2/20/2006
आधा गाँव के पूरे बाशिंदे
शमी बाबू और नाज़िर बाबा , पिता के उन पुराने मित्रों में से थे जो मित्रता की दूरी लांघ कर परिवार के दायरे में आ गये थे. पिता से उनका परिचय तब का था जब हमारी पैदाइश भी नहीं हुई थी.शमी बाबू, गया के पास बेला के रहने वाले थे. तेल का मिल था और भी कई काम. वहाँ के प्रतिष्ठ्त लोगों में से थे, खाँटी सैयद. नाज़िर बाबा ,पिता के अधीन काम करते. बडे दिनों बाद पता चला कि नाज़िर उनका नाम नहीं था.उनका नाम था सईद अखतर . नाज़िर तो एक पोस्ट होता था और पिता के हरेक कार्य स्थल पर एक नाज़िर बाबू जरूर रहते पर नाज़िर बाबा तो एक ही थे.
पक्के नमाज़ी थे. हम जब छोटे थे तो बडी हैरत से अचानक बात करते करते उनका किसी कोने में दरी बिछा कर नमाज़ पढना देखा करते . शमी बाबू उनके उलट थे. कभी नमाज़ नहीं पढते देखा उनको .
कोई भी मौका रहा हो,खुशी का या गम का पापा सबसे पहले इनको याद करते और सबसे पहले पहुँचने वालों में से भी यही दोनों रहते.
नाज़िर बाबा, किसी शादी ब्याह पर आते तो भंडार की चाभी इनको सुपुर्द कर दी जाती. पापा माँ निश्चिंत हो जाते उसके बाद . पापा हमेशा कहा करते कि उन जैसा इंतज़ाम करने वाला उन्हों ने नहीं देखा . मेरी शादी के इंतज़ामात भी उन्होंने ही किये .
मुझे याद आता है कि भाई की शादी के बाद हम सब लौट कर पस्तहाल पडे थे . उन्हों ने एकाध बार आकर हमें टोका कि दुल्हन के आने का वक्त हो गया है , ज़रा कमरा उनका सजा दें.
फिर थोडी देर बाद सभी औरतों को अपने में मशगूल देखकर खूब नाराज़ हुये.खुद गये कमरा सजाने . फिर हमलोगों के बडे मनुहार के बाद माने थे .
पापा जब बीमार पडे थे तब शमी बाबू और नाज़िर बाबा दोनों थे साथ साथ . तब मेरी बडी बहन की शादी की फिक्र होती पापा को. दोनों हमेशा पापा को कहते , हम हैं .जहाँ जाना हो हमें बताइये .
आज दोनों इस दुनिया में नहीं हैं . ऐसी आत्मीयता अब शायद ही देखने को मिले . पुराने दिनों के साथ ऐसे रिश्ते भी बीत गये .पर हमारे मन के पूरे गाँव के ये पूरे पूरे अपने बाशिंदे हैं
2/13/2006
एहसास के परे भी
कुछ सफेद
कुछ गुलाबी
एक ही फूल खिला था
फिर ऐसा क्यों लगा
कि मैं सुगंध से
अचेत सी हो गई
..........................................
मेरी एडियों दहक गई थीं
लाल, उस स्पर्श का चिन्ह
कितने नीले निशान
फूल ही फूल
पूरे शरीर पर
सृष्टि , सृष्टि
कहाँ हो तुम
...........................................
कहाँ कहाँ भटकूँ
रूखे बाल
कानों के पीछे समेटूँ कैसे
मेरे हाथ तो तुमने थाम रखे हैं
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मेरे नाखून, तुम्हारी कलाई में
दो बून्द खून के
धीरे से खिल जाते हैं ,तुम्हारे भी
कलाई पर
अब ,हम तुम
हो गये बराबर
एक जैसे फूल खिलें हैं
दोनों तरफ
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आवाज़ अब भी आ रही है
कहीं नेपथ्य से
मैं सुन सकती हूँ तुम्हें
और शायद खुद को भी
मैं चख सकती हूँ
तुम्हें और शायद
अपने को भी
लेकिन इसके परे
एक चीख है क्या
मेरी ही क्या
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न न न अब मैं कुछ
महसूस नहीं कर सकती
एहसास के परे भी
कोई एहसास होता है क्या
2/05/2006
यादों की गठरी और सन्दूक भर तस्वीरें
कुछ दिन पहले एक पोस्ट लिखा था उसमें जिक्र किया था अपने पिता के बचपन के बारे में . उनको जब बताया इस बारे में तो वो बहुत खुश हुये . फिर मैने उनको कहा अगर बचपन की अपनी वो फोटो खोज पायें तो मजा आ जाये .
मुझे याद है बचपन में एक सन्दूक हुआ करता था जिसमें सारी तस्वीरें रखी जातीं थीं .कभी कभी हम लोग सन्दूक निकाल कर , किसी छुट्टी की दोपहरी में एक एक तस्वीर देखते थे.
फिर पिता का तबाद्ला कई जगह होता रहा .सारे सामान के साथ वो सन्दूक भी जगहों की सैर करता रहा.उसमें से कुछ तस्वीरें माँ ने हमें भी सौंपी ,कभी किसी खास अवसर पर. जैसे मेरे बेटे के पैदा होने के बाद ,एक बार उन्होने मेरे पाँच छ: महीने की उम्र वाली एक तस्वीर मुझे दी थी.साथ में मेरे उसी उम्र के कुछ कपडे भी, बिलकुल नये से. कितने प्यार से संभाल कर रखा था उन्होंने . उस प्यार की गँध ,उस नीली फ़्रॊक में कितने वर्षों से रची बसी थी. अपने दो महीने के बेटे को मैंने कई दिनों तक वो नीला झबला पहनाया था.
अभी भी कुछ दिन पहले एक पैकेट कूरियर से आया जिसमें चिट्ठी के अलावा मेरे बचपन की कुछ और तस्वीरें थीं. मेरे बच्चों को बहुत मज़ा आया उनको देखने में .
खैर, जब माँ और पापा को कहा था वो तस्वीर खोजने को तो मुझे बहुत उम्मीद नहीं थी कि ये मिल ही जायें. पर दो दिन बाद ही उनका फ़ोन आ गया. कई बक्सों और सन्दूकों को खंगालने के बाद उन्होंने आखिर वो तस्वीर खोज निकाली थी. फ़िर तुरत कूरियर भी कर दिया.
ये पैकेट जब खोला , तस्वीरें देखीं तो आँखें भर आईं. बस आँसू उमडते गये. बच्चे परेशान हैरान. संतोष उस वक्त घर पर नहीं थे, वरना मुझे संभाल लेते. खूब रोयी उस दिन. पता नहीं क्या लग रहा था . कुछ छूटने का सा एहसास था, कुछ पाने का सा एहसास था, एक मीठी उदास सी टीस थी. फ़िर कुछ देर बाद जी हल्का हुआ. रात में संतोष ने उन्हें फ़ोन किया और हँसते हुये मेरे रोने के बारे में बताया. मैं क्यों रोई ये मैं उन्हें क्या बताती पर शायद उन्हें पता होगा .
पापा ने उन तस्वीरों के साथ एक पत्र भी भेजा था,
" संस्मरण पढ कर मज़ा आया.कविताओं को धीरे धीरे (अपनी कुछ कवितायें भी उन्हें भेजी थीं ) जुगाली करते हुये पढता हूँ . वैसे खामोश चुप सी लडकी बहुत अच्छी लगी .दुबारा तिबारा पढने की कोशिश करता हूँ.
फ़ोटोग्राफ़ भी भेज रहा हूँ. आम छाप (इस तस्वीर में उनकी शर्ट पर आम के मोटिफ़ बने हुये थे और हम हमेशा इस तस्वीर को आमछाप तस्वीर बोलते ) और ७२ का जोडा भी ( ये तस्वीर उनके जवानी के दिनों की है )
'जूते की चमक ' वाला फ़ोटो ( ये उनके बचपन की तस्वीर ) बडा एनलार्ज नहीं हो सका . फ़ोटो तब की है जब मैं ६-७ साल का था. मैं अब 'नितांत अकेला ' सर्वाइवर हूं "
पापा को आजकल देखने में थोडी परेशानी होती है. कुछ दवाओं का असर था . अब क्रमश: सुधार है. मेरी कविताओं और कहानियों को फ़िर भी खूब चाव से पढते हैं .हर फ़ोन पर पूछते हैं, अगला खेप अपना लिखा हुआ कब भेज रही हो .फ़ॊट बडा कर के उन्हें भेजती हूँ ताकि उन्हें पढने में सुविधा हो .