’’ वह होंठों पर एक तड़पती जुंबिश लेकर रह गई।

दोनों की नजरें अब एक सेकेंड भर को मिलीं और जो होना था, वह हो गया... पता नहीं क्या?

उसके मुड़ते-मुड़ते वह अपने होंठों पर आए कुछ शब्दों में से अंतिम शब्द को खुद भी सुन सकी थी- ‘‘थैंक्स...’’ बोली वह इससे आगे भी थी... ‘‘... ओ, वंडर... वांडरर... थैंक्स..’’

वह चला गया... वह उसे दरख्तों में ओझल और खुद में उदित होते देखती रही।



आज वह उस मुलाकात को जैसे फिर से देख रही है... और उस दिन के बाद अपने यहां तीसरी बार आने को भी... कि उसके भटकाव की पुकार अब किस मुकाम पर है? अब किसको खोज रही है? ‘वह’ क्या अब मिलेगा भी? क्या उसे मालूम है कि वह उसके ‘होने’ के साथ हो ली है? क्या उसने उसके मुंह से निकला वह ‘थैंक्स’ सुना भी था? वरना एक पुरुष के लिए क्या यह एक शब्द काफी नहीं था ठिठक जाने और दुनियावी परिचय पा जाने को?

उसने जो कहा था, वह दो के बीच का अनकहा अद्वैत था... मगर जो आसानी से समझा जा सकता है, वह साफ है... हर नए को छूने से पहले आसानी से भरी एक सावधानी बरतो... मस्ती से भरी एक कीमियागरी...वरना आगे खतरा है। रिश्तों की गोंद थोड़ी दूरी से छुओ... एक फासले से ठीक सा फोकस करके देखो तो कहीं कोई भय नहीं...

देखने और छूने के ढंग अर्थ को बदल देते हैं... पर ये अर्थ भी आखिर हैं क्या? वह, जो तुम तय करते हो, या वह, जो वास्तव में है? लेकिन इस ‘वास्तव’ को भी कौन तय करेगा? पहाड़, जंगल और नदी के भीतर अगर हमारे फलसफे प्रवेश कर जाएं तो रचना तो दूर, बचना असंभव हो जाए कुदरत के लिए... वरना चांद तक को खबर नहीं कि धरती पर उसके लिए हार्दिक आहें भरता मनुष्य उसे दिमागी तरीके से रौंद भी चुका है... अपने ज्ञान या विज्ञान की षान में... अपनी धरती को श्मशान बनाते हुए...

दिमागी तर्क चिल्लाते हैं, दिल की दस्तकें सहमी-सहमी पुकारती हैं...

सभी पुकारों को अनसुना कर उसने नदी की अतक्र्य पुकार को सुना और नदी की तरफ निकल गई... अपनी जीन्स के पांवचों को दो बार ऊपर को मोड़ा, जैकेट उतार कर बैग में डाला और बैठने के लिए एक सुनहरी-भूरी चट्टान चुन ली...

एक चट्टान को दूसरी चट्टान चुनती ही नहीं... गुपचुप सुनती भी है।

बैठते ही एक गर्म लंबी सांस बाहर फेंकी तो जवाब में अनायास भीतर नदी की नमहवाई सांसें भर गईं... अप्रयास...

शीशे जैसा पारदर्शी पानी... और शीशे सा साफ मानी भी... कि बैठे मत रहो किनारे पर... कम एंड लेट फ्लो द सेल्फ... योर... प्योर सेल्फ! उसने खुद को थामे रखा। तभी लाल दुम वाली एक नन्हीं चिड़िया जाने कहां से आई और सामने की चट्टान पर उतर कर पानी में अपनी चोंच डुबोने लगी। परवाज को आसमानी रंग का पानी चाहिए आकंठ... और तरबतर हो पंख फटक-झटक कर सुंदरतर असुरक्षित उड़ान को...

वह अपने भीतर उस रोज से लरजती एलियन इबारतों को भीतर थपक कर बाहर देखने लगी...

पानी में उभरती चट्टानें... जैसे बड़े-बड़े कछुये बैठे हों... सिर्फ इतना नहीं, बल्कि अदृष्य में विचरती एक दूसरी दुनिया का अहसास भी... सिर्फ विज्ञान की ही मानें तो भी केवल हम रूपधारी लोग ही नहीं हैं इस प्लेनेट पर... अरूपों का एक बड़ा संसार भी है। उनसे बात करने का मन होता है... ओए, माहणुओ... परमाणुओ... सुन रहे हो न? हम तुम्हें तंग तो नहीं कर रहे?

हाथ हिलाते ही ध्यान आता है कि पता नहीं कितने अदृष्य जीवों को परे हटा दिया... और उन्होंने हमें फिर-फिर घेर लिया होगा... एक संसार में कई संसारों के होने की अनुभूति उसे षिद्दत से पानियों से सटे निर्जन वनों में होती है।

उसके विचार आहिस्ता-आहिस्ता मद्धम होते गए... भीतर जाकर नस-नस का रस हो चुका वह हदपार का हादसा अब शांत था। वह आत्मलीन हो आंखें बंद किए वहीं बैठी रही।



आवाज से उसका ध्यान टूटा...

वह संभली... देखा, नदी पार से कुछ लड़के मस्ती में सीटी बजा कर पुकार रहे हैं। एकांतों में अकेले विचरते ऐसी सीटियां सुनने की आदत है उसे... छोटे-छोटे लड़के भी जान जाते हैं कि लड़की का अकेले होना सदा से संदिग्ध है... या एक तमाशा...

उसने झुक कर पानी पिया... बहुत ठंडा बर्फीला पानी... भीतर तक सिहरन दौड़ गई। फोन कैमरे से कुछ तस्वीरें उतार कर वह उठ खड़ी हुई। लड़के अभी सीटी बजा रहे थे। उसका परदेशी रूपरंग उन्हें कुछ ज्यादा शह दे रहा होगा। वह लौट चली... चट्टानों को कूद-कूद कर फलांगते हुए...

पेड़ों की घनी ओट में पहुंच कर भी उसे लगा, वह देखी जा रही है। उसने पेड़ों के बीच के हर रिक्त स्थान पर नजर दौड़ाई... कहीं कोई नहीं था... लेकिन जो देख रहे हैं, उन्हें तुम नहीं देख सकतीं... क्योंकि अस्तित्व की निराकार नजरें सदा हम पर लगी रहती हैं... बड़ी उम्मीदों के साथ... ताकि हमारे जरिये स्त्री और पुरुष तत्त्वों से संपन्न यह विकासमान सृष्टि बची रह सके... क्योंकि सृष्टि को खतरा भी सिर्फ मनुष्य से ही है... उस मनुष्य से जो अभी बन रहा है... श्रेष्ठतम होने की खुशफहमियां पालता... सजातीय गिरोहों के आसरे पलता... प्रदर्शन की सत्ता के महानायकों की गलबंहिंयों का शिकार होता... मेहनत और शोहरत को जनमत के लिए भुनाता... कीच उछालने की सुविधा को साहित्य समझता... जीवंतता और अद्वितीयता से सदा चिढ़ा-कुढ़ा और भिड़ा हुआ मुर्दा मनुष्य... इसे अपने दम पर निर्भय जीने वालों से सदा बैर रहा... वह भी उधार का और संगठित!

दरख्तों में से गुजरते हुए एक नए छोर पर उसे बैठने की अच्छी जगह मिल गई, जहां वह आराम से कुछ खा सके। सामने के टीले से एक झरना फिसल रहा था। उसने बैग खोला और नानी की दी हुई चीजें निकालीं...

जैसे ही उसने एक सैंडविच उठाया, उसके सिर के ऊपर संकोच भरी आवाज मंडराई-

‘‘मे आय सिट हेयर... कैन आय? अगर आपको बाधा न पहुंचे?’’

उसने सिर उठाया और देखती रह गई...



( बाकी और है अभी ... )

1/13/2010

15 माइल्स...द माइलस्टोन

अपने ब्लॉग पर कभी दूसरों की चीज़ नहीं डाली पर ये कोई हीरामन की तीसरी कसम नहीं थी । खैर , दो शैतानों से बातचीत होती रही थी और अचानक बातों बातों में एक नये खेल का अस्वाद .. चलो व्हाई नॉट । मुझे आनंद आयेगा , उनको आयेगा और मेरे सब ब्लॉग साथियों , उम्मीद है आप सबों को भी आयेगा


ये दोनों जब रोहतांग के इस पार होते हैं, तो सेब भेजते हैं और जब रोहतांग के उस पार होते हैं तो बर्फ! सागरतटों से अक्सर समंदर भेज देते हैं...और एक दिन सेब और बर्फ के बदले एक कहानी चली आई । कहानी पर लेखिका का नया सा नाम टंगा हुआ देखा... . फिर यही सोचा कि जब तक यह ताजा-ताजा कहानी कहीं सामने आए मैं इसे सबके सामने रख दूं... पाठकों पर छोड़ती हूं कि बताएं कि किसने लिखी होगी यह कहानी... इतना बता दूं कि है तो यह कहानी उन्हीं दो बदमाशों की...


15 माइल्स...द माइलस्टोन


हिमालयी संगीत की खनकती धुन...
समूची बस पर सवार है यह लहराती धुन...
सवारियों के दिलों में...आंखों में...सरगोशियों में...
एक युगल स्वर को खामोशियों में गूँजाती हुई धुन-
‘‘हर सुबह तुमसे जन्म लेते हैं, हर शाम तुम में खो जाते हैं...
तुम जगाते हो तो जगते हैं, तुम सुलाते हो तो सो जाते हैं... ’’
इन शब्दों में सबको अपना-अपना मंतव्य और गंतव्य मिल जाता है।

यह नृत्यों और गीतों की घाटी है... सीढ़ीदार खेतों और बागों में उगी उमंगों की आहट बचाती घाटी!
संगीत और शब्द बस में तो नाच ही रहे हैं... मानो इंजन और टायरों में जा कर भी सांस लेने लगे हैं।
बगल में नदी और चहुंओर कुदरत के खुले नजारे!
हर मोड़ जीवन जगाता एक जादू...

एक लंबी और चुस्त लड़की खड़ी है सामने मोड़ पर...
जिंदगी भी और जादू भी... यकीनन!
लड़की के हल्के से संकेत पर बस ठहर जाती है...
सबकी नज़रें उस लड़की के लिए स्वागत से भर गई हैं... उसे नदी की ओर खिड़की वाली सीट मिल गई है।
किसी को कोई जल्दी नहीं है। इस घाटी में फुर्सतें अभी बरकरार हैं। सड़क पर पहुंचते ही कोई न कोई बस आसानी से मिल जाती है... जरा सा हाथ हिलाया नहीं कि बस ठिठक कर खड़ी हो जाती है। ड्राइवर और कंडक्टर जानते हैं कि सामने जो हाथ हिलता है, उससे रोजगार चलता है और नईनई सवारियों से पहलू बदलता एक विस्मय संसार भी...
बस में लिखा भी है -
‘अपनी सवारी जान से प्यारी!’
ओ, लड़की! तुमने पढ़ा क्या? पता नहीं हिंदी जानती भी हो कि नहीं? पूरी एलियन लग रही हो... पीठ पर बैग लटकाए... दूर देश की गोरी छोरी! और... बजते हुए गीत का दृष्य हो गई हो। सो स्वीट एंड सो ग्लैमरस!
यह लो... प्रायवेट और लोकल बस का युवा ड्राइवर स्मार्ट हो गया... उसने उसके गाल में पड़ते टोये... यानी दिपदिपाते डिंपल देखते ही पंजाबी गाना चालू कर दिया- ‘गाला गोरियां ते विच टोये... असी मर गए... ओये-होये! ...कुड़ी कढ के कालजा लै गई...’
सामने बैठी एक स्त्री मन ही मन कह रही है- ‘पता नहीं कलेजा ले गई कि पूरा कॉलेज ही ले गई? पंजाबी विच हर गल दे दो मतलब! ठीक है... तुसी मर ही जाओ... ओए होय... तुहाडा बेड़ा गर्क होय! सानूं थल्ले ल्हा देओ ते तुसी जाओ ऊपर!’
‘अपनी सवारी जान से प्यारी’ के मतलब और भाव बदल गए... कुछ नजरें हट ही नहीं रहीं।
लेकिन वह लड़की तो कहीं और है... उसकी गहरी और खोई-खोई आंखें उसकी बेखयाली को गा रही हैं। पीछे बैठे दो लड़के अपनी जुबान एक-दूसरे के कान से सटाए हुए हैं- ‘‘हर बार अचानक नए मोड़ पर आ जाती है... नए भेस में... इसका पता लगाना पड़ेगा।’’
हां... सिर्फ अपना पता भूल कर!
अंतःपुर में बजने वाले नूपुर हर किसी के पल्ले पड़ते भी नहीं। घर बैठे धूप तापना कितना आसान है! सूरज और किरण को किसने छुआ है?

आज धूप वाला दिन है...
पहाड़ पर दिसंबर में पहली बर्फ के बाद की धूप... यानी अघोशित उत्सव! लोग घरों से बाहर उमड़ पड़ते हैं... रंगबिरंगे कपड़े पहने... औरतें अपने दरवाजों पर अनाज बीनती, लकड़ियां और घास सहेजती या सब्जी काटती आसानी से दिखाई दे जाती हैं। कई दिनों के बाद नीले आसमान के नीचे धुलने वाले कपड़े सूखने को टंगे हैं- मीठी धूप को हौले-हौले पीते हुए... एक बिल्कुल नए समय में... नया सूरज तापते...
उसे यह घुमावदार सड़क अच्छी लगती है, इसलिए वह अक्सर कुछ बसों को छोड़ भी देती है और नदी के किनारे-किनारे काफी आगे तक पैदल निकल जाती है। नदी पार देवदारों के झुंड उसे हर बार नया रूप पहने खड़े मिलते हैं। इस बार भी वह नदी के इन तटों को जी भर कर देखने के बाद बस में चढ़ी है। खिड़की के बाहर बर्फ से लदे पहाड़...उनके बीच हरियाली और पतझर के नजारे... पाइन्स प्रजातियों को छोड़ कर हर कहीं ठंड से झुलसे पेड़...पीले पत्ते... सर्दी में दुबली हो जाने वाली नदी के आर-पार और बीच में उभर आई दूधिया चट्टानें... गोल-मटोल मटमैले और संगमरमरी पत्थर...
बंधनमुक्त होने का अहसास उसे आज कुछ अधिक है...
उसे ब्यास नदी का पौराणिक नाम याद आता है-विपाषा! तटों के बंधों में भी पाशमुक्त है नदी...क्योंकि उसमें प्रवाह है...वह किसी की कुछ नहीं लगती, इसीलिए सबकी है...हर अंजुरी को उसने अपनी रवानी से पानी दिया है और हर घटना से विरक्त-मुक्त हो आगे निकल गई है।
उसे दो अनोखे शख्स शिद्दत से याद हो आए, जिनके प्रेम से वह जन्मी थी... जिनकी घुमक्कड़ी के दरम्यान उसे हिमालय में एक गुमशुदा सी जिंदगी मिली... जो उसे दूर-दूर छिपाते बरसों अपने पिछले रिश्ते-नातों में आते-जाते रहे... जिन्होंने उसे सिखाया कि सच्ची जिंदगी की रचना स्वयं करनी होती है... झूठों से बनने वाली संगठित दुनिया में... अक्सर अपने वजूद को छिपा-छिपा कर... नए-नए लिबास देकर... अपने सच की हिफाजत के लिए दुनियावी झूठों के औजार लेकर...
एक दूधिया नाले के पुल से बस गुजरी... लंबे मोड़ पर मुड़ी... और उसके चेहरे पर धूप आ पड़ी... आज फिर वह अपनी रूहपसंद जगह पर पहुँचेगी और वहां अपने और इस मौसम के कुछ और रूपरंग देखेगी... पता नहीं क्या-क्या?
आकस्मिक और मारक हैरानियां उसकी जिंदगी हैं...

‘अनंतकाल तक बार-बार इन वादियों में आना है मुझे... यह सब मुझमें है... मुझसे है... यह सब इसलिए है कि मैं इस सबमें अपने खोए हुए खुद को खोज सकूं... हर चीज पर शंका और प्रश्न कर सकूं... यह भी कह बैठूं कि सिद्ध करो कि यह संसार सच में है... कि मैं हूं... मगर मैं... मैं तो हूं ही... चाहे कुछ हाथ न आए... समूचे संघर्ष और उत्कर्ष के बाद खाली हाथ जहां मैं लौटता हूं, वह कौन है? मैं! सोहम्! अस्तित्व का सबसे बड़ा सच... जहां से सब शुरू होता है, और जहां सब लौट आता है... अनासक्त प्रेम की तरह!
‘इस संसार में एक ही चीज शाश्वत है- मुझमें सदा से अज्ञात की सांस लेता- प्रेम! लेकिन कितना नवरूप और कितना क्षणजाया! समझ सको तो कितने प्यारे एडवेंचर हैं दुनिया में आने और जाने के!’
कितनी-कितनी बार वह इन अजात शब्दों को अपने भीतर नहीं जी चुकी? जैसे रोज एक नया पोस्टकार्ड उसके हाथ लगता है... एक नया संदेश... कि जो आशियाना तुम्हारे नाम है, उसे ढूंढ निकालो...
उस रोज वह कितने पास आ गया था...
कुछ लम्हों की वह मुलाकात... जैसे पानी का झलमला... जैसे हवा का झोंका... कितना काल्पनिक... कितना वास्तविक! पता ही नहीं चलता कब वह क्षण तुम्हारी बगल की सीट पर आकर बैठ जाता है और तुम उससे बातें करने लगते हो... अक्सर होंठ हिलाए बिना...
ऐसे ही तो आया था वह...
फिर एक झलक के साथ कुछ इबारतें भर देकर अपने रास्ते निकल गया था... उसे उसकी चुनी हुई जगह सौंपता। क्या अब कभी मिलना होगा? और क्या यह संभव होगा कि अचानक मिलें और फिर उसी तरह अपने रास्तों पर निकल जाएं? पीछे मुड़ कर देखें तक नहीं?
ऐसे लोग क्यों बीच पगडंडी पर सामने आ जाते हैं, जिन्हें आप पहली नजर में पहचान तो लेते हैं, मगर पीछे से जरूरत भर आवाज में पुकार भी नहीं पाते? कोरे कागज की फड़फड़ाहट बन कर... अनलिखी किताब की आहट होकर रह जाते हैं...

संगीत बदलती बस रुकती चलती रही... और बर्फढके पहाड़... और नदी भी।
क्या है इन जगहों पर कि वह बार-बार चली आती है... अकेली... बिना थके... बिना रुके? नग्गर... सोलंग नाला... रोहतांग... केलांग... चंद्रताल... सिंधु नदी के आर-पार का लद्दाख... सांगला... ताबो, काजा, किब्बर... स्पिति... ये ऊंचे-नीचे पहाड़ी रास्ते- अपनी पीठों पर घास के गट्ठर लादे, ढलानों से उतरती हंसती-मुस्कराती स्त्रियां... छोटी-बड़ी लड़कियां... सत्तर-अस्सी साल तक की औरतें... जन्म से ही पहाड़ की जिंदगी... या पहाड़ सी जिंदगी को सहज स्वीकृति देतीं!
हमारी पिछली यात्राएं ही अगली यात्राओं के डिजायन फंदे बना-बना कर बुनती हैं... हम उन्हें ठीक से समझ कर स्वीकार न करें तो आगे के सफर खुशनुमा कैसे हों? ‘लेकिन मैं?’ वह खुद से पूछती रहती है-
‘क्यों भटकती हूं बार-बार... लगातार... यहां?’

‘‘तू पैदा कहीं भी हुई हो, है तू पहाड़ी परिंदा ही!’’ एक औरत की सधी हुई आवाज थी... जब लद्दाख की सीमा तक पंजाब था... पांच आबों... सिंधु और चंद्रनीरा चन-आब से लेकर सजलुज तक पांच नदियों का बहुरंगा आयाम था... जब हिमाचल उसी के भीतर था... तब की एक जवान औरत की आवाज उसे उसकी मिट्टी में खड़ा कर देती है-
‘‘ये पहाड़ तुझे हमेशा पुकारते रहेंगे और तू एक दिन सदा के लिए इन्हीं की होकर रह जाएगी... तेरे मां-बाप भी दूर-दूर की दिशाओं से आकर यहीं तो मिले थे... तुझे जंगलों में छिपी-छिपी एक पगडंडी पर उतारने! बस, वो... एक क्षण... वो सहजन्मा लम्हा...जो तुझे तलाश कर रहा है... जिसे तू शिद्दत से लपक कर पकड़ लेना चाहती है... वो तुझे दिख भर जाए... और उसे देखते ही कोई जनूनी तड़प जग जाए तुझ में किसी भी बहाने... यों ही नहीं सीखी है तुमने यहां की जुबानें... यों ही नहीं छान मारे हैं तुमने सोहनी-महिवाल के मानीखेज अफसाने... यों ही नहीं आ गई तू एक ऐसी औरत की कोख में जन्म पाने, जिसमें कई नस्लों से आया रहस्य-रक्त अपनी देह के लिए सांचा तलाश करता है... अपनी रूह की रचना के नए सूत्र ढूँढता है... बेआवाज चीख में पुकार-पुकार कर... बेआहट कदमों से दौड़-दौड़ कर...’’
सहसा वह औरत इस घाटी की भाषा में भीगी हुई करवट बदलती है- ‘‘ऐंढी शोभली बांठण री कैंढी शोभली शोहरी... तू! (ऐसी बणी-ठणी स्त्री की कैसी सुंदर छोकरी है... तू!)... और मैं? जाने दे... मेरे जाने के बाद जानेगी कि पहाड़ कैसे-कैसे पुकारते हैं अपनी खोई हुई बारिशों और बर्फों को... हवाओं और पानियों को। इलाकों को लकीरों में बांट देने से तासीरें मर नहीं जातीं... स्रोत पर स्वाद सनातन है... तू बचाएगी उसे... अपने उस ‘आप’ को, जिसे आज तक कोई समझ ही नहीं सका... न तुमने किसी को भनक लगने दी...’’
वह उस औरत... अपनी नानी को देखती रह गई थी... नई हैरानी से!
इस तरह से पहले कभी नहीं बोली थीं वे...
आज दिन भर दोनों खेत में काम करती रहीं... गांव से आई हुई सहायक स्त्रियों के साथ... खाना भी खेत में खाया। बचपन की आदतें नहीं जातीं, हाथों में चढ़ी मिट्टी चाहे रोज समूची हटा देना आसान है।
रात सन्नाटा ओढ़ चुकी थी। उसने देखा था, नानी रोशनी बुझा कर ऑल इंडिया रेडियो से बह रही नदी में डूब गई हैं- मायूसी को गाकर भी बुझते जीवन को संजीवनी देने वाली लता की आवाज में... ‘जहां ठंडी-ठंडी हवा चल रही है... किसी की मुहब्बत वहां जल रही है...’ वे कितने ही गीतों को उसकी मां और अपने माजी से जोड़ कर उदास हो जाती हैं... लेकिन यह उदासी किसी से कोई शिकायत नहीं करती... न मांग। आगे चलकर यह गीत उसके मां-बाप पर कुछ ज्यादा सही बैठता है- ‘न तुम बेवफा हो... न हम बेवफा हैं... मगर क्या करें? अपनी राहें जुदा हैं...’ कम-अज़-कम उनकी तीन पीढ़ियों की दास्तान तो यह गीत कहता ही है- बर्फ में दबे अंगारों की... ‘ज़माना कहे मेरी राहों में आ जा... मोहब्बत कहे मेरी बांहों में आ जा...’
उस रोज वह नानी का हाथ अपने सिर पर कंपता पाकर उनकी बगल में चुप सो गई थी। जब सारे हाथ साथ छोड़ देते हैं, हम बेसाख्ता किसी एक हाथ से समूचा सुकून पा लेना चाहते हैं... कोई हाथ सारे बिछड़े हुए हाथों को साथ लेकर चला आता है... फिर वे तो नानी थीं... असंभव सी...
सुबह उसने रात के अपने सपने का अर्थ उनसे पूछा था- ‘‘मैं सपने में एक लेख पढ़ रही थी... शीर्शक था- ‘कृष्ण कहते, मैं गायिकाओं में लता मंगेशकर हूं’!’’
‘‘मगर यह लेख तो बरसों पहले मैंने सच में पढ़ा था... मेरे हाथ ने तेरी खोपड़ी के रास्ते तेरे दिल में पहुंचा दिया होगा... इसका सीधा-सा अर्थ है- ‘हमारे खामोश गीतों से बनी गीता को रच सकने वाला कोई भी कृष्ण यही कहेगा कि नारीत्व दर्द की बारिश है और जो उसमें नहाना जाने, वही अमृत को पहचाने! अमृत ऊपर किसी जन्नत में नहीं बनते, हमारे भीतर कसीद होते हैं... हमसे बहते हैं। हर ‘ऊपर’ के मायने हर ‘भीतर’ के उरूज़ हैं... भीतरी बुलंदियों से लेकर बाहर की हदबंदियों के पार तक... जो औरत की छातियों... उसके उरोजों के भीतर परवान चढ़ते हैं और हर नए ईश्वर को दूध पिलाने को मचलते हैं... तमाम रूहानी आब लेकर... तमाम आसमानी शराब लेकर! देवकी जन्म दे और यशोधा दूध... वरना किसी स्त्रैणवंचित अप्रकृत पूतना के स्तनों में संचित विषदुग्ध को चूस फेंकने का हुनर और हौसला कोई कृष्ण कहां से लाए?’’
और मैया से मासूमियत के साथ कैसे पूछ सके कि ‘राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला?’
विष पीता हर कृष्ण कन्हैया... तुम कहते यूपी का भैया!

लीजिए...
पतली कूहल बस स्टाप आ गया।
कुल्लू-मनाली रोड की सबसे ज्यादा सवारियां यहीं उतरती-चढ़ती हैं... विश्वप्रसिद्ध कलास्थली नग्गर को यहीं से दाहिने को रास्ता मुड़ता है। किसी वक्त यहां सिर्फ पानी की पतली सी धार बहती थी। आज उस धार के आर-पार एक छोटा सा शहर बस गया है- पतली कूहल! बहाव आगे निकल जाते हैं... समंदर होकर आकाश पर छा जाने को... और बहावों के आर-पार मनुश्य ठहर जाते हैं संगठित सरोकारों में रोने को... जीने के नाम पर कबाड़ ढोने को... पतली हो या हरिद्वार या बनारस जितनी चैड़ी, हर घाट पर आज जलधार लाचार है।
बस आबादी से आगे बढ़ी तो नदी फिर साथ थी...
दस मिनट के भीतर स्पैन रिसार्ट आ गया, जहां के विपाषतट पर दुनिया भर के संगठित अहंकार द्वारा बहिश्कृत अमीर फकीर ओशो ने कुछ दिन बर्फबारी के नीचे डेरा डाला था।
और... ओ, हेलो... यह लो...
15 मील आ गया...
वालीवुड वालों का मशहूर शूटिंग स्थल... 15 माइल्स...
वह जैसे कहीं दूर से लौटी और हड़बड़ा कर कुछ लोगों के पीछे बस से नीचे उतरी। बस अपना नया गीत गाती मनाली की तरफ निकल गई। उतरे हुए लोग पुल के रास्ते जंगल पार अपने गांवों की तरफ चले गए।
वह नई-नई दोपहर की खिलती धूप में अकेली खड़ी है...ब्यास नदी पर बने झूला पुल को एकटक देखती...फिर पुल पार के 15 माइल्स के समूचे विस्तार को...
कहीं कोई नहीं था...

(कहानी अभी बाकी है .. और भी कई चीज़ें बाकी हैं , सब शनै: शनै: )