8/25/2005

इष्टदेव से

हाथ पसारे
इष्टदेव से
क्या माँगते रहे ?
मुट्ठी भर धूप
चन्द कतरे खुशी
रोटी भर भूख
कुछ घूँट प्यास ?

क्यों न अब
कुछ और माँगा जाये....
माँगा जाये अब
ढेर सारी आस
बहुत सारा विश्वास
जो हर धडकन पर
साँस ले और
जीवित हो जाये
पले बढे
और मजबूत हो जाये

इतना मजबूत
कि
हमने गढा तुम्हें
या तुमने रचा हमें
इसका फासला
सिमट जाये
उस एक पल के
तीव्र आलोक में

अब तुम
ये मत कहना
कि मैने माँग लिया
इसबार
खुली हुई
अँजुरियों से भी
बहुत कहीं ज्यादा
एक पूरा नीला आकाश ?

2 comments:

Sarika Saxena said...

बहुत ही गहरी सूफियाना नज्म है।
बधाई प्रत्यक्षा जी!

Pratyaksha said...

आपकी कविता "निर्लिप्त" पढी, अभी,
उसकी अंतिम पंक्तियों का भाव भी कुछ ऐसा ही है,
अच्छी लगी.
अगर निराकार से एकाकार हो जायें तो आगे कुछ पाने को बाकी नहीं रहेगा.