6/30/2008

कोई अंत कहाँ था

घोड़ा सरपट दौड़ता , बेसुध , उसके फैले नथुनों से गरम भाप निकलती , महीन छोटे बुलबुले थकान के , लगाम से कसे जबड़े पर माँसपेशियाँ तिड़क जातीं । उसके अयाल हवा में लहराते , उसके खुर कब धरती पर पड़ते कब उठ जाते , धूल गर्द गुबार के चादर के पीछे घोड़ा दौड़ता सरपट । जान लगाये , छाती धौंके । बदन के रेशे पानी में उठते लहर से लहराते । और सवार ? सवार को होश कहाँ था ?

दर्द से चूर , थकान से मदहोश गाफिल , किस बात की खबर । बस इतनी भर की एक साँस बाद दूसरी आ जाये और छाती धड़कती रहे , सँभाल ले इन वहशी साँसों को । अब उसे इतना तक पता न था कि ऐसी धड़धड़ाती धड़कन उसकी थी कि गाल घोड़े के गर्दन से सटाये घोड़े के बेतहाशा हाँफ की खबर उस तक पहुँचाता था । जैसे अब जाकर उसके और घोड़े के शरीर का सुर एक था । थकन की डोर से बँधा , एक लय के साथ उपर उठता नीचे गिरता । सवार का शरीर नम था । घोड़े का शरीर और ज़्यादा नम था । डर एक धड़कन थी , पसीने में मिली जुली , खट्टी , तीखी । सवार घोड़े पर सवार था । डर सवार पर सवार था । पीछे बगूला उठता था । पीछे हाहाकार मचता था । आगे न जाने क्या था । इस घमासान युद्ध का कोई अंत ? कहाँ था ?

6/29/2008

जी में आता है यहीं मर जाईये



वो जगह अँधेरे की जगह थी । गाढ़ा अँधेरा । हाथ बढ़ाओ तो पोरों को छूकर साफ निकल जाये । फिर हम आँखें बन्द कर लेते और उँगलियों से देखते और देखते कि हमारे शरीर पर ऐसे पँख उग आये हैं जो अँधेरा चीर कर कहीं उड़ा ले जा सकते हैं । और हम बाज़ बन जाते । हमारे डैने हवा को चीरते , अँधेरे को चीरते और हम आज़ाद हो जाते , आज़ाद परिन्दे । हमारे बदन पर हवा सट सट फटकार मारती , हमारे चेहरे पर हवा चाबुक चलाती , हमारी आँखों से आँसू बरछी की तरह तेज़ निकल कनपटी तक फैल जाती , हमारी छाती तेज़ तेज़ धड़कती , हमारी नब्ज़ से एक जुनून बिजली सा कौंध जाता , हमारे पैर के कानी उँगली का नाखून खिंच जाता और हम ऐसी शिद्दत से ज़िन्दा होते ऐसी शिद्दत से ... कि बस !

पर ऐसा कभी कभी होता । ज़्यादातर हम पड़े रहते , चित्त और अँधेरा हमें ओढ़ लेता । हम आँखें फाड़ फाड़ देखते और हमें कुछ भी न दिखता । फिर हम थक कर आँखें बन्द कर लेते । तब ये अँधेरा कूँये के अतल गहराई का अँधेरा होता । कुछ कुछ भयानक , कुछ ज़हरीला , काई से भरा जहाँ रौशनी का एक कतरा भी साँस न लेता । उँगली वहाँ डुबाओ तो पानी के साथ लसलसा अँधेरा भी चिपक जाये और घबरा कर हाथ चाहे लाख झटको छूटे ही ना । और ऐसी नीम घबड़ाहट में आँखें खुल जातीं ..खुल जातीं और अँधेरा तब भी न छूटता । हम छटपटा कर रह जाते पर तब भी न छूटता । हम अँधेरे के कैदी .. ताउम्र कैदी ..किससे गुहार करते ? किससे कैफियत माँगते ?

फिर किसी दिन या शायद किसी रात कोई लड़की एक जुगनू छोड़ देती । बच्चों की हँसी भरी चुलबुलाहट उस जुगनू की पीठ पर बैठ कर अँधेरों में धीरे धीरे उतर आती । हम साँस रोके , दम साधे महसूस करते ..रौशनी के आभास को , उसकी गर्मी को । हमारी त्वचा , अँधेरे से पीली पड़ी त्वचा , सिहर जाती किसी आगत के उत्साह में , आकुल..बेकल । एक साथ हँसी और एक साथ रुलाई होड़ लगाती , उफनती , धक्कमपेल ...सब एक साथ । और हम एक साथ जी जाना चाहते .. एक साथ मर जाना चाहते ...सब एक साथ ..सब एक साथ ।

6/26/2008

तभी उड़ती हैं तितलियाँ

सुबह से आज पी नहीं चाय तभी ज़ुबान पर कसा सा स्वाद
रात के दर्द का
छुप के बैठा है
मैं मुस्कुराती हूँ , हाथों से बाल समेटती हूँ , सामने शीशे पर फुर्र से
उड़ जाती है तितली


तुम उँगलियों से चलते हो मेरी गर्दन की नसों पर, मेरे कँधों पर दर्द किसी घोड़े पर सवार सरपट दौड़ता है
अँधाधुन्द

दो बून्द टपक गया, कह दिया , बस ऐसी बे-इंतहाई
किसी भी चीज़ की अब सुहाती नहीं

याद है तुम्हे कहा था एक बार दर्द में दिखता है मुझे कोई तीसरा रंग, कोई और खिड़की खुलती है वहाँ जहाँ दीवार तक नहीं , मेरी त्वचा पर खिलते हैं कुछ नीले फूल जिन्हें अगर छूओगे नहीं फट से मुर्झा जायेंगे, दरकिनार

मैं अब भी हँसती हूँ, तुम अवाक देखते हो ये कैसा दर्द, मैं कहती हूँ
खा ली थी मैंने तुम्हें बताने के पहले ही कोई लाल पीली गोली तभी उड़ती हैं तितलियाँ सामने शीशे में
एक के बाद एक

6/21/2008

तो ऐसे लौटेंगे हम एक दिन

मेरे हाथ की लकीरों से भाप निकलती थी । मैंने रात का अँधेरा अपनी आँखों में सजाया और सूरज माथे पर खुद ब खुद सज गया । बारिश ने मेरी त्वचा में एक गीली महक भर दी और शरीर से फसल उगने लगी । उसकी गमक ऐसी बेसुध गमक थी कि जिसके पँखों पर चलकर वो मेरे पास आया । हमने हाथ बढ़ाये और समय को पकड़ लिया । उसने मेरे पैर के नीचे अपनी हथेली रखी और मैं आसमान में उड़ चली । धुँध में छिपे झील के नीले हरे पानी में कोई नाव बेआवाज़ चली जाती थी । चप्पुओं की आवाज़ किनारे झुक आये हरियाले घास को छूकर फिर सतह पर लौटती । उसी दिन तय हुआ था कि दो लोगों के बीच न रात होगा न दिन , न स्पर्श होगा न साँस की छुअन ,न देह की तपन ।

धरती पर तब नदी आयी पानी आया , जंगल आये पेड़ आया , पहाड़ आये चट्टान आया , स्त्री और पुरुष आये लोग आये ....हाथी , बाघ , भेड़ फतिंगा ...और न जाने क्या क्या । फिर एक दिन ...

उस दिन जंगल में घूमते समूह ने देखा आसमान में दो सफेद पँखों वाले परिन्दे उड़ते हैं । उन्होंने घुटनों के बल झुककर उनका अभिवादन किया । बुज़ुर्ग ने कहा इस रुत में हमारे शरीर भरे पूरे रहेंगे । सोंधा अन्न और मीठा पानी मिलेगा ।
उस समय में भाले और तीर लिये कबीले घूमते थे । खच्चरों पर असबाब बाँधे , पीठ पर बच्चों को थामे औरतें और बिन बच्चों वाली औरतें सर बोझा लिये चलती जातीं चलती जातीं । कहीं बहती नदी के किनारे तम्बू गड़ता । अलाव जलता । कुछ दिन को थिर जीवन स्थिर जीवन । चाँद बढ़ता घट जाता । रात चाँदनी होती फिर अमावस । आदमी औरत ऊपर आसमान देखते और गोल चाँद को काले आसमान में जड़ा देख घुटनों के बल बालू पर सर नवाये गिर पड़ते , हे देवता कृपा करो ! देवता की कृपा से शिकार होता , अन्न उगता , मीठा पानी मिलता । मोटे गदबद शिशु मिट्टी में खेलते , लड़कियाँ औरतों की नकल में मोती की माला पिरोतीं , सजतीं , पानी में छाया देखतीं । बच्चे बड़े होते , उनके होठों पर देवता लकीरें खींचते , उनकी छाती को बलिष्ठ बनाते , उनके बाल किसी सिंह के आयाल जैसे उनके कँधों तक झूलते । सजीले जवान लड़के शिकार को जाते , ऊपर आसमान को देख जीवन देखते । जन्म मृत्यु का रास रचता । कभी देवता हारी बीमारी भेजते । झुंड के झुंड साफ हो जाते । एक दो तीन से फिर कबीला बनता बढ़ता । ऐसी कितनी जद्दोज़हद के बीच कोई पुरुष किसी स्त्री को अपना आसमान अपनी धरती दाँव धरता । स्त्री उसका दिया फूल अपने कमर में खोंस लेती । दोनों नदी पार कर लेते । फूल वहीं किसी मछली के पेट से किसी सीप का मोती बन जाता । पुरुष अपने हाथों से माला गूँथता और स्त्री उसे अपने हाथों से गले में पहनती । और कबीले के लोग देखते आसमानी सफेद परिन्दे फिर से सूरज की रौशनी में नीले आसमान में एक चमकीली रेखा बनाते विलीन हो जाते । उस रुत फिर खूब अन्न उगता , पानी मीठा होता , शिकार इफरात होता ।

फिर एकदिन बिजली कड़कती , नदी उफनती , कोई बाघ चौकन्ना चमकीली आँखों से बस्ती के पिछवाड़े दबे पाँव गुज़र जाता । बुझे आलाव के राख के पास हड्डियाँ दिखती अगली सुबह । अगली सुबह बस्ती उखड़ जाती , कबीला घुमंतू हो जाता । रास्ते में , नदी नाले चट्टान पत्थर सुनते नये शिशु का रुदन , सुनते नये जीवन का उत्सव , सुनते मौत का क्रन्दन । किसी बुज़ुर्गवार को किसी अजानी जगह जहाँ कोई कभी वापस नहीं आयेगा , वहाँ किसी पेड़ की छाया में तने से बिठाकर बढ़ जाते आगे । ये समय लौट कर आने का समय नहीं था । लौटकर आने का समय आयेगा कभी भविष्य में , पर अभी वो समय नहीं था । समय था आगे और आगे जाने का ..सिर्फ धरती पर नहीं , सिर्फ दूरी में नहीं , सिर्फ समय से नहीं , सिर्फ रात तारों को देखते दिशा तय करने का नहीं , सिर्फ समन्दर के किनारे किनारे आगे बढ़ते रहने का नहीं बल्कि जीवन का , उत्थान का , सभ्यता का । ऐसे समय में निर्ममता समय की देन थी । झुर्रीदार चेहरे की अथक पीड़ा और अथक थकान में अकेले छोड़ जाने की , नये जीवन को पोसने की , आगे शक्ति और ताकत की , जवानी की जोश की । ये मानव थे , ये इतिहास था , ये सीखना था । उस सीख को आत्मसात करना था । गेहूँ से रोटी और माँस में नमक की खोज थी , चमकते चकमक पत्थर का आग था , बुनकारी थी , खेती की आजमाईश थी और इन सब के बीच , जीवन मरण के बीच जो अंतराल था , उसका महा उत्सव था ।

तो ऐसे लौटेंगे हम एक दिन ..फिर एक दिन ..

6/18/2008

तुम्हारी शिकायतों की फेहरिस्त इतनी लम्बी क्यों है , हाँ ?

आईरिश कॉफी में डाला नहीं
ठीक से व्हिस्की ,देखो उस शीशे की दीवार के परे कितने बरसाती फतिंगे हैं उफ्फ
और
और ये फर्न और पाम
सबके सब नकली

तुम्हारे शिकायतों की फेहरिस्त
इतनी लम्बी क्यों है ? हाँ ?
सिगरेट के धूँये के पार उसने मिचमिचाती आँखों से देखा सामने बैठी उस लड़की को जिसने लम्बे बालों में
अप्रत्याशित खोंस रखा था कोई सफेद ढलका हुआ फूल

वो अभी अभी लौटा था
किसी देहात से
जहाँ पानी नहीं था, कोई डैम था
जो वर्षों से बन रहा था, ठेकेदार थे जो
बिना काम पैसा बना रहे थे
परिवार थे जो तैयार थे
विस्थापित होने को , चीज़ें थीं जो होनी चाहियें थी आसान, सही सीधी चीज़ें
लेकिन जो होती नहीं थी शायद कभी नहीं होंगी , थके निढाल चेहरे थे, मरी आशायें
कोई इतिहास नहीं था कोई सौन्दर्य नहीं था कोई सभ्यता नहीं थी मिट्टी में खींचा एक वृत था
धूल में चोट खाया मन था, कुछ न कर सकने की विरुदावली थी , थकान थी , मरण था
और एक ही जीवन था
बस एक ..

तुम्हारी शिकायतों की फेहरिस्त
इतनी लम्बी क्यों है ? पूछती है वो , हाँ ?
वो कहता है कहाँ लम्बी है ? सिर्फ ये कि कॉफी में व्हिस्की कम है और बाहर कीड़े बहुत ज़्यादा और ये पाम फर्न सब नकली ..

6/14/2008

साँप सेब और प्यार


उसके मेरे बीच प्यार शब्द कभी आया ही नहीं
हम शिकारियों के चौकन्ने पन से
पैंतरे बाँधते
कुशल फेंसर्स जैसे
चेहरे को ढके तलवार भाँजते
शब्दों को काटते
कभी गलती से भी
जीभ पर अगर
फिसल आता
कोई प्यार जैसा
या उसका पर्यायवाची शब्द
हम शर्मिन्दगी से
चेहरा छुपा लेते

हमने आपस के नये शब्द इजाद किये
सब ऐसे जो प्यार से कोसो दूर थे
जब हमारी उँगलियाँ तरसतीं
प्यार को
हमारा मन सुराखों के पार के आसमान को
ललक कर देखता
और उँगलियाँ शाँत हो जातीं

लेकिन इन सब के बीच
हमारी हज़ारों किस्से कहानियों के बीच
हम कई बार
बेवजह ठिठक जाते
जैसे कोई भूला शब्द
ज़ुबान पर आते आते फिसल जाता
हम बहुधा चौंक कर देखते एक पल को
एक दूसरे को
गो कि हमने कितने दिन साथ गुज़ारे
कितनी रात बतकहियाँ की
कितनी बारिश साथ भीगे
कितने मौसमों को एक खिड़की से
बदलते देखा
फिर भी हमने
ताउम्र कोशिश की
कि प्यार जैसा
कोई शब्द हमारे बीच
बिलकुल न आये

और हम इतने प्राण पण से जुटे थे
प्यार को भुला देने में
उसे बेवजह साबित कर देने में
कि मौसम कब खिड़की से बाहर गया
हम जान ही नहीं पाये
और जब हमारे बच्चे
हमारे पास आये
पूछा
तुम्हारे पास
हमारे लिये क्या है
हमने तब कहना चाहा
प्यार
हमारी जीभ इस शब्द के पहले अक्षर पर ही
लटपटाने लगी
हमारा दम फूलने लगा
गले की नसें भूली हुई कोशिश में टूटने लगीं
और हमारे सामने हमारे बच्चे हवा में धूँये की तरह
विलीन होने लगे
हम उजबकों की तरह उनको देखते रहे
देखते रहे क्योंकि हमारे बीच प्यार शब्द
कभी आया ही नहीं

उसने तब कहा
दोबारा शुरुआत करो
और हमने खुद को उस बगीचे में पाया
जहाँ मैं थी
वो था
सेब था
और साँप था


( स्केच मूल मिशेल मार्शंड पर कॉपी यहाँ मेरे द्वारा )

6/12/2008

उसके जाने के बाद कोई धूप नहीं है

बंदरगाह से जहाजों के छूटने का साईरन बजता था , मोटा भारी कर्कश बुलंद , रात की पनियायी मटमैली रौशनी को एक पल को तोड़ता हुआ । जैसे ऐतिहासिक फिल्मों में किले की दीवार को तोड़ने के लिये कोई भारी बड़ा लौहखंभ । एक कतार से लंगर लगे जहाजों की गोल खिड़कियों से रौशनी छन कर नीचे पानी के छोटे छोटे लहरों में रेखा बनाती हिलती डुलती विलीन होती थी । कुछ हिस्सा तट पर , मोटे रस्सियों और लोहे के जंग खाये लंगरों से फिसलता धीमे से एक सर्द गीली आह लिये बैठ जाता । सब तरफ पानी की सीली महक , एक अजीब खास सी महक , जैसे सबकुछ ठहरा रुका जड़ हो। बीच समन्दर के पानी के महक से एकदम अलहदा । कुछ कुछ खून के महक जैसा , थोड़ा लोहराईन । इस तरफ एक अलग गमक की दुनिया थी । छोटी जगहों में कई आदमियों के रहने की , उनके पसीने की , उनके साँसों की खट्टी महक , उबले आलू और माँस की महक , जो जहाजों की रसोई में बड़े कड़ाहों में जहाजियों के लिये पकता , तट तक आ पहुँचता । कुछेक भूखे पेट अधनंगे भिखमंगे आह से पानी में हिलते उन रौशन खिड़कियों की तरफ उदास आँखों से देखते । पिछली गलियों में बजबजाता कूड़ेदान कुछ और तरीके की बू फेंकता , ऐसा कि पास आने पर दिमाग चकरा जाये ।

बंदरगाह की पिछली भूलभुलैया गलियों से संगीत की लहरी हवा के साथ पानी तक आ पहुँचती । पियक्कड़ जहाजियों का कान फोड़ू उधम , किसी बेलीडांसर की कमर की बलखाती बिजलियाँ , बार की रंगीन रौशनी ..सब के पीछे सबके परे ,किसी और गली में , किसी तंगहाल कोठरी में कोई औरत बैठी तस्बीह के मनके उँगलियों से गिनती बुदबुदाती है । कोई जवान औरत रंगीन फूलदार कपड़े पहने एक पल को ठठाकर हँसती फिर अचक्के गुम हो जाती है । आँख के कोरों पर एक बून्द आँसू झलमला जाता है । सामने पपड़ियाये पीले दीवार पर तस्वीर में सजा नौजवान सेलर कैप पहने हँसता है । गली के बाहर अचानक कुत्ते बेतहाशा भूँकते हैं । अफीम के पिनक में ढुलका आदमी ज़रा चौंक कर कुत्तों को देखता है फिर आस्तीन से मुँह पोछता गुनगुनाता है कोई गीत अपनी प्रेमिका के याद में । दुख से उसकी छाती दरकती है ..बट ऐंट नो सनशाईन व्हेन शी इज़ गॉन ...

भोर होने के ठीक पहले जहाज , इंजिन की तेज़ गड़गड़ाती आवाज़ के शोर के साथ खुले समन्दर की तरफ बढ़ निकलता है । लाल टमाटरी गाल वाले दढ़ियल कप्तान को बोसन बताता है , हाजिरी रजिस्टर बढ़ाते ..एक आदमी कम है ।

6/05/2008

सोने के नथ वाली मछली


धूँये का मोटा बम्बा आँगन के आसमान को उमड़ घुमड़ ढक रहा है । मुँह में , आँखों में उसके कसैलेपन से पानी आता है । पीछे आँगन में कुन्नी का चूल्हा जब तक जलता नहीं बरामदे तक ऐसे ही रोज़ धुँआ धुँआ शाम होती । अम्मा आँखों में कड़वाहट भरे चूल्हे के पास चुकु मुकु बैठतीं । लकड़ी के बुरादे को ठोक ठोक कर चूल्हे के पीपे में भरा जाता । ये रोज़ शाम की कवायद थी । आँगन के कोने पर चाँपाकल वाले चबूतरे के पास तुरत मांजे बरतनों का चमचमाता ढेर सजा रहता , कढ़ाई और देगची पर मिट्टी का लेवा लगाकर मुनिया की माई करीने से उलट कर कतार में सजा कर जाती। जबतक माई बर्तन माँजती तब तक मुनिया बहती नाक और झोलंगी फ्रॉक पहने कोने में पीढ़े पर बैठे गोल गोल ढेले सी आँख से टुकुर टुकुर ताकती । अम्मा लगभग रोज़ कांसे की कटोरी में लाई चना उसे पकड़ाती जिसके बाद अगले दस मिनट तक मुनिया पूरे मनोयोग से अपने मुड़ी को कटोरे में गोत लेती ।

बाबू शाम को अपनी टुटली साईकिल पर कैंची चलाता पिछवाड़े दरवाज़े से बाउजी की आँख बचा कर दाखिल होता । अम्मा उदास आँखों से हारकर उसे देखतीं , बुदबुदातीं .. जाने कब सुधरेगा । दिन में किसी वक्त शर्मा मास्टर साहब बता गये होते कि बाबू पिछले तीन दिनों से स्कूल नहीं आया ।

बाबू पिछले तीन दिनों से बुची बाबू के बगीचे के पोखर में डुबकी मार रहा है , करौन्दा तोड़ रहा है , हरी टहनी में सुतली पिरा कर मछली मार रहा है । किसी पेड़ के नीचे छाँह में उतारी कमीज़ से मुँह ढके औंधे मुँह झपकी मार रहा है। शाम को बदन मरोड़ता भोला चेहरा बनाये घर में घुसते ही निम्मी पानी पिला , थक के आये हैं के गुहार से अपने खूब पढ़्वैया होने का ऐलानिया डुगडुगी बजाता है ।

आज बाउजी हाथ गोड़ तोड़ेंगे , अम्मा हारी हुई हैं , निम्मी डरी दुबकी है । रात सच में बाउजी बेंत से बेमत्त पीटते हैं । अम्मा अंत में बरदाश्त न कर पाने की हालत में बाउजी के बाँहों पर झूल जाती हैं । निम्मी किवाड़ के पीछे से झट भाग के आती है । बाबू इतनी पिटाई को मुँह भींचे शहीदी बहादुरी से अब तक झेलता अम्मा के छाती से लगते ही हिलक कर रोने लगता है । बाउजी होंठों के कोरों से बह आये गुस्से के फेनिल झाग को आस्तीन से पोछते निकल जाते हैं | अब रात देर से लौटेंगे ।

अम्मा रोते डाँटते बाबू के पीठ पर मार से उभर आये निशानों पर हल्दी लगायेंगी , बाबू भी सुबक सुबक रोयेगा ।
रात खटिया पर लेटे , छत की कड़ी ताकते और खपड़े के छत के फाँक से झाँकते अंजोरिया रात के तारों को निहारते बाबू शेखी बघारेगा , अरे बाउजी की मार भी कोई मार है । देख निम्मा..... अपनी बाँहों की मछलियाँ निम्मा को दिखायेगा । दो साल में बाउजी से ज़्यादा ताकत आ जायेगी फिर देखना कैसे बाउजी बेंत उठाते हैं । निम्मी अविश्वास से मुँह बिचकायेगी ..तब इतना रो काहे रहे थे ? बाबू खिसियानी हँसी हँस कर बात मोड़ देगा । बुची बाबू का बगीचा जो चारों ओर ऊँचे बाड़ से घिरा है उसमें चौकीदार की आँख बचाकर घुस जाने की बहादुरी के किस्से सुन निम्मा हैरान होगी , पोखर तो कोई रहस्यमय पोखर है । सुना उसमें कोई दसेक किलो की मछली है जिसके सोने की नथिया चमचम चमकती है ।

हाँ रे बाबू सच देखा तुमने ?

हर बार सोने के नथ वाली मछली कुछ और बड़ी हो जाती है , कुछ और वजनदार हो जाती है । बाबू निम्मा की मछली सी आँख में अपने लिये खूब श्रद्धा देखता रात की मार भुला जाता है । सचमुच ।

6/02/2008

उसने और कुछ नहीं कहा

उसने और कुछ नहीं कहा
मैं देखती रही
इंतज़ार करती रही
सुबह हुई
दिन ढला
फिर रात हुई
बारिश में चिड़िया
भीगती रही

बालू में लिखा
मैंने घर
फिर तस्वीर बनाई
एक बगीचा
दो कमरे
बहुत सी खिड़कियाँ
ढेर सारी धूप
कुछ हवा
उसने लकड़ी से बनाया
उन तस्वीरों पर
एक क्रॉस
उसने और कुछ नहीं कहा

उस सफर पर
जिन पर चलकर
मैं पहुँचती भीतर
वहाँ तब उग आये थे
कुछ सूखे दरख्त
पसरी काली चट्टान
नदी का सूखा चौड़ा तल
कुछ काली मिट्टी
तलछट पर
दो बून्द पानी
ज़रा सी काई
और बस
मेरा मन
मेरा मन
उसने मुट्ठी भर रेत
झटके से
बिखेरा
उसने और कुछ नहीं कहा

मैंने सोचा
उफ्फ ये इंतज़ार
मैंने पर काटे उस परिंदे के
हवा में कलाबाजी खाई
धूप का एक गोला निगला
चील की तरह
ऊपर नीले आसमान में
दो गोल चक्कर काटे
सर पीछे फेंककर
ठहाका लगाया
उसने भौंचक
मेरी तरफ देखा
बड़ी दुखी उदास नज़रों से
देखा
पर अब भी
उसने और कुछ नहीं कहा

बस इतना भर हुआ कि
अब हमने जगहें बदल ली हैं
चील अब भी बेखटके
उड़ती है , सुनो !