मंगलवारी हाट का दिन था । लाल मोर्रम की ज़मीन रात की बरसा से भीगी थी । सागवान के पत्ते से पानी अब भी टपटप चू रहा था । नीले चिमचिमी को रस्सी से बाँधकर थोडा आड बना दुकानें सज रही थीं ।पेड के तने से लाल चींटों की मोटी कतार व्यस्त सिपाहियों सी मुस्तैदी से काली लकीर खींचती थीं । नीचे ज़मीन पर भुरभुरी मिट्टी के टीले में फिर अचानक से बिला भी जातीं । किसी के पाँव पर चढ गये तो छिलमिला कर उछलने का औचक नृत्य भी दिख जाता ।
मंगरू टोपनो , शिबू कुजूर , बालू , बिरसा ,सब के सब बझे थे । छोटी मछली , रुगडा , कुकुरमुत्ता , केकडा पकडेंगे बजार के बाद । जंगल में आग जला पकायेंगे । हडिया के संग खूब पकेगा छनेगा । पर पहले कमाई तो हो ले । कमर के फेंटे में बाँसुरी बाँधे मँगरू छन छन इंतज़ार करता है । इतवरिया और फूलटुसिया हथेलियों से मुँह दाबे हँसती छनकती मुड मुड के देखती हैं । बालों में बुरुंश के फूल कान के पीछे लटक लटक जाते हैं । पाँवों के कडे काले बादल में बिजली की चमक । मंगरू के दाँत भी चमकते हैं , बिजली की कौंध से ।
हाट की भीड बढ रही है । जमीन पर बिखरी हैं चीज़ें , टोकरी , रस्सी , सूप और दौरी , सींक के झाडू , बालों का नाडा , सीप मोती के हार , जडी बूटी , सूखी मछली , सुतली से बँधे साग के गट्ठर , जंगली डंठल , पत्ते के दोने में भुने हुये फतिंगे और भूरे चींटे , मोटे रस में पगे बेडौल देहाती चींटी सनी मिठाईयाँ , घडियाँ और काले रंगीन चश्मे , छींटदार कपडे और न जाने क्या क्या । गाँव के गिरजे का पादरी फादर जॉन एक्का अपने उजले चोग़े को उठाये ,संभाले गुजर जाता है । पिछले इतवार ही तो मारिया कुजूर के बच्चे का बपतिस्मा कराते बच्चे ने पेशाब की धार से नहला दिया था । । बच्चे को लगभग गिरा ही दिया था फादर ने । तब प्रभु इसु की दयानतदारी कहाँ गायब हुई थी । औरतों का झुंड मुँह बिचकाता है ।
भनभन भनभन आवाज़ इधर उधर घूमती है इस छोर से उस छोर । तेज़ तीखी , मोलभाव करती ,हडिये के नशे में झगडती , उकसाती , दबे छिपे हँसते किलकते और फिर दिन ढलते थकी हारी ,बेचैन थरथराती ,बुझते ढिबरी के काँपते सिमटते लौ सी । अँधेरा होते ही सब सिमटता है । अलाव की रौशनी में उजाड पडे चौकोर गुमटियों के निशान , कागज़ की चिन्दियाँ , पत्तल और कुल्हड । रेजगारी की छनछनाहट ,नोटों की करकराहट । कुछ बुझे उदास चेहरे ,धूसर मिट्टी में सने पैरों के तलवे , रबर की चप्पलें और जंगल में सुनसन्नाटे में खोते पाते अकेले रास्ते । जंगल का जादू कहीं बिला गया है । सच कहीं बिला गया है । जंगल अब कुछ नहीं देता । पानी सूख गया है । पत्थर से आग निकलती है । जानवर सब भी कहीं लुकछिप गये हैं । कोई शिकार बरसों से नहीं हुआ है । तीर और भाले किसी और ही समय के खिलौने हैं । सिंगबोंगा ,सूरज देवता भी रूठ गया है तभी आग बरसाता है । मुँडा ,खडिया , ओराँव ,सब आसमान ताकते हैं । पानी टप टप चूता है आसमान से लगातार लगातार । अंधेरा परत बनाता है इतना इतना कि हाथ को हाथ न सूझे । गाँव के लडके अब अंधेरा पीते हैं । दिन भर रात भर । और कुछ जो करने को नहीं । इतना घुप्प अँधेरा है कि सपना तक नहीं दिखता । मँगरू बाँसुरी बजाये तो भी नहीं ।
हाट की दुकानें हर मंगलवार घटती जाती हैं । ट्रक पर हफ्ते आलू और प्याज़ और बीडी के बंडल के साथ दो तीन लडके भी निकल जाते हैं पैर लटकाये ,थोडी सी लाल मिट्टी नाखूनों में दबाये । एकाध लडकियाँ भी , कलाई और माथे के गोदने को छुपाये ,शहर में चौका बर्तन और मजूरी करने । गाँव का जँगल सच बिला गया । अब तो पूरा शहर ही जँगल है जहाँ आदमी ही शिकार करता है और आदमी ही शिकार होता है ।
लाहा पाहिल धरती लोसोत गे
थो थोले तहेकान
सेकाते धरती रोहोर एना
लोसोत हावेत लागित पँखी राजा
होये माय बेनाव केत
ओना हादार होये तेगे रोहोर एना
(शुरु में धरती दलदल थी
फिर इतनी सूखी कैसे हुई
धरती सूखे सो पक्षी राजा ने
बनाई हवा
और उसकी फूँक से सूखी धरती )