3/30/2009

सफ़ीना ए ग़मे दिल

कभी आप इश्क़ में पड़ जाते हैं , कुछ पढ़ते हैं और मोहब्बत हो जाती है । क़ुर्तुल एन हैदर को पढ़ा था जब दस बारह साल की रही हूँगी । अपरम्परा एक पत्रिका थी जिसके सिर्फ तीन अंक निकले । बड़े लोग जुटे थे इस पत्रिका से और इसके छपने से घरैया संबंध भी था जो खैर महत्त्वपूर्ण नहीं। बस इतना था कि उसके दो अंक हमारे घर पर थे । पहले अंक में ऐनी आपा की ज़िलावतन थी । उस दस साल की उमर में मुझे पहला इश्क हुआ। फिर जहाँ जहाँ कहाँ कहाँ खोज कर उनको पढ़ा .. उनकी कहानियाँ , उनके कुछ उपन्यास , अपरम्परा के दूसरे अंक में रिपोर्ताज ।

आप किसी लेखक को प्यार करते हैं तो उसके बारे में उमग कर बात करना चाहते हैं , उनकी लिखी पंक्तियाँ आप हँस कर एक प्यार भरी हैरानी से दूसरों के साथ बाँटना चाहते हैं । आप इश्क में होते हैं और सबको बता देना चाहते हैं । शब्दों की दुनिया के चमकीले संसार की रौशनी आपकी आत्मा में भरी होती है । हैरानी होती है कि दूसरे उसे देख नहीं पा रहे , शब्दों के जादू की थाह नहीं पा रहे । कैसी नज़र है ? कैसी आत्मा है ? और कैसी गरीबी है । कुर्तुल ऐन हैदर के बारे में बात करते हमेशा ऐसा ही महसूस हुआ । लेकिन कहीं भी उनका नाम लिया , उत्साह से छलकते किताबों का ज़िक्र किया ..

ओह , अच्छा ..आग का दरिया हाँ हाँ , फिर बात बदल गई..। जैसे कोई दीवार खड़ी हो ।

उनकी "गर्दिशे रंगे चमन" पाँच सात साल पहले पढ़ी थी । कुछ बहुत कुछ पागल हुई थी । कुछ मित्रों से ज़िक्र किया । इस मुगालते में थी कि कुर्तुल की किताब है , कहीं भी मिल जायेगी । ऐसे भोलेपन का टूटना ही था । तब तक हिन्दी साहित्य समाज की गरीब दिशाहारेपन से वास्ता न पड़ा था । आग का दरिया तक जो उनका मैग्नम ओपस समझी जाती है , उस तक पहुँचने के लिये भी कम तकलीफ नहीं उठानी पड़ी । भला हो श्रीराम सेंटर की पुस्तक दुकान (अफसोस अब वो जगह भी बंद हुई )जिन्होंने मिन्नत करने पर कहीं से एक प्रति उठवाई । ये कहानी अलग है कि उसकी छपाई , कागज़ की क्वालिटी सब , कई कई बार अपने कंगलेपन में आपका दिल तोड़ दें और आप फिर याद करें कि किसी भी और विदेशी भाषा के क्लासिक्स कैसे चमकीले साज सज्जा में आपका दिल जुड़ाते हैं । खैर , वो उनके लिखे के प्रति मेरी अगाध अनुरक्ति है कि उस घटिया कागज़ के बावज़ूद उस दुनिया ने मुझे जकड़ पकड़ लिया , छू लिया । रंगे चमन अब तक खोज रही हूँ। तमाम लोगों को कह रखा , वैसे लोग भी जो उस दुनिया के हैं। हर जगह बड़ी ठंडक दिखी और मुझे इस बात से हैरानी भरी तकलीफ और न समझ में आने वाला गुस्सा ।

आमेर हुसैन, टाईम्स लिटररी सप्प्लीमेंट में लिखते हैं कि आग का दरिया उर्दू साहित्य में वो जगह रखता है जो हिस्पानिक साहित्य में वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड का है । और ये कि अपने समकालीन लेखकों, जैसे मिलान कुंडेरा और मार्खेज़ से उनकी तुलना की जाये तो उनके लेखकीय संसार की वृहत्ता , उनकी दृष्टि , उनका अंतरलोक . समय के पार और उसके परे जाता है । अमिताव घोष कहते हैं कि वो बीसवीं सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण भारतीय आवाज़ हैं । फिर वो सबसे महत्त्वपूर्ण आवाज़ क्यों हमें उपलब्ध नहीं है ? क्यों जब हम महत्त्वपूर्ण किताबों की बात करते हैं तो कुर्तुल का नाम अमूमन उस आसानी से नहीं लिया जाता ? किसी ने कभी मुझे कहा था कि वो उर्दू की हैं , डोंट क्लेम हर ऐज़ योर ओन (यहाँ ओन मतलब हिन्दी साहित्य )

एक बार मैने किसी से शिकायत की थी क्यों नहीं उनकी सब चीज़ें एक जगह एकत्रित की जा सकती हैं । मुझे कॉपीराईट रूल्स और पब्लिकेशन के नियम बताये गये थे । मैं नहीं जानती उनकी चीज़ों के कॉपीराईट्स किसके पास हैं, मुझे नहीं पता कि पब्लिशिंग़ हाउसेस उन चीज़ों को नहीं छापता जो किसी और ने छापी हैं पहले से । मुझे सचमुच इन नियमों के बारे में कुछ नहीं मालूम। मैं सिर्फ एक अदना पाठक हूँ जिसको उनके लिखे से बेपनाह मोहब्बत है। मैं सिर्फ ये जानती हूँ कि उन जैसी लेखिका के लिये शायद ऐसे सब नियम तोड़े जा सकते हैं और इस बात का क्षोभ कि मैं सिर्फ अदना पाठक क्यों हूँ । मैं ऐसे किसी समाज का हिस्सा क्यों नहीं जहाँ एक पाठक की हैसियत इतनी महत्त्वपूर्ण हो कि किताबें उनके माँग को ध्यान में रखकर मुहैय्या करायीं जायें ।

मैं याद करती हूँ कि चाँदनी बेगम, सीताहरण या गर्दिशे रंगे चमन मे उन हिस्सों को जहाँ कहानी खत्म होती है और लूज़ली स्ट्रक्चर्ड बातचीत के ज़रिये वो हमें कहीं और ले जाती हैं , वहाँ जहाँ जीवन अपनी संपूर्णता में, अपने कच्चे पक्केपन में धड़कता है । उन हिस्सों को पढ़कर कई बार मुझे लगा है कि उनसे बात करना ऐसा ही होता , अगर मिल लेती तो और अगर वो मुझे प्यार से , ए लड़की इधर बैठो ..कहतीं ।

नेट पर खंगालते मुझे उनके बारे में बहुत कुछ नहीं मिला ..लेकिन रज़ा रूमी के उनसे मिलने की दास्तान मिली, उनकी कुछ औडियो लिंक्स , यहाँ भी , कुछ उनपर लिखे पुराने ब्लॉग लिंक्स मिले ..यहाँ

बस इतना सा ही । कुछ दिन पहले ज़ुबानबुक्स पर सीताहरण का अंग्रेज़ी तर्ज़ुमा अ सीज़न ऑफ बिट्रेयल्स देखकर मन प्रसन्न हुआ था । इस उम्मीद में हूँ कि ऐसे ही "कारे जहाँ दराज़" और "मेरे भी सनमखाने" कहीं मिल जायें ।

उनके बारे में कुछ यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

ये भी तकलीफ की ही बात है कि नेट तक पर उनसे संबंधित कितनी कम सामग्री है । ऐनी आपा होतीं अभी, कहतीं, अच्छा लड़की , तू इतना ही समझती है?

शी वुडंट हैव केयर्ड अ डैम ..

3/26/2009

तैमूर तुम्हारा घोड़ा किधर है ?

बूढ़ा गरम कपड़ों में लिपटा , पनियायी आँखों से देखता है , जीवन जो बीत चुका । अब और कुछ नहीं है इंतज़ार के सिवा । चाय की प्याली से हाथ सेंकता सोचता है अब भी वही तीस साल का फुर्तीला जोशीला लड़का कुँडली मार कर बैठा है भीतर । क्या होगा उसका मृत्यु के बाद ।


ये वो नहीं, मैं सोचती हूँ । बियाबान चट पहाड़ों के बीच कहीं खो जाती सी , जाने कहाँ जाती सी सड़क पर घँटों चलते शरीर अकड़ जाता है । इतनी ऊँचाई पर साँस की भी दिक्कत । तराई पर अपने कमरे का गर्म सुकून याद आता है । सच पागल हुये थे जो ऐसे जोखिम भरे रास्ते पर चल पड़े । ऐसी कैसी घुमाई । हल्की धीमी उबकाई साँस के साथ चलती है । उस उचाट बियाबान में इस चाय की गुमटी का मिल जाना भगवान का मिलना है । गुमटी के पीछे दो देसी मुर्गियों के बीच एक बाँका मुर्गा कलगी फैलाये शान से देखता है । मुर्गियाँ अच्छी गृहणियों की तरह एक बार हमें देखकर पथरीली चट ज़मीन में फिर कीड़े मकोड़े तलाशने में जुट जाती हैं । टेढ़े बेढ़ंगे दो टाँग पर टिके पटरे पर बैठना खतरे से खाली नहीं पर बूढ़े के इशारे पर हम बैठ जाते हैं , ठंड से सिकुड़ते और लालसा से ओट में जलते चूल्हे की आग की गर्मी और खदबदाते देग से गर्म भाप को आँखों से पीते , हम ताकते हैं .. बाहर की पहाड़ियों की तरफ , फिर भीतर के सफेद गंदलाये अँधेरे की तरफ , फट्टों की दीवार के फाँक से आती हवा से हिलते पिछले साल के कैलेंडर और ताक पर रखे पीतल के बुद्ध भगवान की मूर्ति के सामने लोबान के उठते धूँये की तरफ । बुद्ध अपनी मंगोल आँखों से अनुक्म्पा बरसाते हैं ।


कभी तैमूरलंग इसी रास्ते आया होगा , समरकंद , अमु दरिया से ऐटॉक होते हुये दिल्ली । शहरों और गाँवों को लूटते हुये , बाशिन्दों को मौत के घाट उतारते हुये , औरतों को हवस का शिकार बनाते हुये और फिर नब्बे हाथियों पर सिर्फ बेशकीमती पत्थरों को लाद कर और बाकी लूट का माल लिये लौटा होगा बीबी खानम मस्जिद बनाने के लिये ।


मुझे नक्शे देखना पसंद है । उँगली रखकर मैं तैमूर के रास्ते चलती हूँ , हेरात , इस्फाहन , शीराज़ । क्या ज़मान रहा होगा । तैमूर सुनते हैं लंगड़ा था और घोड़ों पर सवार अपने सैनिकों के साथ , दुर्गम दुर्दांत दर्रों और पहाड़ियों से , बर्फीली हवाओं वाली तराई से , कँपकँपाते ठंड में कैसे जोखिम उठाते निकल पड़ा होगा । कैसी अदम्य जीवनी होगी । धूल उड़ाते , भालो और तलवारों और नेज़ों से लैस, चमड़ों के पट्टों की जीन कसे अरबी घोड़े मुँह से झाग उड़ाते उड़ते होंगे , धूल , पसीने , थकन से पस्त , भूरी दाढ़ियों में कहाँ कहाँ की धूल भरे, अपने अंदर की आग जलाये । जीना , मरना फिर जीना । व्यर्थ नहीं , हमेशा किसी सार्थकता की तलाश में । और बेचारी औरतें ? हमेशा पहला निशाना , आतताईयों के , हमलावरों के , लूटेरों के । वही जीवन का तरीका था । अ वे ऑफ लाईफ । कितना ऐडवेंचर , कितनी तकलीफें ।

मेरी उँगली तैमूर के साम्राज्य की सीमाओं पर फिरती लौट आती हैं । अपने खोल के अंदर दुबक जाती हैं। पोरों से मैंने एक संसार छू लिया । किसी ने कहा था , तुम्हारे अंदर वो आग कहाँ है ?
मैं खोजती हूँ , टटोलती हूँ अपने भीतर । इस आग को लेकर मैं भी तैमूर बन जाऊँगी । सब तज कर किधर अपने सपने खोजती निकल जाऊँगी ? अपने मन की भीतरी सब गुफाओं और खोह की पड़ताल कर लूँ पहले , दुबके अँधेरों को पहचान लूँ , अपनी आत्मा से सब संताप मिटा दूँ तब मेरे पैरों की नीचे ज़मीन होगी न , ठोस ज़मीन । मैं अपने पँख चमकते धूप में फैला कर आसमान देखती हूँ । आसमान आज खुशी का नाम है ।


गाड़ी के बोनट पर थोड़ी धूल जमी है । उसका पिछला चक्का बैठ गया है और स्टेपनी , मालूम पड़ता है कि पिछले पंक्चर के बाद बदला गया था , बनवाया नहीं । दोनों पुरुष गहन बहस में जुटे हैं । चाय गुमटी बूढ़ा अपनी पनियायी आँखों से चुप देखता है । उसकी जवान चिपटे सेब गाल चेहरे वाली बहू बिना कुछ समझे हँसती है । कोई गैराज ? मेकैनिक ? पर भी मुँह पर हाथ धरे फिर हँसती है । रियर व्यू मिरर से लटकती घँटी धीमे से हिलती है , पेंडुलम की तरह , फिर स्थिर हो जाती है । मैं अपने दुखते एड़ियों को जूते की कैद से निकालते सोचती हूँ , तैमूर तुम्हारा घोड़ा किधर है ?

Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

3/24/2009

चीख

खुशी एक याद है । बचपन जैसे । फिर कैसे भूलती हूँ । वो रास्ता गुम हो जाता है समय में । पीछे पीछे पाँव रखते पहुँच नहीं पाती वहाँ जहाँ से सब शुरु हुआ था । उन दिनों को याद रखना इतना ज़रूरी क्यों था ? अब सिर्फ एक चीख की गूँज जैसा कुछ सिर्फ क्यों बाकी है ।

बच्चा ज़ोर से खिलखिलाता है । उसके चेहरे से धूप छिटकती है । मुड़ कर जाती हुई औरत देखती है , मुस्कुराती है फिर चल पड़ती है । हवा में अचानक जाने कहाँ से आये कपास के फूल तैर रहे हैं । तितलियों को देखे ज़माना बीता । और शायद कुछ दिनों में पेड़ और हरियाली को देखे भी , ऐसे ही ज़माना बीतेगा । मेरे आसपास लोग बात करते हैं , ज़ोर शोर से । शेयर प्राइइसेज़ और रियल एस्टेट के फ्लकचूयेटिंग रेट्स पर । आचार संहिता लागू हुआ तो अब किसी भी नये काम के लिये एलेक्शन कमीशन की अनुशंसा लेनी पड़ेगी । काम का लीन पीरीयड ..अच्छा है । बैंगलोर में कोई मकान खरीद रहा है । ई एम आई और ब्याज़ दर ..ये बैंक और वो बैंक , योरप टूअर के लिये एस ओ टी सी का शानदार स्कीम , स्पाउज़ की बजाय कम्पैनियन ले जायें पर ज़ोरदार कहकहा ..

कोई नहीं देख रहा कि अब तितलियाँ नहीं दिखतीं । या ये कि खुशी सिर्फ गये दिनों की याद है । या ये कि काम क्यों रुक रहा है ? इसीलिये हम अभी तक इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में इतने कंगाल हैं , सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर क्यों ? और हर मामले में ..बस कंगाल । भावनात्मक रूप से भी ..गरीब गरीब। किसी तरीके का बोध हम में नहीं है । मोहन-जो-दारो और हरप्पा बनाने वालों की संततियाँ कूड़े के दलदल में बसती हैं । सामने शीशे की विशाल खिड़कियों से मेट्रो का घुमावदार कंक्रीट दिख रहा है । उसमें भी एक तरीके की सुंदरता है । स्लीकनेस है , नई तकनॉलॉजी का क्या शानदार नमूना है । कुछ कुछ ‘द ग्रेट बाथ’ जैसा ही शायद। फिर यहाँ से वहाँ जाना कितना सुविधाजनक , नहीं ? पीले सेफ्टी हेलमेट में मजदूरों की शक्ल की भुखमरी नहीं दिखती । सिर्फ रौशन पीलापन दिखता है , कंक्रीट कर्व का स्लीकनेस दिखता है । हम उतना ही देखते हैं जितना देखना कम्फर्टेबल होता है । रिश्तों में भी तो । हम ऐसे ही ब्रीड के हैं। हमारे आसपास भय का गहरा कूँआ तैरता है , अनाम चीखों का और हम पुरज़ोर कोशिशों में लगे हैं , अपने आप को बचा लेने की, अपनी आँखें और कान बन्द कर लेने की। हम सब इस पृथ्वी के शुतुर्मुर्ग हैं ।

मैं क्लयरवॉयेंट हूँ । चीज़ों के घट जाने का अभास एक छाया है । मैं सिद्धार्थ बन कर निकल जाऊँ कहीं और बुद्ध बन जाऊँ ? या कहीं किसी गाँव में संतरे के पेड़ के नीचे बैठकर होमर पढ़ूँ या मेघदूतम । एक महक आती है , सूखे पत्तों के जलने की । धूँये का स्वाद मुझे अच्छा लगता है । मुझे लगता है कि मैं भारी लती बन सकती हूँ । धूँये का स्वाद कूँये के पानी के स्वाद सा लगता है । कल सबसे तीव्रता से ऐसा लगा । पीछे , कॉल सेंटर की बिल्डिंग से लड़के और लड़कियों की चहचहाहट सुनाई देती है , फिर एक तेज़ आवाज़ , डोंट एवर कॉल मी नाउ । मैं मुड़ कर देखती हूँ । अँधेरे में कोई लड़की शायद सेलफोन पर अपने दोस्त से झगड़ा कर रही है । मैं अँधेरे में उठते धूँये को , जिसमें युक्लिप्टस की पत्तियों की खुश्बू है , छाती में भरते सोचती हूँ अँधेरी रात और निर्वाण का कैसा अनोखा संबंध है ।


(Edvard Munch ..The Scream )

3/23/2009

स्वप्न गीत

किसी छोटी सी बात का सिरा कहाँ तक जाता है । उसने सिर्फ ये कहा था , लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में । उसकी आवाज़ में उदासी का बेहोश आलम था । जैसे अफीम के पिनक में कोई नशेड़ी । मैंने पूछना चाहा था , कौन सा दयार था जो उजड़ गया ? लेकिन पूछा नहीं था । सिर्फ कविताओं की पतली सी किताब उठा कर पढ़ना शुरु किया था । वो लगातर खिड़की से बाहर देखती रही । मैं हर तीन पंक्ति के बाद निगाह उठाकर उसे देख लेता । उसका थ्री फोर्थ चेहरा । आम के फांक सा चेहरा । बचपन में किताबों के मार्जिन पर ठीक ऐसा ही आम के फांक सा चेहरा बनाता था , खूब घने बरौनियों वाली आँखें और झुकती हुई लटों वाले बाल । वो सब टेढ़े मेढ़े प्रपोर्शन वाली औरतें , सब जीवित होंगी अब भी उन किताबों के मार्जिंस में । या शायद सब किसी कबाड़ी के दुकान के तहखाने में । उन्हीं किसी कबाड़ी की दुकान से ली थी मैंने कौड़ियों के मोल या शायद मुफ्त , हेमिंग्वे की द मूवेबल फीस्ट । किसी दोपहरी में सुगबुगाती खुशी से पन्नों को सूँघ कर शुरु किया था । कविता पढ़ना रोक कर बताना चाहता हूँ उसे ये सब । लेकिन वो आम फांक चेहरे से अब भी बाहर देख रही है । मैं चुपचाप उठ कर निकल जाता हूँ । वो मुझे रोकती नहीं है ।

मेरे पैरों की नीचे पत्तियाँ चुरमुराती हैं । एक औचक बवंडर का गोला उठता है , सड़कों को पागलपने में बुहारता है , सूखे जंगियाये पत्तों को एक उन्मादी पल भर के जुनून में ऊपर और ऊपर गोल गोल उठाता फिर धीरे से छोड़ देता है । मेरे हाथों में किताब भारी हैं । वो किताब जिन्हें मैं पहली बार नहीं पढूँगा । वो किताबें जिन्हें मैं कई कई बार पढ़ चुका हूँ । मेरे सबसे आत्मीय , मेरे सबसे अंतरंग । इन किताबों से मैं और जीवन जी लेता हूँ , वो सारे जो स्थिति शरीर के अवरोधों के गुलाम नहीं हैं । मैं समय और स्थान के परे हो जाता हूँ । मैं भाव और बोध के ऐसे स्तर पर पहुँच जाता हूँ जो मेरे वास्तविक परिस्थितियों से भिन्न हैं । मैं बेहतर मनुष्य हो जाना चहता हूँ , हो जाता हूँ । मैं उस सब ज्ञान , प्रज्ञा , विवेक का अधिकारी हो जाता हूँ जो मनुष्य ने आज तक अर्जित किया है । मैं वो पात्र हो जाता हूँ जहाँ सभ्यता अपनी अंजुरी से जीवन अनुभव भरती है । मैं एक मानव हो जाता हूँ , सबसे अलग , सबसे उच्च । पर सबके साथ । मैं ठीक उसी वक्त पूरी मानवजाति का प्रतिनिधि हो जाता हूँ । मैं संपूर्ण होता हूँ । एक साथ मैं अपने अंदर उतने जीवन इकट्ठा कर लेता हूँ , जितनी किताबें मैंने पढ़ी हैं । मैं किताबों से बेइंतहा प्यार करता हूँ । मैं एक साथ सौ लोग होता हूँ , सैकड़ों लोग होता हूँ । मैं स्त्री होता हूँ , बच्चा होता हूँ ,पुरुष होता हूँ । मैं कभी अफ्रीकी मसाई और कभी मोरक्कन बरबर होता हूँ , कभी औस्ट्रलियाई अरूंता , कभी रेडइंडियन नवाज़ो लड़ाका । मैं रेगिस्तान में प्यासा दौड़ता हूँ , कभी समन्दर के थपेड़ों से नमक कटे गालों को थामता हूँ । मैं सूली पर मरता हूँ , मैं भाले की नोक पर जीता हूँ । कितनी बार जिया और कितनी बार मरा ।
मैं ये सब उसे बताना चाहता हूँ ।

मैं बताना चाहता हूँ ..कोई दयार नहीं उजड़ता । मन में इतने लोग एक साथ वास करते हैं । फिर उजाड़पना कैसा । मैं उँगली पर रंग लगाकर शीशे रंगना चाहता हूँ और उसके चेहरे से उदासी पोंछ देना चाहता हूँ । मैं जीवन से टूटकर मोहब्बत करता हूँ । मैं रात दिन चलता हूँ । जंगलों के बीच , पानी पर , रेत पर , दलदल के पार । मेरे घुटने छिले हैं , मेरे पैर कड़े हैं । मेरे कँधे दर्द से झुके हैं , मेरे अंगूठे चोटिल ठेस खाये हुये हैं । फिर भी मैं चलता हूँ , इसलिये कि जीता हूँ ।

ये सब वो आमफांक चेहरा नहीं समझता । सिर्फ दर्द में डूबा रहता है । अपने छोटे से दर्द के पिंजरे में । मैं अपनी ऊँचाई में सिहरता हूँ फिर एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखता ।

वो अब भी खिड़की के बाहर देख रही है । उसकी उदासी धीरे धीरे निथर जाती है । जैसे पानी से थकान धो दिया गया हो । वो चीज़ों को रचाती बसाती है । फूल उगाती है और सूरज के निकलने पर अपनी आत्मा धो पोछ कर चमकाती है । कहती है , मैं वो औरत नहीं ...

(गोगां Ia Orana Maria (Hail Mary). 1891

3/19/2009

बैठे बिठाये

उदास संगतों के बीच कोई सुर तलाशते हैं , खोजते हैं मायने सपनों के । झरते फूलों और गिरते पत्तों के सारंगी सुरबहार तान में , कोई विकल बेचैनी नये पत्ते की तरह फूटती है । काली बिल्ली एक बार घूम जाती है पूँछ उठाये । मैं अँधविश्वासी नहीं फिर भी रुकती हूँ , सोचती हूँ । देखती हूँ लोगों को बोलते बतियाते जीते और हैरान होती हूँ । हर पल हैरान ।

किसी रोज़ बारिश में भीगते देखा था
देखा था मिट्टी में पानी की धार
भीगते शब्द थरथराते काँपते
निचोड़ते थे अर्थ
छोड़ते थे अपनी जगह
कुछ शर्मिन्दगी से
बियाबान मैदान पर
विचरती जैसे कोई अकेली नीलगाय
पुरानी पोथियों में छुपी किसी
गोपन कथा के संकेत चिन्ह
जिनको बाँचते पहुँचेंगे
पकड़ लेंगे तुम्हारे सब अर्थ
तुम समझते थे तुम्हीं चालाक
हम भी सीखते हैं , पकड़ते हैं औज़ार
तलवार की तेज़ी सा, पैनी बुद्धि की कसम
एक दिन सब होगा हमारी पकड़ में
नीलगाय का झुँड तब आराम से विचरेगा , निर्द्वन्द
शब्द लटकेंगे रस भरे , लदी टहनियों से
पहुँच के पास
गप्प से मुँह में धर कर
कर लेंगे अंदर
और बहेगा तब
हमारी मांस मज्जा रक्त में
शब्द अपने पूरे अर्थ में
फिर तुम कैसे बच पाओगे
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था

मार्गरेट ऐटवुड की इन पंक्तियों को पढ़ते हुये
You fit into me
like a hook into an eye
A fish hook
An open eye