5/27/2005

मौन की बोली

कभी कभी अच्छा लगता है
होकर मौन रहे बैठें हम

पानी में कंकर को फेंके
गिनते रहे तरंगों को हम

और कभी छत पर लेटॆ हों
जगमग तारों को देखें हम

छाती पर हाथों को बाँधे
सुनते दिल की धडकन को हम

आँख मूंदकर मन ही मन में
मौन की बोली बोलें तब हम



शुरु की दो पंक्तियाँ राकेश खंडेलवाल जी कि रचना की हैं....आगे कोशिश की है उन्हे बढाने की....

3 comments:

अनूप शुक्ल said...

आँख मूंदकर मन ही मन में
मौन की बोली बोलें तब हम

ये लाईनें बहुत अच्छी लगीं।

Pratyaksha said...

शुक्रिया अनूप जी...
आपने पसंद किया....

Pratyaksha said...

क्या बात है...धंंजय जी
ऐसी काव्यमय प्रतिक्रिया पर तो लिखना कोई कैसे बंद करे.....
हम तो वही लिख रहे हैं जो मन में डोल रहा है